Durga Puja 2023: राजधानी में दुर्गा पूजा का इतिहास करीब 185 वर्ष पुराना है. सबसे पहले वर्ष 1839 में मां की प्रतिमा स्थापित कर पूजा की शुरुआत रातू किला में हुई थी. इसके बाद 1882 में जिला स्कूल परिसर में दुर्गोत्सव मनाया गया. ठीक एक वर्ष 1883 में दुर्गाबाड़ी में पूजा शुरू हुई जो, आज भी जारी है. महानगर दुर्गा पूजा समिति के कार्यकारी अध्यक्ष प्रदीप राय चौधरी ने बताया कि दुर्गाबाड़ी के आस पास रहनेवाले कुछ बंगाली परिवार ने यह जमीन पूजा स्थल के लिए दान में दी थी. इसके बाद यहां मंडप का निर्माण हुआ. बाद में मंदिर की स्थापना हुई. यहीं से अन्य जगहों पर दुर्गोत्सव मनाने का सिलसिला शुरू हुआ. 1970 के करीब राजधानी में पंडालों की संख्या बढ़ने लगी. रांची जिला दुर्गा पूजा समिति के अध्यक्ष अशोक कुमार चौधरी ने कहा कि पहले दुर्गाबाड़ी के अलावा ढ़िबरी पट्टी, महावीर चौक दुर्गा मंदिर, कोकर और बिहार क्लब में दुर्गा पूजा मनायी जाती थी. धीरे-धीरे इसका विस्तार होते चला गया. वर्ष 2000 में जब झारखंड का गठन हुआ, तो यहां के दुर्गोत्सव ने बड़ा रूप ले लिया. वर्तमान में राजधानी में 150 से भी अधिक जगहों पर पंडाल का निर्माण किया जाता है. राजधानी रांची में आसपास के जिलों के अलावा बंगाल, ओडिशा, बिहार, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ से भी श्रद्धालु दुर्गोत्सव में आते हैं.
1965 से दुर्गोत्सव मना रही जगन्नाथपुर दुर्गा पूजा समिति
जगन्नाथपुर सार्वजनिन दुर्गा पूजा समिति राजेंद्र भवन, सेक्टर दो का इस वर्ष 59वां दुर्गोत्सव है. यहां 1965 से दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई थी. इस साल समिति काल्पनिक मंदिर का स्वरूप बना रही है. यहां बांग्ला पद्धति से पारंपरिक पूजा होती है. संयुक्त सचिव मानस बनर्जी ने बताया कि 20 अक्तूबर को पंडाल का उदघाटन होगा. उदघाटन एचइसी के पूर्व सीएमडी अभिजीत घोष करेंगे. 21 अक्तूबर को रात आठ बजे सिम्फोनी म्यूजिकल ग्रुप का कार्यक्रम होगा. 22 अक्तूबर को दोपहर एक बजे भोग निवेदन है. शाम में संधि पूजा होगी. धनुची डांस का भी आयोजन किया जायेगा.
1945 से बिहार क्लब में पूजा का आयोजन
बिहार क्लब दुर्गा पूजा समिति ने पहली बार सार्वजनिक पूजा का आयोजन 1945 में किया था. कचहरी रोड में पहली बार पूजा पंडाल बनाया गया था. बिहार क्लब का वास्तविक नाम छोटानागपुर बिहारी क्लब है.
1935 से हो रही हरिमति मंदिर में दुर्गा पूजा
हरिमति मंदिर वर्धमान कंपाउंड, रांची की दुर्गा पूजा का इतिहास 88 साल पुराना है. शुरू में इस मंदिर का नाम ज्ञान मंदिर था. बाद में इसका नाम हरिमति मंदिर कर दिया गया. 1935 में मंदिर की स्थापना की गयी और पूजा 1936 से शुरू हुई. तब से यहां पारंपरिक तरीके से पूजा हो रही है.
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दुर्गा पूजा समिति पतराटोली कांके के दुर्गोत्सव का इतिहास काफी पुराना है. इसकी शुरुआत वर्ष 1882-83 में लाल शिवनाथ शाहदेव ने की थी. उस वक्त पूजा का आयाेजन सीआइपी के पास स्थित मैदान में होता था. वर्तमान में यहां स्टेट डिस्पेंसरी है. ब्रिटिश शासकों ने जब इलाके में कब्जा किया तब लाल शिवनाथ शाहदेव का पूरा परिवार पतराटोली में आकर बस गया. इसके बाद पतराटोली में 1907 में मंदिर की स्थापना हुई. और पहली बार भव्य तरीके से दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ.
मंदिर परिसर में ही बनायी जाती है प्रतिमा
श्री दुर्गा पूजा समिति पतराटोली कांके के अध्यक्ष लाल गिरिजा शंकर नाथ शाहदेव बताते हैँ : पतराटोली में इस वर्ष 116वां दुर्गोत्सव होगा. पूर्वजों ने जिस परंपरा की शुरुआत की थी, उसे आज भी रीति-रिवाज के साथ निभाया जा रहा है. दुर्गा मंदिर परिसर में अब 10 फीट चौड़ी और आठ फीट ऊंची मां भगवती की प्रतिमा स्थापित की जाती है. पारंपरिक बांग्ला शैली में प्रतिमा तैयार करने के लिए झालदा से तीन कारीगर आते हैं और मंदिर परिसर में ही प्रतिमा तैयार करते हैं.
