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स्वतंत्रता संग्राम में संताली नेतृत्व की मिसाल थे होपन मांझी, महात्मा गांधी भी थे इनके काम से प्रभावित

होपन मांझी का संतालों के साथ-साथ गैर संतालियों को भी आंदोलन से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका थी. पुत्र लक्ष्मण मांझी भी प्रखर स्वतंत्रता सेनानी थे. इनका कद इतना बड़ा था कि इनके घर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का एक दिवसीय प्रवास हुआ था

By Prabhat Khabar News Desk | April 16, 2022 9:56 AM
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देश में हजारों ऐसे सपूत हुए जिन्होंने अपना जीवन स्वतंत्रता आंदोलन को समर्पित कर दिया, यातनाएं झेलीं, जेल गये और सब कुछ दावं पर लगा दिया, किंतु इतिहास की किताबों में उन्हें उचित जगह नहीं मिली. ऐसे ही सपूत थे होपन मांझी. उनके कार्यों से महात्मा गांधी तक इतने प्रभावित थे कि जब इन्होंने बापू को अपने यहां आने का निमंत्रण दिया, तो वे नकार नहीं सके और सहर्ष आमंत्रण को स्वीकार कर लिया. उनके पुत्र लक्ष्मण मांझी भी स्वतंत्रता सेनानी थे. पिता-पुत्र ने मिल कर लड़ाई लड़ी थी. पेश है पिता-पुत्र के त्याग और संघर्षों की कहानी.

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में झारखंड के संतालों ने मुखर होकर लड़ाई लड़ी थी. संतालों के साथ-साथ गैर संतालियों को भी आंदोलन से जोड़ने में उन सभी का अविस्मरणीय योगदान रहा है, पर इतिहास के पन्नों में उनमें से अधिकतर को वह जगह नहीं मिली, जिसके वह हकदार थे. कुछ को तो इतिहासकारों ने तवज्जो ही नहीं दी. देश के प्रथम बारूद कारखाना के लिए प्रसिद्ध गोमिया (बोकारो) के होपन मांझी भी संताल समुदाय के एक वैसे ही प्रखर स्वतंत्रता सेनानी थे.

इन्होंने क्षेत्र के संतालियों और गैर संतालियों को आजादी की लड़ाई में जोड़ कर आंदोलन को प्रभावी बनाने में अहम भूमिका निभायी थी. इनके पुत्र लक्ष्मण मांझी भी प्रखर स्वतंत्रता सेनानी थे. दोनों पिता-पुत्र ने मिल कर आंदोलन की अलख जलाये रखने में अहम योगदान दिया था. वैसे तो इनकी वीरता की गाथाएं क्षेत्र में खूब सुनी-सुनायी जाती है, पर इतिहास के पन्नों में वे खोजे नहीं मिलते हैं.

बोकारो के अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के बीच होपन मांझी का कद एक और कारण से भी बड़ा है. वह है इनके घर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का एक दिवसीय प्रवास. वह पहला और आखिरी अवसर था, जब वर्तमान बोकारो जिला क्षेत्र में कहीं पर बापू के प्रवास हुआ था. बापू ने इनके घर पर भोजन एवं रात्रि विश्राम भी किया था. यह 28 अप्रैल, 1934 की घटना है.

स्थानीय मीडिया ने बापू के आगमन की तिथि के रूप में 17 मार्च, 1940 का उल्लेख करते हुए यदाकदा लिखा है कि कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन के दौरान गांधीजी होपन मांझी के घर पहुंचे थे तथा रात्रि विश्राम के बाद यहीं से सुबह रामगढ़ के लिए रवाना हुए थे, जबकि रामगढ़ अधिवेशन में भाग लेने के लिए गांधीजी रांची होकर पहुंचे थे तथा रांची से रामगढ़ आने के लिए स्वतंत्रता सेनानी लक्ष्मीनारायण जायसवाल की कार का उपयोग किया था.

गांधीजी का गोमिया आगमन 28 अप्रैल, 1934 को हुआ था और वे झरिया में सभा करने के बाद यहां पहुंचे थे. बापू होपन मांझी के कार्यों से इतने प्रभावित थे कि जब इन्होंने उन्हें अपने यहां आने का निमंत्रण दिया, तो वे नकार नहीं सके और सहर्ष आमंत्रण को स्वीकार कर लिया.

इस दौरान गांधीजी ने कोनार नदी के किनारे गोमीबेड़ा नामक जगह पर जनसभा भी संबोधित किया था. जानकार लोग बताते हैं कि प्रचंड गरमी के बावजूद लगभग 10 हजार लोग जुटे थे. लोग दूर-दूर से बैलगाड़ी, साइकिल या पैदल चल-चलकर बापू को सुनने पहुंचे थे. गोमीटांड़ के सामने इमली पेड़ के निकट तोरण द्वार बना था.

