Tata Steel Jharkhand Literary Meet: आज हर महिला संघर्ष कर रही है. चाहे वह घर हो या बाहर. उसे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. कई बार लोग यह सोचते हैं कि हम सब कुछ कर देंगे, क्योंकि हम समर्थ हैं. हमारे पास तमाम संसाधन हैं. लेकिन, ऐसा नहीं है. एक औरत की लड़ाई कई बार सभी महिलाओं के लिए रास्ते खोल देती है.
ये बातें ‘दुनिया में औरत’ की लेखक सुजाता ने ये बातें रविवार को झारखंड की राजधानी रांची में कहीं. वह ऑड्रे हाउस में आयोजित टाटा स्टील झारखंड लिटरेरी मीट में अलका सरावगी, शारदा उग्र और प्रभात खबर के वरिष्ठ पत्रकार विनय भूषण के साथ नारीवादी लेखन पर चर्चा कर रहीं थीं.
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सुजाता ने कहा कि राजस्थान की भंवरी देवी एक ऐसी महिला थी, जिसने अपने गांव के दबंगोें के खिलाफ आवाज उठायी और देश को विशाखा गाईडलाईन मिली. उन्होंने कहा कि आंगनबाड़ी सेविका भंवरी देवी से गांव के दबंगों ने सामूहिक दुष्कर्म किया था. भंवरी देवी कोर्ट गयी, लेकिन आरोपियों को सजा नहीं मिली.
इस भंवरी देवी के मामले को एक एनजीओ ‘विशाखा’ ने उठाया. आखिरकार विशाखा गाईडलाइन बनी. इसने कार्यस्थल पर महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने की गारंटी दी. हालांकि यह और बात है कि कार्यस्थलों पर ऐसे मामलों को दबाने की कोशिश की जाती है. उन्होंने कहा कि भारत में महिलाओं को बहुत ऊंचा दर्जा देने की बात तो की जाती है, लेकिन उसे अधिकार नहीं मिलता.
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उन्होंने कहा कि स्त्रीवादी संघर्ष पर आधारित उनकी जो किताब है, वह किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नहीं है. किसी एक महिला की लड़ाई नहीं है. अपने वजूद को हासिल करने की लड़ाई है. यह दुनिया की सभी महिलाओं की लड़ाई है. उनका संघर्ष सत्ता के खिलाफ है. उन्होंने कहा कि जब उन्होंने नारीवाद के बारे में पढ़ा, तो पता चला कि दुनिया भर की महिलाएं एक-दूसरे से कितनी जुड़ी हुईं हैं. यह सभी महिलाओं का साझा संघर्ष है.
कोलकाता की अलका सरावगी ने समरस समाज की बात की. उन्होंने कहा कि समाज में स्त्री का दोयम दर्जा है. यह सत्य है. दैनिक जीवन में हम उससे लड़ रहे हैं और उसका प्रतिकार कर रहे हैं. साहित्य में हम वही बातें करते हैं, जो हमारे जीवन के करीब होती हैं. उन्होंने कहा कि साहित्य में फमिनिज्म सूक्ष्म रूप से आ सकता है.
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‘कलीकथा वाया बायपास’ और ‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ जैसे उपन्यास की रचनाकार अलका सरावगी ने चर्चा के दौरान कहा कि एक ऐसी भी कहानी हो सकती है, जिसमें गांव की हर औरत एक फेमिनिस्ट है. हर औरत विद्रोहिणी है. हम ऐसे एक गांव की कल्पना कर सकते हैं, जिसमें हर औरत शोषित है और हर औरत विद्रोहिणी है. उन्होंने कहा कि नारीवादी लेखन का अर्थ यह नहीं है कि औरत को पीड़ित ही दिखाया जाये.
अलका सरावगी ने कहा कि महिलाएं संवेदनशील होती हैं. लेकिन, जरूरी नहीं कि हर बार महिला ही पीड़ित हो. कई बार पुरुष भी खुद को पीड़ित बता सकते हैं. उन्होंने समरस समाज की बात कही. उन्होंने कहा कि वह कई पुरुषों को जानते हैं, जो महिलाओं से ज्यादा संवेदनशील होते हैं. इसलिए हर बार महिलाओं को शोषित, पीड़ित बताना ही नारीवादी लेखन नहीं है.
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इस सेशन में खेल पत्रकार शारदा उग्रा ने भी अपने अनुभव शेयर किये. उन्होंने बताया कि जब उन्होंने खेल पत्रकारिता में कदम रखा, तो प्रेस बॉक्स में उन्हें पूरी तरह से इग्नोर किया गया. खिलाड़ी हों या खेल प्रशासक किसी से उन्हें मदद नहीं मिली. कई बार मुझे इस बात की चिंता होती थी कि मैं कैसे आगे काम कर पाऊंगी. उन्होंने कहा कि फील्ड में उन्हें परेशानी तो होती थी, लेकिन ऑफिस में आकर उन्हें काफी सुकून मिलता था.
शारदा ने बताया कि जिस दफ्तर में वह नौकरी करती थीं, वहां चीफ सब-एडीटर महिला थी. क्राइम रिपोर्टर महिला थी. सिटी रिपोर्टर भी महिला थी. वहां आकर मुझे बल मिलता था. मुझे निराशा होती थी, लेकिन मैं यह सोचती थी कि मुझे आगे बढ़ना है. इनके लिए नहीं, स्पोर्ट्स के लिए काम करना है. इस तरह मैं आगे बढ़ती गयी.
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उन्होंने कहा कि न्यूजरूम के पुरुष पत्रकारों ने 20 साल तक उनसे कभी कोई संवाद नहीं किया. हेलो तक नहीं बोला. आखिरकार उनका भी रवैया बदला. मैं भी पुरानी बातें भूल गयी. अब सब कुछ सामान्य है. खेल पत्रकारिता करते हुए 30 साल बीत गये. इस वक्त शारदा ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में अल्पसंख्यक क्रिकेट के रिसर्च प्रोजेक्ट पर फोकस कर रही हैं.