Gua Golikand: 8 सितंबर, 1980 को सिंहभूम के गुवा में अस्पताल में इलाज कराने आये घायल आदिवासियों को लाइन में खड़ा करके पुलिस ने गोलियों से भून दिया था. अस्पताल परिसर में 8 आदिवासियों की मौत हो गई थी. अस्पताल में फायरिंग की घटना के 3-4 घंटे पहले गुवा बाजार में भी पुलिस ने फायरिंग की थी, जिसमें 3 आदिवासी आंदोलनकारियों की मौत हुई थी.
बिहार मिलिट्री पुलिस के 4 जवानों की तीर से हुई थी मौत
गुवा बाजार में पुलिस और झारखंड आंदोलनकारियों के बीच संघर्ष हुआ था. आंदोलनकारियों के तीर से बिहार मिलिट्री पुलिस के 4 जवानों की मौत हो गई थी. अस्पताल में पुलिस ने गुवा बाजार की घटना का बदला लेने के लिए ही फायरिंग की थी. इस घटना के बाद बिहार सरकार ने तीर-धनुष लेकर चलने पर प्रतिबंध लगा दिया था.
बिहार विधानसभा और संसद में भी उठा गुवा गोलीकांड का मुद्दा
मामला बिहार विधानसभा और संसद में भी उठा. तीर-धनुष पर लगाये गये प्रतिबंध का आदिवासियों ने यह कहकर जोरदार विरोध किया कि तीर-धनुष आदिवासियों की परंपरा और जीवन से जुड़ा है. जब चारों ओर से दबाव बढ़ा, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हस्तक्षेप किया. उसके बाद प्रतिबंध हटाया गया था.
पहली बार अस्पताल से बाहर निकालकर गोलियों से भूना
देश के इतिहास में अस्पताल से निकालकर लाइन से खड़ा करके मरीजों को मार देने की यह पहली घटना थी. इस घटना में पुलिस ने भुवनेश्वर महतो और बहादुर उरांव को गिरफ्तार किया था. भुवनेश्वर महतो अभी झारखंड आंदोलनकारी चिह्नितीकरण आयोग के सदस्य हैं.
रामेश्वर उरांव ने बचाई झारखंड आंदोलनकारी बहादुर उरांव की जान
बहादुर उरांव विधायक भी बने थे. जब यह घटना घटी थी, तब सिंहभूम के पुलिस अधीक्षक (एसपी) रामेश्वर उरांव थे. आज वह झारखंड के वित्त मंत्री हैं. रामेश्वर उरांव ने ही भुवनेश्वर महतो की जान बचायी थी और उन्हें उत्तेजित पुलिसकर्मियों के हाथ में सौंपने से इंकार कर दिया था.
खदान में स्थानीय को नौकरी देने की मांग पर 8 सितंबर को हुआ प्रदर्शन
अलग झारखंड राज्य, खदान में स्थानीय लोगों को रोजगार देने की मांग पर 8 सितंबर को प्रदर्शन किया गया था. भारी पुलिस व्यवस्था के बावजूद सिंहभूम के दूर-दराज के इलाके से जंगलों में छिपते हुए आंदोलनकारी किसी तरह गुवा पहुंच गये थे. वहां एयरपोर्ट के पास जमा हुए और प्रदर्शन करते हुए गुवा बाजार गये थे. वहां सभा हुई.
3 आदिवासी और 4 पुलिसकर्मियों की संघर्ष में हो गई मौत
उसी सभा के दौरान पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच संघर्ष हुआ था. आंदोलनकारियों ने तीर से 4 पुलिसकर्मियों को मार दिया. पुलिस की फायरिंग में 3 आदिवासी भी मारे गये. 4 पुलिसकर्मियों के मारे जाने की खबर मुख्यालय आयी, तो भारी संख्या में पुलिसकर्मी गुवा पहुंच गए. तब तक घायल आदिवासी इलाज के लिए गुवा अस्पताल पहुंच चुके थे.
