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कुड़म लिपि के जनक डॉ मुरलीधर महतो

कुड़मालि के भाषाविदों का मानना है कि कुरमाली भाषा का इतिहास तो हजारों साल पुराना है लेकिन इसकी अपनी लिपि का आविष्कार होने से यह भाषा निश्चित तौर पर अधिक मजबूत हुई है.

दीपक सवाल :

मानवीय विचारों को संरक्षित रखने के लिए लिपि का आविष्कार प्राचीनकाल में ही शुरू हो गया था. आदिकाल में धर्मग्रंथों को संरक्षित रखने अथवा लिखने के लिए भी किसी न किसी लिपि का सहारा लिया गया था. मूल रूप से कहें तो मौखिक या उच्चरित भाषा को स्थायी रूप देने के लिए लिपि के तौर पर भाषा के लिखित रूप का विकास हुआ और प्रत्येक ध्वनि के लिए लिखित चिन्ह या वर्ण बनाये गये. सामान्यतः वर्णों अथवा चिह्नों की इसी व्यवस्था को लिपि कहा गया है.

यूं कह लें, लिपि ने ही अनंतकाल तक भाषाओं के वजूद को बनाये रखा है और आज भी लिपि के बिना किसी भाषा को मूर्त रूप नहीं दिया जा सकता. जिस भाषा की अपनी स्वतंत्र लिपि नहीं है, उसे भी अपनी भाषा के वजूद को बनाए रखने के लिए किसी न किसी लिपि का सहारा लेना पड़ा है. विभिन्न स्रोतों के मुताबिक, दुनिया भर में लगभग 6900 भाषाएं बोली जाती हैं. इनमें से बहुत कम भाषाओं (अनुमानित 24) की अपनी स्वतंत्र लिपि है और ऐसी भाषाओं को अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध माना जाता है. इसी सूची में अब कुड़मालि भाषा भी जुड़ चुकी है.

डॉ मुरलीधर महतो ने ‘कुड़म लिपि’ के रूप में कुड़मालि भाषा की अपनी स्वतंत्र लिपि बनाकर इसे अधिक समृद्ध बनाने का काम किया है. यह इनकी वर्षों की मेहनत और अनवरत साधना का प्रतिफल है. श्री महतो बताते हैं कि कुड़मालि भाषा ह्रस्व प्रधान भाषा है और कुड़मालि भाषा की विशेषता के हिसाब से कुड़म लिपि का आविष्कार किया गया है. इसमें कुल 52 अक्षर हैं. लेखन प्रचलित चिह्नों जैसे : – , ? !/ ( ) + ; ” _ – ‘ आदि को हिंदी से लेकर कुड़म लिपि में शामिल किया गया है.

कुड़म लिपि में शिरोरेखा और अर्द्ध अक्षर नहीं है. इसमें दबड़गना, जिसे हिंदी में पहाड़ा और इंग्लिश में टेबल कहा जाता है, शामिल है. लोग पहले कुड़मालि गिनती जानते थे. अब पहली बार कुड़मालि पहाड़ा से भी परिचित हो रहे हैं. ऐसी अनेक खूबियों और खासियतों के साथ इस लिपि को तैयार करने में मिली सफलता को भाषाई क्षेत्र में कई मायने में महत्वपूर्ण माना जा रहा है.

मुरलीधर महतो बताते हैं कि उनमें वर्ष 1986 में कुड़मालि भाषा की स्वतंत्र लिपि के आविष्कार की सोच उत्पन्न हुई थी. तब वह रांची के डोरंडा कॉलेज में स्नातक (हिंदी प्रतिष्ठा) के छात्र थे. उस समय कॉलेज में हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार डॉ श्रवण कुमार गोस्वामी हिंदी के विभागाध्यक्ष थे. क्लास में एक बार गोस्वामी जी ने कहा था कि अपनी लिपि के अभाव में भाषा जीवित तो रह सकती है, लेकिन किसी भी भाषा की अलग पहचान और मजबूती के लिए उसकी अपनी एक लिपि की आवश्यकता होती है.

किसी खास भाषा के लिए ही लिपि का आविष्कार होता है और वह लिपि उस भाषा के अनुरूप होती है. श्री गोस्वामी की यह बात मुरलीधर महतो के मन में घर कर गयी और उसी समय कुड़मालि भाषा के लिए अपनी स्वतंत्र लिपि का आविष्कार करने का मन बना लिया.

लिपि के आविष्कार और फरवरी 2001 में ‘दामोदर मोहर’ नामक हिंदी मासिक पत्रिका में कुड़म लिपि के प्रकाशन के बाद इन्होंने अनुभव किया कि इस तरह के काम के लिए काफी समय और एकांत की आवश्यकता होती है और इसके लिए ईश्वर की कृपा भी जरूरी है. पहली बार फरवरी 2001 में जैसे-तैसे दामोदर मोहर पत्रिका में कुडुम लिपि के नाम से कुड़म लिपि का प्रकाशन हुआ. बाद में संशोधन करके ‘कुड़म लिपि’ नाम स्थिर हो गया.

