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मीडिया की साख पर संकट

पत्रकारिता एक हथियार है. इसका उपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी. लेकिन सवाल यह है कि इस हथियार का संचालक कौन है? उसके हित क्या हैं? दुर्भाग्यवश इस हथियार का संचालन आज अधिकतर अपरिपक्व, शातिर और स्पृह हाथों में है.

बैजनाथ मिश्र

पत्रकारिता, जिसने कभी अपने दरवाजे पर जो मूल्य, त्याग, जनसरोकार व समर्पण का परदा लगा रखा था, ताकि बाहर के दमघोंटू अवयव अंदर न आ सकें, उसने अब वे परदे हटा दिये हैं या वे चीथड़े हो गये हैं. अब पत्रकारिता भी उपभोक्तावादी संस्कृति के साथ गलबहियां करने लगी है. अब निजी हित उससे जुड़ गये हैं.

कल अखबार खोला, तो दो खबरें आंखों के सामने तैर गयीं, पहली खबर थी भ्रष्टाचार में कई नेताओं व अफसरों की संलिप्तता और दूसरी खबर थी, सरकारी सुविधाओं की बाट जोहता ग्रामीण विद्यालय. पहली खबर मौजूदा हालात बयां कर रही थी और दूसरी खबर पत्रकारिता के मूल्यों का परंपरागत बिगुल बजा रही थी. आज समाज में कोलाहल भी है और कलरव भी. लेकिन कोलाहल का स्वर कलरव पर भारी है.

आज की पत्रकारिता को भ्रांतिपूर्ण स्थिति में अपना स्वर तलाशना है. उसे गंतव्य तक पहुंचने के लिए रपटीली राहों से भी गुजरना होगा, मूल्यों की लाठी के सहारे. आज हम सूचना क्रांति के उस दौर में पहुंच गये हैं, जहां पूरा विश्व एक गांव में तब्दील हो गया है. वहीं दूसरी ओर उदारीकरण ने उपभोक्तावादी संस्कृति के कई द्वार खोल दिये हैं.

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यह परिवर्तन बहुत हद तक स्वीकार्य भी होना चाहिए, क्योंकि परिवर्तनशीलता ही जीवंतता का प्रमाण है और जड़ता या यथास्थितिवादिता किसी भी समाज को पतनगामी या क्षरणीय बना देती है. लेकिन प्रश्न है कि परिवर्तन के नाम पर हम क्या–क्या और कितना स्वीकार करेंगे? हमारे खुले दरवाजों से शीतल हवा के साथ–साथ कुछ खर-पतवार, कीटाणु और विषाणु भी आ रहे हैं. उनसे स्वयं को और समाज को बचाने की जरूरत है और समय-समय पर उसे साफ करने तथा कीटाणुनाशी और विषाणुरोधी रसायनों के छिड़काव की भी. लेकिन ऐसा सार्थक प्रयास होता प्रतीत नहीं हो रहा है.

पत्रकारिता जिसने कभी अपने दरवाजे पर जो मूल्य, त्याग, जनसरोकार व समर्पण का परदा लगा रखा था, ताकि बाहर के दमघोंटू अवयव अंदर न आ सकें, उसने अब वे परदे हटा दिये हैं या वे चीथड़े हो गये हैं. अब पत्रकारिता भी उपभोक्तावादी संस्कृति के साथ गलबहियां करने लगी है. अब निजी हित उससे जुड़ गये हैं. अब खबर उसके लिए एक प्रोडक्ट है और पाठक व दर्शक उसके खरीदार. प्रोडक्ट बेचने के लिए कोई भी हथकंडा गैरवाजिब नहीं रह गया है.

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लोकलुभावन और आकर्षक कलेवर में विमर्श व विचार बेचे जा रहे हैं. जिसका कलेवर और पैकिंग जितना आकर्षक है, उसका खैर मकदम उतना ही लाजवाब है. कोई सपने और उम्मीदें बेच रहा है, तो कोई संवेदना और कोई हिंसा व तिलिस्म. लेकिन इस खरीद–फरोख्त के दौर में हम यह भूल रहे हैं कि हमारी बुनियाद जनता की उम्मीद पर टिकी है और धीरे-धीरे हम उस बुनियाद को ही खोखला कर रहे हैं. मुक्तिबोध के शब्दों में कहूं तो हम उस भीड़ का हिस्सा बनते जा रहे हैं, जो रात के अंधेरे में निकलती है और उसमें सभी शामिल हैं, प्रख्यात कवि, साहित्यकार और कुख्यात गुंडा डोमा उस्ताद.

