रांची: भारतीय दर्शन एवं संस्कृति के अध्येता, रामकथा के मर्मज्ञ, तुलसीदास और भगवान राम के अनन्य भक्त, बाइबिल के अनुवादक, अंग्रेजी-हिंदी कोश के प्रणेता, हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार, हिन्दी के महानायक एवं ऋषिकल्प व्यक्तित्व फादर कामिल बुल्के विदेशी होते हुए भी पूरी तरह से भारतीय थे और पादरी होते हुए भी भारतीय परंपरा के संत थे. इकहरा बदन, अनुभव से लैस उनकी सफेद लंबी दाढ़ी, दीप्तिमय गौरवर्ण, श्वेत लिबास, मितभाषी व मृदुभाषी उनका व्यक्तित्व परिपूर्ण था. फादर कामिल बुल्के अपने नाम को चरितार्थ करते थे. आज 1 सितंबर को उनकी 114वीं जयंती है. इस खास मौके पर प्रभात खबर डॉट कॉम के गुरुस्वरूप मिश्रा ने फादर कामिल बुल्के के छात्र व सेंट जेवियर्स कॉलेज, रांची के हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष (एचओडी) रहे कमल कुमार बोस ने विस्तृत बातचीत की. पढ़िए कैसे करीब 47 साल भारत (झारखंड) में रहे फादर कामिल बुल्के (पद्मभूषण) ने हजारीबाग में हिन्दी सीखी और उसे प्रतिष्ठा दिलायी.
1935 में भारत आए फादर कामिल बुल्के
1909 में बेल्जियम के रैम्सकैपल गांव में जन्मे फादर कामिल बुल्के ने 1930 में संन्यास ग्रहण किया. 1935 में वे भारत आ गए और भारत के ही होकर रह गए. विज्ञान के छात्र व पेशे से इंजीनियर रहे फादर कामिल बुल्के काफी मेधावी थे. उन्होंने स्वीकार किया कि गंगा-यमुना के इस देश में उन्हें लाने का श्रेय गोस्वामी तुलसीदास को जाता है. रामचरितमानस की दो पंक्तियों से फादर कामिल बुल्के अत्यधिक अभिभूत हुए-
पर हित सरिस धरम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई.
इन दो पंक्तियों ने विज्ञान के छात्र कामिल बुल्के को हिन्दी सीखने व पढ़ने की प्रेरणा दी. इसके साथ ही रामचरित मानस को समग्रता में पढ़ने व समझने की भूख उनमें जगी. अपने उद्गारों में फादर कामिल बुल्के ने कई बार इसकी चर्चा की है कि रामचरित मानस विश्व के श्रेष्ठ ग्रंथों में एक है.
हिन्दी में डीलिट की उपाधि पाने वाले पहले विदेशी भारतीय
भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम का रूप देने और रामचरित मानस को मानस काव्य और जीवन काव्य बनाने वाले फादर कामिल बुल्के इसके प्रणेता तुलसीदास का गुणगान आजीवन करते रहे. उन्होंने कहा था कि यदि स्वर्ग में उन्हें किसी से मिलने का मौका मिले और किसी एक व्यक्ति का चयन करना हो तो वे बेधड़क तुलसीदास को ही चुनेंगे. पूरे देश में बोली जाने वाली बड़ी भाषा हिन्दी को हीनभावना से ग्रस्त और उपेक्षित देखकर फादर कामिल बुल्के का मन रो उठा. उन्होंने महसूस किया कि किसी देश की तरक्की के लिए उस देश की राष्ट्रभाषा का उन्नत होना बेहद जरूरी है. उन्होंने भारत की मिट्टी को आत्मसात कर लिया और भारतीय काव्यधर्म के लिए खुद को समर्पित कर दिया. ये बड़ी शर्मनाक बात है कि उनदिनों हिन्दी सहित अन्य विषयों में शोध कार्य अंग्रेजी में ही करने की बाध्यता थी. फादर कामिल बुल्के की ये जिद व आग्रह कि उन्हें हिन्दी का शोधप्रबंध हिन्दी में ही करनी है. बीएचयू (बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय) ने इसे स्वीकार किया और फादर कामिल बुल्के ने रामकथा- उत्पति और विकास पर हिन्दी में डीलिट की उपाधि ग्रहण की. ऐसा करने वाले वे पहले विदेशी भारतीय थे. उनका ये शोधप्रबंध विश्व की सारी भाषाओं में लिखित रामकथा का विश्वकोश बन गया.
