झारखंड: 100 साल से मैक्लुस्कीगंज में हो रही है दुर्गा पूजा, बंगाल के मजदूरों ने की थी शारदीय नवरात्र की शुरुआत

पुरोहित बलराम पाठक के अनुसार बंगाली विधि से पूजन कार्य के लिए बंगाल से पुजारी आया करते थे. उन्हीं में से एक थे शुची पंडित. बाद में लक्ष्मी नारायण पाठक व उनके वंशजों द्वारा आज भी विधि विधान से पूजन कार्य संपन्न कराया जाता है.

By Guru Swarup Mishra | October 20, 2023 7:57 PM

मैक्लुस्कीगंज (रांची), रोहित कुमार: कोयलांचल में कई जगहों पर दुर्गोत्सव का आयोजन भव्य तरीके से होता है. रांची के खलारी प्रखंड के मैक्लुस्कीगंज में दुर्गा पूजा का आयोजन पिछले 100 साल से होता आ रहा है. यहां सिंदूरखेला मुख्य आकर्षण होता है. बात 1920 की है जब मैक्लुस्कीगंज में सिंगल रेलवे लाइन का निर्माण अंग्रेजों द्वारा कराया जा रहा था. उस निर्माण कार्य में बड़े पैमाने पर मजदूरों की आवश्यकता थी. उसी वक्त बंगाल से मजदूरों का एक समूह मैक्लुस्कीगंज पहुंचा और लंबे समय तक रेलवे लाइन निर्माण (बिछाने) जैसे अन्य कार्यों में लगा रहा. उन्हीं मजदूरों ने करीब 1924 में अमावस्या के दिन महालया के साथ बंगाली विधि से शारदीय नवरात्र की शुरुआत की. देखते ही देखते मैक्लुस्कीगंज सहित आसपास के प्रबुद्धजनों ने आपसी सहयोग से आयोजन को भव्य रूप दिया.बंगाली समुदाय के मजदूरों ने मैक्लुस्कीगंज स्टेशन परिसर में तिरपाल से टेंट बनाकर दुर्गा पूजा शुरू की थी. बाद में दीपचंद अग्रवाल ने बीड़ा उठाया और फिर लपरा शिव मंदिर के निर्माण के बाद स्थानीय प्रबुद्धजनों ने आपसी सहयोग से शिव मंदिर परिसर में पूजा के आयोजन को भव्य रूप दिया.

विजयादशमी का सिन्दूरखेला था बेहद खास

बंगाली समाज के लिए दुर्गा पूजा सबसे बड़ा त्योहार है. उस समाज की महिलाओं सहित श्रद्धालुओं ने मां दुर्गा के सभी स्वरूपों की आराधना को एक अलग अंदाज दिया. विजयादशमी को उनका सिन्दूरखेला अलौकिक था. विजयादशमी पर एक दूसरे को आशीर्वाद व शुभकामनाएं देने का रीति-रिवाज आज भी देखने को मिलता है. नवरात्र के अवसर पर पर्याप्त संसाधनों का अभाव होते हुए भी नाटक व ड्रामा जैसे आयोजन हुआ करते थे. आज सांस्कृतिक व भक्ति जागरण का रूप ले चुके हैं. पतरातू, रामगढ़, हजारीबाग, रांची, नावाडीह, लपरा, हेसालौंग, निंद्रा, काली, दुल्ली, चंदवा आदि कई जगहों से भक्तों का तांता अद्भुत भक्तिमय दृश्य देखने आया करता था. आज भी मैक्लुस्कीगंज स्थित लपरा शिव मंदिर परिसर में आयोजित दुर्गोत्सव में वो रंग दिखता है.

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पहले बंगाल से आते थे पुजारी

पुरोहित बलराम पाठक के अनुसार बंगाली विधि से पूजन कार्य के लिए बंगाल से पुजारी आया करते थे. उन्हीं में से एक थे शुची पंडित. बाद में लक्ष्मी नारायण पाठक व उनके वंशजों द्वारा आज भी विधि विधान से पूजन कार्य संपन्न कराया जाता है.

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1936 में मंदिर निर्माण के बाद यहीं पूजा होने लगी

बंगाली समुदाय के मजदूरों ने मैक्लुस्कीगंज स्टेशन परिसर में तिरपाल से टेंट बनाकर पूजा शुरू की थी. बाद में दीपचंद अग्रवाल ने बीड़ा उठाया और फिर लपरा शिव मंदिर के निर्माण के बाद स्थानीय प्रबुद्धजनों ने आपसी सहयोग से शिव मंदिर परिसर में आयोजन को भव्य रूप दिया. उसके बाद से मां दुर्गा की पूजा में अन्य प्रमुख देवता माता लक्ष्मी (धन और समृद्धि की देवी), सरस्वती (ज्ञान और संगीत की देवी), गणेश (अच्छी शुरुआत के देवता), और कार्तिकेय (युद्ध के देवता) की भी प्रतिमा सुशोभित हुई. श्रद्धालु आज भी बंगाल सहित अन्य राज्यों से दुर्गोत्सव पर मैक्लुस्कीगंज आते हैं. पूरा नवरात्र यही बिताते हैं.

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