आज बाजारवाद ने हमारी संवेदना को ही कुंद कर दिया है. उचित-अनुचित का विवेक शिथिल पड़ गया है. सामाजिक सरोकार पर निजी सरोकार हावी हो गये हैं. सर्जनाओं का स्थान विवर्जनाओं ने ले लिया है, वह भी गर्जन-तर्जन और कर्कश स्वरों के साथ. हिंसा, हत्या, बलात्कार और आगजनी की तस्वीरों को उच्छृंखल ढंग से सनसनी के रूप में पेश किया जाता है. यह सब किया जा रहा है तटस्थता की चादर फेंककर किसी न किसी पाले में खड़ा होकर पूरी बेशर्मी के साथ.

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मीडिया अक्सर अपने पक्ष में यह तर्क गढ़ता है कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं, अपने पाठको और दर्शकों की रुचि के अनुरूप कर रहे हैं. लेकिन सवाल यह है कि दर्शकों, पाठकों में यह लिप्सा पैदा किसने की? उसमें समय-समय पर खाद पानी किसने डाला? आज जब यह विषवेल दमघोंटू होने लगी है, तो हम बेबसी का भाटराग अलापते हुए अपनी जिम्मेदारियों का ठीकरा समाज पर ही फोड़ने लगे हैं. आज हालात ऐसे हो गये हैं कि पत्रकारिता की विश्वसनीयता को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा है, उसकी साख पर संकट खड़ा हो गया है. पत्रकारिता के उन्नायकों ने जो मजबूत नींव रखी थी, उसे हिलते देखना कचोटता है और आशंकित भी करता है.

पत्रकारिता एक हथियार है. इसका उपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी. लेकिन सवाल यह है कि इस हथियार का संचालक कौन है ? उसके हित क्या हैं? दुर्भाग्यवश इस हथियार का संचालन आज अधिकतर अपरिपक्व, शातिर और स्पृह हाथों में है. लेकिन बावजूद इन दुरभिसंधियों के एक झीना उजास इस घने अंधेरे के पार भी दिख रहा है. इस संक्रमण के दौर में भी कुछ अखबारों ने अपनी विश्वसनीयता और पत्रकारिता की लाज बचा रखी है.

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उन्होंने सामाजिक, नैतिक व मानवीय मूल्यों को ज्यादा तरजीह दी है. लेकिन उनका मुकाबला भी जब उन परचूनी बनियों से है, जो खबरें खुद बनाते-बिगाड़ते हैं और अपने एजेंडे के हिसाब से उसे एक एंगल दे देते हैं, तो ऐसे में उनके लिए अपनी संकल्पना अक्षुण्ण रख पाना एक चुनौती है. लेकिन वो अब भी पूरी शिद्दत से डटे हैं और झुकने को कतई तैयार नहीं हैं. पर ऐसे हैं ही कितने? पत्रकारिता और उसके स्वयंभू झंडाबरदारों को यह समझना होगा कि आज सूचना विस्फोट का युग है, जिसने मनुष्य की तर्कशीलता का हरण कर लिया है. ऐसे में लोगों का विश्वास अपने से ज्यादा मीडिया में तैरते शब्दों पर होता है.

ऐसे में हमारी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि हम सूचनाओं को परोसते समय देश, समाज की सेहत, सूरत और सीरत का ख्याल जरूर रखें, अन्यथा लोकतांत्रिक मूल्यों की पहरेदारी के दावे पर से लोगों का भरोसा उठ जायेगा. आग्रह यह भी है कि हमें भाषागत अशुद्धियों पर भी ध्यान देना होगा. लोग मीडिया से भी भाषाई संस्कार और उपयोग का सलीका सीखते हैं. पत्रकारिता हड़बड़ी का ही सही, लेकिन साहित्य तो है ही. इसमें गड़बड़ी खटकती है. मीडिया मेंं जो खर पतवार आ गये हैं और जो हमारी आंखों में चुभ रहे हैं, उन्हें साफ किया जा सकता है. बशर्ते कुछ लोग सन्नद्ध हों. एक वर्ग जो परिस्थितियों की मार से चुप है, सामने आयेगा. लेकिन शर्त यह है कि हम चिंता छोड़ चिंतन तो शुरू करें.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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