भीड़ को नियंत्रित रखने के उद्देश्य से तोरण द्वार के उस पार, यानी सभास्थल की ओर, किसी को भी बैलगाड़ी व साइकिल ले जाने की अनुमति नहीं थी. तोरण द्वार के बाहर बैलगाड़ी व साइकिल रख कर सबों को पैदल ही सभा स्थल तक जाना था. तब न तो टेंट-बाजा की व्यवस्था थी, न मंच बनाने की. एक विशाल मचान बना था. उसी पर चढ़कर बापू ने टीना के भोंपू से सभा को संबोधित किया एवं लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन को सफल बनाने की अपील की.

इस सभा को लेकर एक अन्य प्रकार की घटना भी कही-सुनी जाती है. चूंकि, गरमी का मौसम था, इस कारण कोनार नदी सूख चुकी थी. सब चिंतित थे कि इतनी बड़ी भीड़ के लिए इस प्रचंड गरमी में पानी की व्यवस्था कैसे होगी? बापू ने भी होपन मांझी से यह सवाल किया. तब होपन मांझी ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा था कि बापू, चिंता न करें, पानी की व्यवस्था हो जायेगी. दरअसल, उनके आत्मविश्वास का कारण मांडू के स्वतंत्रता सेनानी बंगम मांझी के साथ पानी बरसने की कामना को लेकर दह में की गयी पूजा-अर्चना थी. उन्हें अपने प्राकृतिक देवता पर भरोसा था. और ऐसा ही हुआ. सभा से पूर्व जोरदार बारिश हुई और नदी में पानी भर गया.

बापू की इस सभा का काफी असर हुआ. अनेक लोग उनके भाषण से प्रभावित होकर आंदोलन में कूद पड़े. बोकारो जिला में सबसे अधिक स्वतंत्रता सेनानी निकले तो कहीं न कहीं उसमें होपन मांझी का कुशल नेतृत्व और गांधीजी की सभा केके बड़ी वजह थी. होपन के घर पर क्षेत्र के सभी स्वतंत्रता सेनानियों की बैठक होती थी और रणनीति बनायी जाती थी.

होपन मांझी वर्ष 1925 के आसपास करीब 30 वर्ष की उम्र में स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे. गांवों में घूम-घूम कर लोगों को आंदोलन के लिए प्रेरित व गोलबंद करना ही उनकी दिनचर्या बनी हुई थी. ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों के कारण वर्ष 1930 में इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.

इन पर 2 हजार रुपये का जुर्माना लगाया गया. इतनी बड़ी रकम देने में असमर्थ होने पर इन्हें एक साल की सजा सुनाई गयी. 23 जुलाई, 1930 को इन्हें जेल में डाल दिया गया. 30 मार्च, 1931 को जेल से रिहा होकर निकले. इनके पुत्र लक्ष्मण मांझी जब युवा हुए, तो वे भी अपने पिता से प्रभावित होकर आंदोलन में कूद पड़े.

फिर पिता-पुत्र ने मिल कर आंदोलन को तेज किया. घोड़ा पर चढ़ कर क्षेत्र का भ्रमण करते थे. 1942 के आंदोलन में पिता-पुत्र दोनों को जेल हो गयी. दोनों का केबी सहाय से भी काफी लगाव था. देश आजाद होने के बाद होपन मांझी एमएलसी बनाये गये. 1949 में इनका निधन हो गया. इनके निधन का कारण एक दुर्घटना बनी. हुआ यह कि होपन मांझी ने अपने घर में एक कुआं बनाया था.

एक दिन पानी भरने के दौरान वे फिसलकर गिर पड़े और उन्हें गंभीर अंदरूनी चोट लगी. उन्हें हजारीबाग में भरती कराया गया. स्वस्थ होकर लौटे, लेकिन घोड़े की सवारी बंद नहीं की. इस कारण उनका जख्म फिर हरा हो गया और इस बार उन्हें बचाया नहीं जा सका. हजारीबाग सदर अस्पताल में ही उनका निधन हो गया. उनका शव कांग्रेस कार्यालय में लाकर श्रद्धांजलि दी गयी. फिर हजारीबाग में ही दाह-संस्कार कर दिया गया. उनके पुत्र जवाहर मांझी साथ में गये थे. लक्ष्मण मांझी 1952 से 1957 तक एमएलए थे. इनका निधन 1990 में हुआ.

Posted BY : Sameer Oraon

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