ऐसी गरीबनी तो नहीं है हिन्दी
फादर कामिल बुल्के हिन्दी के दरवाजे से आए और हिन्दी के द्वारा ही उन्होंने तुलसीदास को जाना और समझा. विदेशी होने की सीमा हट गयी. और संपूर्ण देश में रामकथा मर्मज्ञ के रूप में उनकी पहचान बन गयी. फादर कामिल बुल्के उन लोगों में से थे, जो हिन्दी को अभिव्यक्ति की दृष्टि से बड़ी मजबूत भाषा मानते थे. बड़े विश्वास भरे भाव से वे कहते थे कि हिन्दी में सबकुछ कहा जा सकता है. फादर कामिल बुल्के के छात्र व सेंट जेवियर्स कॉलेज के हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष (एचओडी) रहे कमल कुमार बोस पुराने दौर को याद करते हुए कहते हैं कि जब वे फादर कामिल बुल्के से मिलने पर अंग्रेजी में बातचीत करते थे, तो या तो वे जवाब ही नहीं देते थे या फिर झिड़क देते थे. फादर कामिल बुल्के उनसे कहते थे कि हिन्दी में इसके लिए शब्द नहीं है क्या जी? ऐसी गरीबनी तो हिन्दी नहीं है. हिन्दीभाषियों द्वारा हिन्दी की उपेक्षा करते देख उन्हें काफी तकलीफ होती थी.
हिन्दी को पटरानी कहते थे फादर कामिल बुल्के
फादर कामिल बुल्के संस्कृत को महारानी, हिन्दी को पटरानी और अंग्रेजी को नौकरानी कहते थे. हिन्दी भाषा की समृद्धि के लिए रचनात्मक साहित्य के साथ-साथ अनुवाद का भी बड़ा महत्व है. इसलिए उन्होंने अनेक अनूदित साहित्य की रचना की. एक कोशकार के रूप में फादर कामिल बुल्के का अप्रतिम योगदान है. उनका अंग्रेजी-हिन्दी कोश मानक कोश के रूप में सर्वस्वीकृत और प्रचलित है.
फादर कामिल बुल्के ने झारखंड के सीतागढ़ा में सीखी हिन्दी
फादर कामिल बुल्के ने बेल्जियम से 1935 में झारखंड (रांची) आने पर गुमला के संत इग्नासियस हाईस्कूल में विज्ञान और गणित के शिक्षक के रूप में अपनी सेवा दी. इसके बाद उन्होंने सीतागढ़ा (हजारीबाग) आश्रम में रहने के दौरान अपने सहयोगियों के साथ हिन्दी सीखने में पूरा दम लगा दिया. इसका फल उन्हें प्राप्त हुआ और हिन्दी के प्रति उनकी रुचि बढ़ती गयी. इसके बाद सेंट जेवियर्स कॉलेज, रांची में बतौर हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष (एचओडी) के रूप में कई वर्ष तक उन्होंने सेवा दी. फिर पुरुलिया रोड (अब फादर कामिल बुल्के पथ) के मनरेसा हाउस में रहने लगे थे. यहीं उनका लेखन कार्य अनवरत चलता रहा. ये बड़ी बात है कि उन दिनों देश में प्रकाशित होने वाली हिन्दी की पुस्तकों की प्रतियां निश्चित रूप से और नियमित फादर कामिल बुल्के शोध संस्थान में लेखक व प्रकाशक भेजा करते थे. शोध संस्थान का दरवाजा शोधार्थियों और विद्यार्थियों के लिए हमेशा खुला रहता था. छात्र पढ़ें या नोट्स तैयार करें. इस दिशा में फादर कामिल बुल्के स्वयं पुस्तक देने और नोट्स तैयार करने में मदद कर गर्व और खुशी महसूस करते थे.