इसी के हाथों-हाथ प्रकाशित लिपि का प्रचार-प्रसार होने लगा. संयोग से दिसंबर 2001 में बुड़‌हिबिनोर बाइसि द्वारा बोकारो के चास प्रखंड अंतर्गत द्वारिका गांव में अखिल भारतीय कुड़मी सम्मेलन का आयोजन हुआ. इस अवसर पर कुड़म लिपि के लिए इन्हें सम्मानित किया गया. दो दिवसीय इस सम्मेलन में कुड़म लिपि की हजारों प्रतियां बांटी गई. इस सम्मेलन में सम्मान के बाद कुड़म लिपि के लिए इन्हें सम्मान का एक सिलसिला ही शुरू हो गया. जगह-जगह इनके सम्मान के लिए सम्मान समारोह का आयोजन होने लगा, जो वर्ष 2018 तक चला.

डॉ मुरलीधर को कुड़म लिपि के आविष्कार के लिए मिले सम्मानों की लंबी सूची है. सितंबर 2008 में झारखंड सांस्कृतिक क्लब, बोकारो ने सम्मानित किया. इस अवसर पर झारखंड सांस्कृतिक क्लब, बोकारो के अध्यक्ष ने कुड़म लिपि की एक पुस्तिका का प्रकाशन भी किया था. कुड़मि छात्रावास में हुए इस पुस्तिका के विमोचन की खबर को स्थानीय समाचार पत्रों ने प्रकाशित किया था. इसके बाद से हिंदी अखबारों में कुड़म लिपि के बारे में खबरें छपने का सिलसिला शुरू हो गया.

डॉ मुरलीधर 13 जुलाई 2012 को झारखंड सरकार के कला, संस्कृति, खेल-कूद एवं युवा कार्य विभाग द्वारा चास प्रखंड परिसर में आयोजित सम्मान समारोह में कुड़म लिपि के लिए सम्मानित हुए थे. 16 अक्तूबर 2016 को झारखंड सांस्कृतिक मंच के एक समारोह में भी इन्हें सम्मानित किया गया. धनबाद के बलियापुर में 18 दिसंबर 2016 को बिनोद बिहारी महतो की पुण्यतिथि पर आयोजित विनोद जन पंचायत के दौरान भी कुड़म लिपि के लिए सम्मानित हुए थे.

इसी तरह 12 फरवरी 2017 को चंदनकियारी में आयोजित चंदनकियारी महोत्सव 2017 के भव्य समारोह में चंदनकियारी के तत्कालीन विधायक सह झारखंड सरकार के तत्कालीन पर्यटन, कला-संस्कृति, खेलकूद एवं युवा कार्य विभाग के मंत्री अमर कुमार बाउरी के हाथों कुड़म लिपि के लिए ‘चंदनकियारी रत्न’ की उपाधि से सम्मानित हुए. इसके अतिरिक्त चास प्रखंड की चंदाहा पंचायत के मुखिया मनोज कुमार तिवारी ने 21 अक्तूबर 2016 को सम्मानित किया.

23 सितंबर 2017 को बिनोद बाबू की जयंती के अवसर पर पश्चिम बंगाल के विकास मंत्री श्रीराम महतो भी इन्हें सम्मानित कर चुके हैं. 22 नवंबर-2018 को अखिल भारतीय सरना आदिवासी कुड़मि समाज ने भी सम्मानित किया हैं. इसी तरह 3 जनवरी 2018 को जगपाल सिंह मुंडा की जयंती के अवसर पर बेलूंजा पंचायत के मुखिया सुधांशु रजवार ने इन्हें सम्मानित किया. 24 दिसंबर 2017 को सिंहडीह मेला में बिजुलिया पंचायत की मुखिया सुनीता देवी के हाथों भी सम्मानित हो चुके हैं.

28 अप्रैल 2017 को सियालजोरी में सुरजाहि धरम पूजा के सम्मान समारोह में बचन महतो ने इन्हें कुड़म लिपि के लिए सम्मानित किया. 2009 में बिनोद बिहारी महतो मिशन से भी सम्मानित हुए हैं. 20 दिसंबर 2017 को मासस के बोकारो जिलाध्यम कामरेड दिलीप तिवारी भी इन्हें सम्मानित कर चुके हैं. इसके अलावा कडुमि बाइसि सेवा दल के अध्यक्ष ईश्वर लाल महतो ने भी इन्हें सम्मानित किया है. अदभुतानंद झारखंडी बाबा उर्फ जीपी पांडेय ने भी इन्हें सम्मानित किया है और अपने गौरीनाथ में कुड़म लिपि को शामिल भी किया है.

इधर, कुड़मालि के भाषाविदों का मानना है कि कुरमाली भाषा का इतिहास तो हजारों साल पुराना है लेकिन इसकी अपनी लिपि का आविष्कार होने से यह भाषा निश्चित तौर पर अधिक मजबूत हुई है और आने वाले दिनों में इसके और भी दूरगामी परिणाम देखने को मिलेंगे.

कुड़मालि भाषा के जानकार तथा कुड़मालि भाषा आंदोलन के अगुवा दीपक कुमार पुनुरिआर का भी मानना है कि कुड़मालि भाषा की अपनी लिपि के आविष्कार से यह भाषा अब अधिक समृद्ध हो गई है और भविष्य में इसके और भी सकारात्मक नतीजे सामने आ पाएंगे. यहां बता दें कि डॉ मुरलीधर महतो बोकारो के चास प्रखंड स्थित चंदाहा गांव के निवासी हैं और झारखंड आंदोलन में विशेष योगदान के लिए इन्हें झारखंड आंदोलनकारी के रूप में भी जाना जाता है. इसके अलावा विभिन्न पत्रिकाओं के प्रकाशक और संपादक के रूप में भी जाने जाते हैं. उनमें ‘दामोदर मोहर’ नामक पत्रिका विशेष उल्लेखनीय है.

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