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झारखंडी भाषा, संस्कृति व प्रकृति के लिए समर्पित थे डॉ गिरिधारी राम गौंझू

उस समय एक अखरा ही ग्रामीणों के लिए सांस्कृतिक केंद्र होते थे. गौंझू जी को बचपन से ही समाज के सांस्कृतिक विरासत को नजदीक से देखने, सीखने-समझने का अवसर मिला.

करमी मांझी

सहायक प्राध्यापिका, जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग

रांची वीमेंस कॉलेज, रांची

डॉ गिरिधारी राम गौंझू झारखंड की सांस्कृतिक विरासत को भली-भांति जानने समझने वाले विशेष व्यक्तियों में से एक थे. यहां के हवा-पानी, समाज के व्यक्तियों का व्यक्तित्व, उनकी अभिव्यक्ति, सबकी वे आवाज थे. वे आपनी लेखनी के द्वारा समाज की अभिव्यक्ति को रचनाओं में उतारते थे. उनका जन्म खूंटी जिले के बेलवादाग ग्राम में 5 दिसंबर 1949 को हुआ था. पिता- इंद्रनाथ गौंझू एक किसान थे. उनका परिवार आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध था. तीन दादाओं के संयुक्त परिवार में, पर्व-त्यौहार खूब धूमधाम से मनाये जाते थे. परिवार में अपनी पीढ़ी का सबसे पहला पोता होने के नाते घर के बड़े-बुजुर्ग बालक गिरिधारी को अपने साथ अखरा भी लेकर जाते थे.

उस समय एक अखरा ही ग्रामीणों के लिए सांस्कृतिक केंद्र होते थे. गौंझू जी को बचपन से ही समाज के सांस्कृतिक विरासत को नजदीक से देखने, सीखने-समझने का अवसर मिला. आगे चलकर उन्होंने अपनी रचनाओं में समाज के एकता का प्रतीक अखरा, मेला-जतरा, पर्व-त्यौहार, सामाजिक समरसता का प्रतीक ‘सहिया संस्कृति’, मदइत भाव, पइचा परंपरा आदि समाज के तात्विक विशेषताओं को लिपिबद्ध करने का कार्य किया. उनके द्वारा झारखंडी समाज की विशेषताओं को आने वाली नयी पीढ़ी के लिए संरक्षित किया गया.

झारखंड के संदर्भ में उनकी दृष्टिकोण, अतीत, वर्तमान और भविष्य की गहरी परख थी. झारखंड के अतीत में घुस कर उन्होंने झारखंड आंदोलन के जनक- ‘मरङ गोमके जयपाल सिंह’ को खोज निकाला था. वर्तमान समय में उन्होंने झारखंड की संस्कृति एवं समाज के ज्वलंत मुद्दों पर खूब लिखा. उनकी कविताएं कहानियां एवं नाटक, झारखंडी समाज के लोगों की अभिव्यक्ति है. समाज के उन लोगों की अभिव्यक्ति है, जो काल्पनिक चरित्र नहीं, समाज के यथार्थ जीवन के पात्र हैं. जो गरीब, अशिक्षित एवं बेरोजगार हैं, मजबूरन आपने राज्य से पलायन करते आम लोग हैं. इसमें उनकी दशा के साथ झारखंड की संस्कृति की भी झलक प्राप्त होती है. उनकी कविता ‘सारो’ में, घरों में काम करने वाली एक गरीब स्त्री पात्र के करुण कथा को दर्शाते हुए लिखते हैं

– “मोर नियर अनठेकान/धांगर-धंगरिन छउवा मन के/ देखियो के हल/ सारोसती मांय के/ तनिको माया नई लागे”, ‘भटकल भाई’ कविता में समाज से भटककर, गलत रास्ते पर गये भाइयों को, वापस आने, उनके बहनों के माध्यम से वे कहते हैं -“सगरे संसार में सुख सच शांति रहोक /अन, धन, जन, बन, पन, खान, पुरकस रहोक /केउ भाई पलायन, विस्थापन बेदखली कर शिकार न बनोक/के गाइड़ देइ अखरा में करम डाइर?/ के मांदर बजाए देइ हामर अंगनइ नाच गीत में?” वन वन गन लेके’ कविता में वे भटके हुए नौजवानों को रास्ता दिखाते कहतें हैं -“देख- देख रे नवजवान तोर अखरा सुतत हे बेजान/ जे अखरा समरसता कर पाठ पढ़ालक एक समान/मेटत हे तोर संस्कृति आउर तोएं, हिस अनजान/ कहिया बाजी तोर मांदर आउर बांसी कर तान?” गौंझू जी बदलते पर्यावरण को देख बहुत चिंतित रहे.

प्रकृति और झारखंड की संस्कृति एक दूसरे के पूरक है. वे उजड़ते जंगलों पर चिंता करते हुए,‘कइसे आवी बसंत?’ कविता में कहते हैं -“ई फागुन में कहां पाबा मधु रस/ ई अखरा में कहां पाबा रीझ रंग/ का ले तोहरे हेवाल नियर/ ई उजरल जंगल में/ फगुआ खेले कुइद आला/ ई बन में आब/ कइसे आवी बसंत?”. झारखंड के गरीबों का पलायन करना मजबूरी है. इस मजबूरी को गौंझू जी अपनी कविता में कहते हैं -“ए भाई चला नि जाब पंजाब/ तले नी आए के मांदर बजाब/ हीरानागपुरे बुचु कइसे आब जीयब/ दोइन डांड़ दइया लुटाए गेलक तब/ सोइच रही कारखाना काम करे जाब/ से कुकरो नी पुछं बूचू कइसे करबे”.

कवि की रचनाएं सिर्फ झारखंड के आम लोगों के मार्मिक कथा ही प्रदर्शित नहीं करती है, उनकी रचनाएं- जीवन की आशा, उत्साह, प्रेम, भाईचारा, झारखंड की सुंदरता आदि को भी प्रदर्शित करतीं हैं, साथ ही साथ देशभक्ति, शिक्षा, स्वच्छता, पर्यावरण संरक्षण, भोट का महत्व, छोटे परिवार का महत्व आदि के बारे में भी उनकी रचनाएं प्राप्त होती है, जो बहुत ही ज्ञानवर्धक और उपयोगी हैं. उनकी रचनाएं अधिकांश नागपुरी भाषा में ही प्राप्त होते हैं, जो आम बोलचाल की भाषा है, जिसमें सरल शब्दों का ही प्रयोग हुआ है. झारखंड की संस्कृति के साथ, झारखंड की पृष्ठभूमि का आनन्द लेनी हो या यहां के आम आदमी को समझना हो, गौंझू जी की रचनाएं आपको वहांं पहुंचा देती है, जो वास्तविक हैं.

वे दूरदर्शी थे. वे मातृभाषा, संस्कृति, प्रकृति के गंभीर चिंतक थे. मातृभाषा के प्रति उनकी दूरदर्शिता उनके लघु नाटक ‘मैकाले की चाल’ में देखी जा सकती है. इसमें अंग्रेज अधिकारी मैकाले ने भारत पर अंग्रेजी संस्कृति, अंग्रेजी व्यवस्था थोप कर, क्षेत्रीय समाज के लोगों को उनकी भाषा संस्कृति से काटने की, उनकी सोच-समझ को अपंग बनाने की उनकी मंशा को नाटक में दिखलाया है. गौंझू जी त्रिभाषा सूत्र के पक्षधर थे. निश्चित रूप से गौंझू जी की रचनाएं कालजयी हैं, जो भाषा, संस्कृति व प्रकृति को अपनाने और संरक्षित करने का संदेश देती हैं.

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