Coronavirus Update Jharkhand : प्रकृति से जुड़े इस क्षेत्र के आदिवासी समुदाय को अब तक नहीं छू सका है कोरोना, जानें क्या है बड़ी वजह और इनकी जीवनशैली

आदिवासी समुदाय हमेशा से चेताता रहा है कि पर्यावरण का नुकसान करने से बीमारियां पैदा होती हैं. जंगलों की कटाई और वन्य जीवों की हत्या प्रकृति का विनाश कर रही है. यह कहना है प्रकृति-प्रेमी व समाजसेवी सिरोधा किस्कू का. श्री किस्कू पीरटांड़ प्रखंड की तुईयो पंचायत में रहते हैं. उनका कहना है कि यहां के चार गांव मधुकट्टा, सोहरैया, नोकनिया और धधकीटांड़ में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लोगों को रहन-सहन व खानपान के कारण कोरोना छू नही सका है.

By Prabhat Khabar News Desk | May 15, 2021 6:32 AM

Giridih News, Coronavirus In Tribal Community (दीपक पांडेय गिरिडीह) : एक तरफ जहां बड़ी आबादी वैश्विक महामारी कोरोना से परेशान है, घोर नक्सल प्रभावित गिरिडीह जिला की पारसनाथ पहाड़ी में बसे कुछ ऐसे गांव हैं, जहां रहनेवाले आदिवासी समुदाय के लोगों तक कोरोना नहीं पहुंच सका है. सीमित आवागमन, व्यवस्थित जीवनशैली और प्रकृति से प्रेम ने इन्हें महामारी में भी मजबूत बना कर रखा है.

आदिवासी समुदाय हमेशा से चेताता रहा है कि पर्यावरण का नुकसान करने से बीमारियां पैदा होती हैं. जंगलों की कटाई और वन्य जीवों की हत्या प्रकृति का विनाश कर रही है. यह कहना है प्रकृति-प्रेमी व समाजसेवी सिरोधा किस्कू का. श्री किस्कू पीरटांड़ प्रखंड की तुईयो पंचायत में रहते हैं. उनका कहना है कि यहां के चार गांव मधुकट्टा, सोहरैया, नोकनिया और धधकीटांड़ में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लोगों को रहन-सहन व खानपान के कारण कोरोना छू नही सका है.

यह सच भी है. सालों भर अपने घर-आंगन की साफ-सफाई, कूड़ा-कचरा को गड्ढे में डाल तथा उसे तरीके से गला कर मिट्टी से ढंकने, प्रकृति की पूजा, सभ्यता-संस्कृति का पालन तथा पारंपरिक खान-पान के चलते ही इन आदिवासी गांवों में कोरोना जैसी महामारी का नामोनिशान नहीं है.

सिरोधा किस्कू बताते हैं, ‘हमारे गांवों में अब तक कोरोना से किसी की मौत नहीं हुई है. हां, शहर से मजदूरी कर लौटने या बाजार में आने-जाने वाले युवा खांसी-सर्दी, जुकाम और बुखार आदि से पीड़ित जरूर हुए, पर किसी डाॅक्टर या दवा दुकान से दवा खरीद कर नहीं खाया. जंगल में मिलने वाली जड़ी-बूटी आदि का सेवन कर खुद स्वस्थ हो गये.’

नोकनिया गांव में पिछले दिनों कोरोना जांच और टीकाकरण कैंप लगा था. ग्रामीणों की जांच करने पर एक भी संक्रमित व्यक्ति नहीं पाया गया. सिरोधा किस्कू बताते हैं, ‘आदिवासी परिवार स्वाद के लिए खाना नहीं खाता है. अधिकांश लोग शाकाहारी भोजन करते हैं. रहन-सहन का तरीका ऐसा कि ऑक्सीजन की कमी हो ही नहीं सकती. यह कोरोना संक्रमण को रोकने में लक्ष्मण-रेखा का काम करती है.’

बाजारू वस्तुओं से परहेज :

आदिवासी समुदाय के लोग बाजार की खाने-पीने वाली चीजों से दूरी बनाकर रखते हैं. 70 वर्षीया चुरकी देवी तथा लोदो मुर्मू ने बताया, ‘माड़ में नमक डाल कर परिवार के सदस्य पीते हैं या चावल के साथ जरूर खाते हैं. जोन्हरा (मकई) को मशीन में पिसवा कर लाते हैं. इसे लपसी या घटरा कर खाने से ताकत मिलती है. बजड़ा को ढेकी में कूट कर घटरा बना कर खाते हैं.’