मरने के पहले कुछ करना चाहता हूं
सचमुच फादर कामिल बुल्के का एक सरल और विरल व्यक्तित्व था. फादर सच्चे अर्थों में पितृतुल्य थे. सबके लिए सुलभ और सबकी मदद करने को आतुर रहते थे. चाहे बच्चे हों या हमउम्र. सबकी समस्याओं को ध्यान से सुनते थे और सच्चे अभिभावक की तरह राय-परामर्श देते थे. वे दया, करुणा और ममता की प्रतिमूर्ति थे. एक कर्मयोगी थे. शिक्षाविद कमल कुमार बोस बताते हैं कि एक समय की बात है. वे उनसे मिलने गए थे. फादर कामिल बुल्के आरामकुर्सी पर आराम फरमा रहे थे. वहां पर्चे में लिखा था कि मुझे हिला-हिलाकर जगाना, लेकिन सीने पर किताब रखकर सो रहे फादर को जगाना उन्हें उचित नहीं लगा. कुछ देर इंतजार करने पर जब कोई आवाज सुनकर फादर कामिल बुल्के खुद ही जग गए और खड़े हो गए, तो सामने बैठा देखकर उन्हें अपराधबोध हुआ. जब इन्होंने पूछा कि कुछ काम कर रहे थे क्या फादर? तो उन्होंने मुस्कुराकर कहा-हां जी, ओल्ड टेस्टामेंट का अनुवाद कर चुका हूं और न्यू टेस्टामेंट का अनुवाद कर रहा हूं. कुछ करना चाहता हूं. मरने के पहले कुछ करना चाहता हूं. अपने कर्मपथ पर आजीवन चलते रहने वाले फादर कामिल बुल्के अपने शिष्यों को भी चलते रहने की प्रेरणा देते थे. ईश्वर पर हमेशा विश्वास करने एवं जीवन के हर स्तर पर जिम्मेवारियों को निभाने की नसीहत हमेशा देते थे.
अब मुझे विदेशी कहकर नहीं पुकारें
फादर कामिल बुल्के के शयनकक्ष में सिरहाने एक ओर बाइबिल तो दूसरी तरफ रामचरितमानस पुस्तक रखी होती थी. ये उनकी धर्मनिष्ठा और कर्मनिष्ठा का परिचायक है. एक समय की बात है. रांची में तुलसी जयंती के पावन अवसर पर फादर कामिल बुल्के को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था. उद्घोषक ने उन्हें विदेशी विद्वान कहकर मंच पर उपस्थित होने का आग्रह किया. फादर कामिल बुल्के ने इस पंक्ति से अपनी बात शुरू की कि मैं भी आप सब की तरह भारतीय हूं, अब मुझे विदेशी कहकर नहीं पुकारें. इस भाव-भावना को फादर कामिल बुल्के ने आजीवन निभाया. फादर ऊंचा सुनते थे. वे सबकी सुनते थे. सुनने के क्रम में वे अक्सर कहा करते थे कि रुको जी, मैं अपना कान (श्रवणयंत्र) लेकर आता हूं. इसके बाद वे आराम से पूरी बात सुनते थे और उचित परामर्श देते थे. फादर कामिल बुल्के झारखंड में गुमला, हजारीबाग और रांची में विशेष रूप से रहे और हिन्दी को समृद्ध करने में अपना अप्रतिम योगदान दिया. यही वजह है कि उन्हें पद्मभूषण से भी नवाजा गया. जहरीले फोड़े से वे काफी परेशान थे. 73 वर्ष की उम्र में 17 अगस्त 1982 को दिल्ली में उनका निधन हो गया.