झारखंड: देवोत्थान जतरा मेला आज, सामाजिक समरसता एवं आस्था का केंद्र है बड़गांई देवोत्थान धाम

देवोत्थान जतरा मेले में आसपास के गांव सहित अन्य सैकड़ों गांवों के श्रद्धालुगण पहुंचते हैं. वे भगवान शिव की पूजा-अर्चना कर अपनी मनोकामना पूर्ण होने की प्रार्थना कर मेला का आनंद उठाते हैं.

By Guru Swarup Mishra | November 24, 2023 6:06 AM

रांची: भारतीय सनातन संस्कृति ही विश्व संस्कृति की जननी है. भारतवर्ष में देवी-देवताओं के प्रति असीम श्रद्धा एवं विश्वास के कारण ही चारों धाम हमारी विविधताओं को एकता के सूत्र में सदैव जोड़ते रहे हैं. इस संस्कृति में लोकमान्यता एवं लोककथाओं की अपनी विरासत है. वनों, पहाड़ों, कंदराओं, झीलों, झरनों से अच्छादित झारखंड भी अपनी ऐतिहासिक व अलौकिक गाथाओं, सनातनी परंपराओं और धार्मिक अस्थाओं का पावन स्थल रहा है. रांची महानगर के उत्तर पूर्व की ओर लगभग 7 किलोमीटर की दूरी पर ग्राम बड़गांई में दो पहाड़ियों के मध्य भगवान शिव का धाम है, जो देवोत्थान धाम के नाम से प्रसिद्ध है. इस देवस्थल पर देवताओं के जगने की खुशी में कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रबोधिनी एकादशी की रात्रि जागरण करते हुए पूजा पाठ कर नृत्य दान करते हैं, जो देवोत्थान मेला के रूप में प्रसिद्ध है. विस्तृत जानकारी दे रहे हैं बड़गांई देवोत्थान जतरा मेला समिति के संयोजक व विश्व हिंदू परिषद के प्रांत मंत्री डॉ बिरेन्द्र साहु.

देवोत्थान जतरा मेला आज

देवोत्थान जतरा मेले में आसपास के गांव सहित अन्य सैकड़ों गांवों के श्रद्धालुगण पहुंचते हैं. वे भगवान शिव की पूजा-अर्चना कर अपनी मनोकामना पूर्ण होने की प्रार्थना कर मेला का आनंद उठाते हैं. आसपास के गांव के अखाड़े /खोड़ाहा के नृत्य दल एवं नचनी नृत्य दल भी अपने पारंपरिक वेशभूषा एवं वाद्य यंत्रों से सुसज्जित होकर भगवान शिव का पूजन-अर्चन करके नृत्य गान कर अपनी प्राचीन संस्कृति को प्रदर्शित करते हुए लोगों का मनोरंजन करते हैं. गांव के पहान प्रथम पूजन कर कार्यक्रम का शुभारंभ करते हैं. एकादशी के दिन से ही क्षेत्र में लोग शादी-विवाह की बातें करना शुभ मानते हैं. इस स्थल पर मेला के अलावा विवाह, कर्णवेदी, मुंडन संस्कार आदि कार्यक्रम सदैव चलते रहती है. लोगों के मान्यता के अनुसार यहां मन्नतें पूर्ण होती हैं. इस वर्ष 24 नवंबर 2023 को देवोत्थान जतरा मेला का आयोजन किया जाएगा.

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1931 में जूठन कविराज के नेतृत्व में बना था मंदिर

भगवान शिव का यह देवस्थल बड़ागांई-बूटी की सीमा के बीच है. कहा जाता है एक बार जूठन कविराज काफी बीमार पड़ गए थे. उन्हें स्वप्न में दो पहाड़ियों के बीच में शिवलिंग होने का विषय आया. जब वे सुबह उठकर पहाड़ी के बीच गए तो उन्होंने एक गाय के थन से अपनेआप दूध निकलकर जमीन में गिरते हुए देखा. नजदीक जाकर देखा तो उस जगह पर शिवलिंग दिखाई पड़ा. जूठन कविराज ने वहां पर पूरे विधि-विधान एवं गाजे-बाजे के साथ पूजा अर्चना की, जिससे वह स्वस्थ हो गए. बाद में उन्होंने मंदिर बनाने का संकल्प लिया. जूठन कविराज के नेतृत्व में 1931 में ग्राम बड़गांई एवं बूटी गांव के लोगों के सहयोग से मंदिर निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ, जिसमें मुकुल पहान, जयराम महतो, गेंदो महतो, बंधन महतो, जोधन महतो, चुनिंदर महतो, सहदेव महतो, लहरनाथ महतो, पूनीनाथ महतो, रामनाथ महतो, सोहराई महतो आदि प्रमुख थे, जो अब इस दुनिया को छोड़ चुके हैं. मंदिर का वही पुराना स्वरूप आज भी विद्यमान है, जो लोगों की समरसता एवं आस्था के केंद्र के रूप में सदैव बना रहता है.

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सभी अपने घरों को जगाते हैं

कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी का अनुपम महात्म्य है. इस दिन ही क्षीररसागर में भगवान विष्णु लंबे शयन के बाद जागते हैं. इस कारण इसे देवोत्थान / देवठान / प्रबोधिनी एकादशी भी कहते हैं. छोटानागपुर के लोग एकादशी की रात्रि में अरवा चावल के पीसे लेप से घर के आंगन में चौका-चंदन (अल्पना) बनाते हैं. घर की दीवारों एवं कृषि यंत्रों को अरवा चावल लिप एवं सिंदूर से सजाते हैं, जिसे घर जगाना कहा जाता है. आंगन की अल्पना के मध्य दो आम लकड़ी के पीढ़ों में पांच नए फल के दाने क्रमशः मड़ुवा, उरद, अरवा चावल, मकई के दाना एवं शकरकंद रखते हैं. प्रातः अरवा चावल से दो बच्चों को बैठाकर चुमाने की परंपरा है, जो तुलसी विवाह का घोतक माना जाता है.

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