गांव की वयोवृद्ध महिला बड़की देवी कहती हैं, ‘यूरिया और केमिकल के कारण अब बीमार होना पड़ता है वरना हमने सात दशक में कभी दवा का सेवन नहीं किया.’ बड़की देवी ने बताया कि भेलवा, केंद, आड़ू, कोचरा का फल, खजूर का फल व रस तथा माड़ी आदि खाने से बदहजमी व पीत शरीर में नहीं रहता है. ये आदिवासी परिवार हरी सब्जी जैसे- नेनुआ, झींगा, परवल, कद्दू, करैला, खीरा, ककड़ी आदि को छील कर नहीं खाते हैं.

इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए खुद करते हैं उपचार :

इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए समुदाय के लोग स्वयं उपचार करते हैं. बुखार, जुकाम या सर्दी आदि दूर भगाने के लिए जंगल में जमीन के अंदर मिलने वाले गेठी, कालमेग, नीम, छेछकी आदि का सेवन मौसम के अनुसार करते हैं. पुरखों से आदिवासी परिवार के लोग सोशल डिस्टैंस का पालन करते आ रहे हैं. पंचायत की मुखिया उपासी किस्कू बताती हैं,

‘पका कटहल इम्यूनिटी बढ़ाने में कारगर है. कटहल का एक कच्चा बीज पेट के लिए फायदेमंद है. हमलोग बीज को भूंज कर खाते हैं.’ जड़ी-बूटी के जानकार चुड़का मांझी ने बताया, ‘मड़ुआ की रोटी व घटरा खाने से जल्द शुगर नहीं होता है. साथ ही यह हीमोग्लोबिन बढ़ाने में बहुत मददगार है. चावल उबाल कर इसे पीस दें. यह चावल व जड़ी-बूटी डालकर बनाया गया माड़ी पेट के लिए फायदेमंद है.’

रोगों को दूर करती है शारीरिक मेहनत :

आदिवासी परिवार के लोग अपना समय व्यर्थ बर्बाद नहीं करते हैं. जंगल से लकड़ी लाना, शिकार करना, कंद-मूल, खेती-बाड़ी, मजदूरी, जानवर पालना आदि इनका मुख्य पेशा है. यहां के युवा कहते हैं कि काम नहीं रहने पर वे लोग ग्रुप बना कर जंगल में शिकार करने चले जाते हैं. जानवरों के पीछे कभी पांच किमी तक दौड़ना पड़ जाता है.

शाम में फुटबॉल खेलना पसंद है. लकड़ी लाने, जानवर को खिलाने के लिए पालहा-पात आदि लाने प्रतिदिन जंगल में जाते हैं. पहाड़ी शृंखलाओं में लकड़ी, कोमल पत्ता न मिलने पर दूसरी पहाड़ी पर चले जाते हैं. इस दौरान वे कई किलोमीटर का सफर तय करते हैं. इस कारण शारीरिक रूप से तंदुरुस्त रहते हैं. आदिवासी समुदाय में शायद ही किसी को मधुमेह, ब्लड-प्रेशर, कब्ज आदि की शिकायत होती है.

जंगल व पहाड़ी के बीच बसे गिरिडीह के चार गांवों में आज तक एक भी व्यक्ति नहीं हुआ संक्रमित

पारसनाथ की शृंखलाबद्ध छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरे हैं गांव

जैन धर्म के विश्व प्रसिद्ध तीर्थस्थल पारसनाथ की शृंखलाबद्ध छोटी-छोटी पहाड़ियों पर हरे-भरे जंगलों से घिरे इन गांवों में रहनेवाले आदिवासी समुदाय के शाकाहारी व मांसाहारी खान-पान का साधन वनोत्पाद व वनों में रहने वाले पशु-पक्षी हैं. ये आदिवासी परिवार किसी समारोह में फाइबर, थर्मोकोल, प्लास्टिक व कागज के पत्तल का इस्तेमाल नहीं करते हैं. इसकी जगह सैरेय, पलाश व सखुआ के पत्ते से बने पत्तल पर भोजन परोसते व खाते हैं. दातुन के लिए ब्रश की जगह करंज, परास, सैरेय, पुटूस की टहनी प्रयोग में लाते हैं.

शाकाहारी भोजन, बदलते मौसम के हिसाब से खान-पान, जंगलों में मिलने वाली जड़ी-बूटी, कंद-मूल के निरंतर सेवन से जल्दी बीमारी नहीं होती है. जंगल में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लोग शुद्ध ऑक्सीजन और शुद्ध पानी का सेवन करते हैं. रासायनिक खाद से उपजी सब्जी आदि से दूर रहते हैं. मेहनत करते हैं, इससे उनका शरीर रोगों से लड़ने में सक्षम होता है. बाजार की भीड़-भाड़ से दूर रहते हैं. कोरोना नहीं होने की एक वजह यह भी है.

Posted By : Sameer Oraon

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