रांची : बेल्जियम के जेसुइट मिशनरी फादर कामिल बुल्के की जयंती एक सितंबर को है. फादर बुल्के ने हिंदी भाषा और साहित्य के लिए जो अप्रीतम योगदान दिया है, उससे वे भारतीय मानस के लिए अमर हो गये हैं. रामकथा की उत्पति और विकास, अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश जैसे ग्रंथों के लिए साहित्य जगत उनका हमेशा ऋणी रहेगा. रांची में फादर बुल्के मनरेसा हाउस में रहते थे. मनरेसा हाउस के उस हिस्से को, जो उनका कमरा था, उनकी स्मृति में लाइब्रेरी में तब्दील कर दिया गया है. पुरुलिया रोड का नामकरण भी फादर कामिल बुल्के पथ किया गया है.
रांची का मनरेसा हाउस बना था ठिकाना
फादर कामिल बुल्के नवंबर 1936 में भारत पहुंचे थे. कुछ समय तक दार्जिलिंग में रहने के बाद वे झारखंड आ गये, फिर रांची का मनरेसा हाउस ही उनका ठिकाना बना रहा. हजारीबाग में उन्होंने पंडित बदरीनाथ शास्त्री से हिंदी व संस्कृत सीखी. हिंदी सीखने के लिए इनमें जुनून था. उन्होंने हिंदी भाषा में जो शोध कार्य और साहित्य रचना किया वह अद्भुत है.
उन्हें या तो काम करते देखा या प्रार्थना : फादर इमानुएल
मनरेसा हाउस में फादर कामिल बुल्के शोध संस्थान और लाइब्रेरी के इंचार्ज फादर इमानुएल बाखला ने कहा कि 1967 से 1970 तक संत जेवियर्स कॉलेज रांची में वे फादर कामिल बुल्के के छात्र थे. फादर बुल्के हिंदी के विभागाध्यक्ष थे. उनका समय ज्यादातर अपने शोधकार्यों में ही बीतता था. फादर बुल्के इस बात से दुखी थे कि भारतीय छात्र हिंदी भाषा को उतनी लगन से नहीं सीखते थे. उनका ध्यान सिर्फ डिग्री और नौकरी तक ही सीमित था. इसलिए उन्होंने खुद को शोध और साहित्य के लिए समर्पित कर दिया. इमानुएल ने कहा कि मैंने उन्हें या तो काम करते देखा या फिर प्रार्थना करते. जीवन के अंतिम क्षणों में वे बाइबल का हिंदी अनुवाद कर रहे थे, जो अधूरा ही रह गया. अंत समय में वे ईश्वर से सिर्फ 400 घंटे और चाहते थे, ताकि बाइबल का अनुवाद पूरा हो सके.
उनसे मुझे यहां काम करने की प्रेरणा मिली : फादर ब्राइस
फादर ब्राइस बेल्जियम के आखिरी जेसुइट मिशनरी हैं, जो अभी मनरेसा हाउस में रह रहे हैं. फादर ब्राइस ने कहा कि मैं 1966 में रांची आया था. तब से भारत ही मेरा घर है. उन्होंने फादर कामिल बुल्के के बारे में कहा कि बेल्जियम में फादर बुल्के का गांव लिसवे और मेरा गांव ओइहम के बीच मात्र 30 किलोमीटर का फासला है. फादर कामिल बुल्के से मुझे काफी प्रेरणा मिली. वे काफी दोस्ताना रवैया के थे, पर साथ ही काफी गंभीर भी. वे कभी बेकार की चीजों में अपना समय व्यतीत नहीं करते थे. यहां उनसे मिलने के लिए काफी लोग आते थे. वे हिंदी और शोधकार्य के सिलसिले में बनारस आते-जाते रहते थे. लोग फादर बुल्के को काफी आदर और सम्मान देते थे. उनके साथ रहकर मुझे यहां अपने काम करने में काफी प्रेरणा मिली.
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