दशई जतरा की होती है शुरुआत
विजयादशमी के बाद पतराटोली कांके के मैदान में वृहत रूप से दशई जतरा का आयोजन होता है. इसमें आदिवासी समाज के अलग-अलग पड़हा से समुदाय के लोग अपना झंडा लेकर पहुंचते हैं. लोक गीत और नृत्य कर पर्व की खुशियां मनायी जाती है.
षष्ठी की शाम से पूजा अनुष्ठान होता है शुरू
लाल गिरिजा शंकर नाथ शाहदेव ने बताया कि मंदिर परिसर में षष्ठी को बेलवरण के साथ अनुष्ठान शुरू होगा. महासप्तमी पर जुमार नदी में नव पत्रिका की पूजा होगी और मंदिर परिसर में मां भगवती की प्रतिमा स्थापित की जायेगी. इस दौरान प्रतिमा की भी प्राण प्रतिष्ठा होगी. अष्टमी को संध्या पूजा के दौरान कोहड़े की बली दी जाती है. वहीं, रातू किला की परंपरा के अनुसार सप्तमी, अष्टमी और नवमी के दिन बकरे की बलि की परंपरा निभायी जाती है. दशमी को नवपत्रिका का विसर्जन होगा. इसके नौ दिन बाद प्रतिमा के खांचे को दोबारा मंदिर में रख दिया जाता है. लाल गिरिजा शंकर ने बताया कि महोत्सव के लिए परिवार के सदस्य सहयोग राशि देते हैं.
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कलश में होता है देवी का आह्वान
डोरंडा जैप वन परिसर स्थित दुर्गा मंदिर में वर्ष 1880 से पारंपरिक पूजा हो रही है. यहां गोरखा रेजिमेंट ने पूजा की शुरुआत की थी. बाद में नाम बदला, लेकिन पूजा स्थल वहीं है. शुरुआत में तंबू लगाकर पूजा की जाती थी, जहां आज मंदिर है. विशेषता यह है कि जैन वन में मां भवानी की प्रतिमा नहीं स्थापित की जाती है. कलश में देवी का आह्वान किया जाता है और उनकी पूजा पूरे सैनिक सम्मान के साथ की जाती है. जो जवान यहां नहीं रहते हैं, वे अपने ड्यूटी स्थल से ही मां की आराधना करते हैं. आयोजन पर जो राशि खर्च होती है, उसे विभाग के कोष से दिया जाता है.
अंग्रेज जॉर्ज एडवर्ड ने दुर्गा पूजा के लिए उपलब्ध करायी थी जमीन
हिनू पूजा कमेटी बांग्ला मंडप. यहां वर्ष 1913 से दुर्गोत्सव मनाया जा रहा है. इस कमेटी का गठन स्व प्रिय बंधु सेन, स्व अतिंद्रनाथ दत्ता, स्व निवारण चंद्र सेन, स्व फनी भूषण चक्रवर्ती, स्व रमेश चंद्र धौधरी, स्व जहरी लाल दत्ता, स्व इंदु भूषण सेन, स्व योगेश चंद्र देव ने किया था. ब्रिटिश शासन काल में छोटानागपुर व संताल परगना के कमिश्नर जॉर्ज एडवर्ड गेट ने कमेटी को दुर्गा पूजा के लिए जमीन उपलब्ध करायी थी. इस वर्ष दुर्गोत्सव का 111वां वर्ष है. अभी कमेटी से करीब 700 आजीवन सदस्य जुड़े हैं. यहां मां दुर्गा की पूजा पारंपरिक विधि-विधान से होती है. इस वर्ष मां दुर्गा की प्रतिमा को बांग्ला संस्कृति से सुसज्जित किया जायेगा. मूर्तिकार जगदीश पाल हैं.
20 अक्तूबर को गायक अभिषेक बनर्जी देंगे प्रस्तुति
20 अक्तूबर की शाम सा रे गा मा पा फेम अभिषेक बनर्जी और स्थानीय कलाकार चुमकी राॅय आधुनिक बांग्ला संगीत की प्रस्तुति देंगे. 21 अक्तूबर को कोलकता की संगीतकार शिल्पी श्री और शुभाशिष मित्र संगीत पेश करेंगे. 23 अक्तूबर को रांची के कलाकार श्रद्धालुओं को झुमायेंगे. वहीं आरती, पेंटिंग, उल्लू ध्वनि, आवृति प्रतियोगिता का आयोजन होगा. महासप्तमी, महाअष्टमी और महानवमी को 20 क्विंटल का भोग निवेदन हाेगा. चंदननगर के कलाकार आकर्षक विद्युत सज्जा में जुटे हैं. 24 अक्तूबर को विसर्जन शोभायात्रा निकाली जायेगी. पूजा में संयोजक विनय गांगुली, अध्यक्ष कौशिक चंद्र, महासचिव आलोक मित्र, कोषाध्यक्ष अरुण विश्वास, उपाध्यक्ष श्यामल डे, गौतम घोष, वरुण मंडल, संयुक्त सचिव भूलोक सरकार, अरुण राय, सुशील दत्त, मधुसूदन मुखर्जी आदि सहयोग कर रहे हैं.