Happy Birthday Guruji: शिबू सोरेन यानी गुरुजी को देश झारखंड के एक बड़े आंदोलनकारी और बड़े आदिवासी जननेता के तौर पर जानता है, लेकिन उनकी कुछ दूसरी खासियत भी रही है जिन पर लोगों का ध्यान नहीं जाता है. यह सही है कि गुरुजी ने अपने जीवन का आधा से अधिक हिस्सा झारखंड आंदोलन के दौरान जंगल-पहाड़ों में बिताया, लोगों को एकजुट किया और आखिरकार झारखंड राज्य दिलाया.
गुरुजी ने गोला, बोकारो, धनबाद से होते हुए टुंडी और पारसनाथ को अपने आंदोलन का ठिकाना बनाया. टुंडी को पोखरिया-पारसनाथ के पलमा और उसके आसपास आदिवासियों को एकजुट और आत्मनिर्भर बनाने, आदिवासी समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए उन्होंने जो काम किया, उसे आज भी याद किया जाता है.
गुरुजी शराबबंदी और शिक्षा के पक्षधर रहे हैं. मानते रहे हैं कि शराब के कारण ही आदिवासियों की जमीन को महाजनों ने कौड़ी के भाव लिखवा लिया था. इसलिए टुंडी में उन्होंने शराब के खिलाफ अभियान चलाया. इस दौरान आदिवासी समाज को बताया कि हड़िया का प्रयोग सिर्फ धार्मिक आयोजन के दौरान सांकेतिक तौर पर करें. शराब पीनेवालों को टुंडी में दंड देते थे.
1978 में बुद्धिजीवी सम्मेलन में कहा था कि दारू घरों में झगड़ों की जड़ है. समाज में फूट की जड़ है. 1980 में जब शिबू सोरेन पहली बार सांसद बने, तो संसद में पहले भाषण में उन्होंने कहा था कि मैं आदिवासी हूं. आदिवासी के घर पैदा हुआ हूं. हमने देखा है कि हमारी कमजोरी पर सरकार विचार करने के लिए सक्षम नहीं है. हमारा समाज जर्जर है. महाजन लोग और जमींदार शराब पिलाकर हमारी जमीन ले लेते हैं. जहां-जहां आदिवासी और हरिजन लोग रहते हैं, देश के किसी भी कोने में हों, वहां से शराब की दुकानें हटानी चाहिए.
टुंडी के पोखरिया में आश्रम बनाकर गुरुजी ने समाज सुधार और आदिवासियों को अपने पैरों पर खड़ा करने का प्रयास किया था. वहां उनकी समानांतर सरकार चलती थी और पूरे इलाके में तूती बोलती थी. गुरुजी जानते थे कि जब तक आदिवासी शिक्षित नहीं होंगे, तब तक विकास नहीं हो सकता. इसलिए उन्होंने अपनी एक टीम बनायी, जिसमें कृषि मंत्री, शिक्षा मंत्री पद भी थे. झगड़ू पंडित को यह जिम्मेवारी दी गयी थी कि वो आदिवासियों को बतायें कि कैसे खेती करनी है.
गुरुजी ने उन दिनों टुंडी के गांवों में सामूहिक खेती शुरू की. महाजनों के चंगुल से जो खेत मुक्त कराये जाते थे, उस पर आदिवासी सामूहिक खेती करते थे और बाद में उपज का बंटवारा कर लेते थे. उन्होंने रात्रि पाठशाला खोला, ताकि दिन में आदिवासी खेती करें, अपना काम करें, आंदोलन करें लेकिन शाम में वो पढ़ाई भी करें. पशुपालन पर जोर दिया.
खेतों में पानी पहुंचाने के लिए गांव के युवकों के साथ मिलकर उन्होंने चेक डैम बनवाया. दो-दो, तीन-तीन फसलें होने लगी. उनके काम की चर्चा पूरे देश में होने लगी. दिनमान जैसी राष्ट्रीय पत्रिका ने अपने सीनियर पत्रकार जवाहर लाल कौल (जो बाद में संपादक भी बने) को गुरुजी का काम देखने टुंडी भेजा था, जिसे माटी की किताब शीर्षक से प्रकाशित किया गया था. आदिवासियों के विकास के गुरुजी के मॉडल पर कई अर्थशास्त्रियों ने शोध भी किया है. यह गुरुजी यानी शिबू सोरेन के विकास का अपना मॉडल था और यही उनके आंदोलन की सफलता का एक बड़ा कारण था.
गुरुजी जमीन से जुड़े जननेता हैं, जो झारखंड का नब्ज पहचानते हैं. किस समय क्या निर्णय करना है वो जानते हैं. झारखंड आंदोलन के दौरान गुरुजी यह समझ गये थे कि अगर राज्य पाना है, तो आंदोलन में आदिवासियों के साथ-साथ मूलवासियों (सदानों) का बड़ा साथ चाहिए.
जब झारखंड मुक्ति मोरचा का गठन हुआ, तो उन्होंने पहले उनके साथ विनोद बिहारी महतो थे. विनोद बाबू के अलग होने पर गुरुजी खुद अध्यक्ष नहीं बने, बल्कि निर्मल महतो को बनाया. यह उनकी दूरदृष्टि थी, जिससे संगठन मजबूत होता गया. एक बेहतर नेतृत्वकर्ता के सारे गुण उनमें मौजूद हैं. अपने हिसाब से राजनीति की. किसी को हावी होने नहीं दिया. जब ताकत के प्रदर्शन का मौका आया, तो उसमें भी चूके नहीं.
1974 में जब विनाेद बाबू को गिरफ्तार कर गिरिडीह जेल में बंद कर दिया गया था, तो शिबू-सोरेन ने तीर-धनुष और पारंपरिक हथियारों से लैस करीब 20 हजार आदिवासियों के साथ पूरे गिरिडीह शहर को घेर लिया था. प्रशासन लाचार था. वह पहला मौका था जब झारखंड ने शिबू सोरेन की ताकत को देखा था. यह उनके नेतृत्व और आदिवासियों की उनपर अटूट भरोसा की एक झलक थी. दरअसल, झारखंड के वे सबसे बड़े जननेता हैं. उनके प्रति लोगों में श्रद्धा है. यही कारण है कि किसी भी दल के नेता हों, वे गुरुजी को आदर-सम्मान से देखते हैं.