बाहर से आए पुलिसकर्मियों ने अस्पताल से निकालकर भून डाला
बाहर से आये पुलिसकर्मियों ने अस्पताल में इलाज करा रहे आदिवासियों का तीर-धनुष पहले बाहर रखवा दिया. जब वे निहत्थे हो गए, तब उन्हें अस्पताल से बाहर निकाल कर लाइन से खड़ा करके उन पर गोलियों की बारिश कर दी.
बिहार सरकार ने आदिवासियों के तीर-धनुष रखने पर लगाया बैन
गोलीकांड के बाद बिहार सरकार ने अधिसूचना जारी कर आदिवासियों को तीर-धनुष रखने पर प्रतिबंध लगा दिया था. पूरे देश के आदिवासियों में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी. मामला लोकसभा में भी उठा था. तीर-धनुष आदिवासियों के जीवन का हिस्सा है. इसलिए जब तीर-धनुष पर प्रतिबंध लगा तो दिनमान ने ‘बिना धनुष का आदिवासी’ शीर्षक से कड़ी रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इसमें काफी तर्क दिये गये थे. इससे सरकार और जनप्रतिनिधियों को तीर-धनुष के महत्व को समझाने में मदद मिली थी. अंतत: सरकार को तीर-धनुष पर से प्रतिबंध वापस लेना पड़ा था.
दिनमान में तीर-धनुष से आदिवासियों के संबंध पर छपा लेख
दिनमान का तर्क था कि जन्म से ही एक आदिवासी का तीर-धनुष से नाता जुड़ जाता है. दुष्ट आत्माओं के निवारण के लिए प्रसूति गृह में जो उपकरण लगाये जाते हैं, उनमें तीर-धनुष का स्थान सबसे ऊपर होता है. फिर जब वह होश संभालता है, तो उसके हाथ में स्वत: तीर-धनुष आ जाता है. जंगलों के बीच बसा हुआ गांव, उसके निवासियों को मवेशी चराने, लकड़ी काटने और खेती करने के लिए जंगलों के बीच से ही निकलना पड़ता है.
आदिवासियों के जीवन का अभिन्न अंग है तीर-धनुष
तीर-धनुष उसके लिए एक आवश्यकता बन जाती है. जंगली जानवरों और बाहरी दुश्मनों से उसकी रक्षा करनेवाला यह अस्त्र उसके जीवन का अभिन्न अंग बना हुआ है. उनके राजनैतिक प्रदर्शनों को भी उनके समग्र जीवन से अलग करके नहीं देखा जा सकता है. इसी तीर-धनुष के अपने आयुध को लेकर उनके नेता बिरसा भगवान ने अंगरेजों से लोहा लिया था. इसी आयुध को लेकर आदिवासियों ने मोंगरा घाटी में अंगरेजों के खिलाफ लोमहर्षक युद्ध किया था. तब भी अंगरेजों ने इस आयुध पर कोई रोक लगाने की नहीं सोची थी.
अंगरेजों ने भी कभी तीर-धनुष पर रोक लगाने की नहीं सोची
अंगरेज जानते थे कि यह अस्त्र उनके जीवन का एक अभिन्न अंग है. मगर अब इंका की सरकार ने यह रोक लगा दी है. शायद शोषण के खिलाफ उठ खड़े होनेवाले आदिवासियों को त्रस्त करने के लिए शासक दल ने यह प्रयास किया है. तीर-धनुष पर प्रतिबंध के बाद इतने जोरदार तरीके से किसी अखबार या पत्रिका ने रिपोर्ट नहीं लिखी थी, जितना दिनमान ने लिखा था. मजबूर होकर सरकार को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा था. अगर वर्ष 1980 में लगाया गया यह प्रतिबंध वापस नहीं लिया जाता, तो झारखंड आंदोलन के आगे की लड़ाई बगैर तीर-धनुष के संभव ही नहीं हो पाती.
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