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Hul Diwas 2022: हूल के बाद बदल गया बंगाल का नक्शा, नहीं बदली तो बस संतालियों की दशा

1855-56 का संताल हूल आधुनिक भारत के इतिहास की एक ऐसी घटना है, जिसने इस क्षेत्र की राजनीतिक, प्रशासनिक, कानूनी, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में एक क्रांतिकारी बदलाव लाया है

By Prabhat Khabar News Desk | June 30, 2022 11:29 AM

1855-56 का संताल हूल आधुनिक भारत के इतिहास की एक ऐसी घटना है, जिसने इस क्षेत्र की राजनीतिक, प्रशासनिक, कानूनी, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में एक क्रांतिकारी बदलाव लाया है. इस घटना ने न सिर्फ इस्ट इंडिया कंपनी को प्रभावित किया, बल्कि आने वाले समय में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्र भारत के बाद की राजनीति को भी प्रभावित किया. आज भी संताल हूल वर्तमान झारखंड राज्य की राजनीतिक, प्रशासनिक, कानूनी और आर्थिक व्यवस्था को प्रभावित कर रहा है. हूल के बाद हुए बदलाव पर डॉ अजय सिन्हा (एसकेएम विवि के राजनीति विज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापक) की रिपोर्ट….

बदल गया प्रशासनिक स्वरूप संताल परगना का हुआ जन्म

1 संताल को नन रेग्युलेशन का दर्जा दिया गया

1855 के अधिनियम XXXVII ने संताल परगना को जन्म दिया. यह क्षेत्र 5470 वर्ग माइल का था. इसमें भागलपुर और वीरभूम जिले के हिस्से थे. दुमका को इसके प्रशासन का केंद्र बनाया गया. संताल परगना को नन रेग्युलेशन जिले का दर्जा दिया गया. यहां पर जो देश के प्रचलित सामान्य कानून थे, जिन्हें संताल पसंद नहीं करते थे, उससे उन्हें मुक्त रखा गया. 1872 में संताल परगना को स्थायी रूप से नन रेग्युलेशन जिले के रूप में मान्यता मिली.

चार सब डिवीजन में बांटा गया संताल परगना को

संताल संस्कृति को देखते हुए एक नयी व्यवस्था लागू की गयी. पूरे संताल परगना जिले को चार सब डिवीजन में बांटा गया, जिसका प्रभार अलग अलग डिप्टी कमिश्नर को दिया गया. इन डिप्टी कमिश्नर की सहायता के लिए चार असिस्टेंट कमिश्नर नियुक्त किये गये. 1856 के पुलिस अधिनियम में संशोधन कर गांव के परंपरागत प्रधान को पुलिस की जिम्मेदारी सौंपी गयी.

संताल परगना काश्तकारी अधिनियम लागू किया गया

संताल परगना काश्तकारी अधिनियम 1876 लागू हुआ. इसने आदिवासियों को शोषण के खिलाफ कुछ सुरक्षा प्रदान की. संताल परगना काश्तकारी अधिनियम 1876 बंगाल के साथ आज के झारखंड की सीमा के साथ संताल परगना क्षेत्र में गैर आदिवासियों को आदिवासी भूमि की बिक्री पर रोक लगाता है. स्वतंत्रता के बाद संताल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 झारखंड के संताल परगना संभाग में काश्तकारी का पहला संहिताबद्ध कानून बना. इसके अधिनियमित होने पर, इसने मौजूदा ब्रिटिश-युग के किरायेदारी कानूनों को पूरक बनाया और भूमि से संबंधित कुछ प्रथागत कानूनों को संहिताबद्ध किया गया.

खत्म कर दी गयी बंधुआ मजदूरी की प्रथा

महत्वपूर्ण परिणाम यह था कि बंधुआ मजदूरी की प्रथा को 1860 में डिप्टी कमिश्नर विलियम रोबिंसन द्वारा समाप्त कर दिया गया. यह संतालों को मामूली रकम के लिए जमींदारों का पीढ़ी दर पीढ़ी गुलाम बना देती थी. नाप तौल के बटखरे में भी सुधार कर ठगी से बचाने के उपाय किये गये.

संतालों को पहचान मिली, पर गरीबी व पलायन जारी रहा

जल, जंगल, जमीन से लगाव को दुनिया ने देखा

सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि संतालों की पहचान और अपने संस्कृति से जुड़ कर रहने की उनकी प्रवृत्ति को बल देने वाली बनी. जल, जंगल और जमीन से उनका लगाव पूरी दुनिया को पता चला. उनमें सामूहिक चेतना का मजबूती से विकास हुआ. अबुआ राज का उनका सपना आजादी के बाद झारखंड के निर्माण के रूप में सामने आया.

खदानों और चाय बागानों में काम करने गये संताल

संतालों की एक खास प्रवृत्ति उनका अपनी जमीन से लगाव है. वे कूली या मजदूर के रूप में काम करना पसंद नहीं करते. लेकिन हूल से उत्पन्न हुई स्थिति ने उन्हें यह काम करने पर मजबूर कर दिया. गरीबी,भुखमरी और कर्ज ने उन्हें खदानों और चाय बागानों में कार्य करने पर मजबूर कर दिया. 1880 में 44.7%असम के चाय बागानों के मजदूर संताल परगना से थे.

विद्रोह के स्थान पर दूसरे तरीके अपनाने लगे

संतालों को अपनी समस्याओं के समाधान के लिये नये रणनीति को अपनाने के लिए प्रेरित किया. अब वे सशस्त्र विद्रोह के स्थान पर अपनी बात रखने का दूसरा रास्ता अख्तियार करने लगे. 1861 हांडवे में बढ़े हुए लगान विरोधी आंदोलन में सुंदर मांझी के नेतृत्व में संतालों ने पहले अपना पीटिशन असिस्टेंट कमिश्नर को दिया. बाद में बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर से मुलाकात कर बढ़े हुए लगान का मामला सुलझा लिया. भगीरथ मांझी के नेतृत्व में खेरवार आंदोलन वैधानिक तरीका अपनाते हुए अपने मांगों को रखता रहा. 1881 में लगभग 50000 संताल साफाहोड़ हो गये थे.

अंग्रेजों ने की क्रूरता, कई गांव जला दिये गये थे

हूल से संतालों को कोई आर्थिक लाभ नहीं हुआ. अंग्रेजों ने क्रूरता से गांव के गांव जला दिये थे. संताल गांव छोड़ कर जाने लगे और उनके मवेशी और अन्य सम्पत्ति पर दूसरों ने अधिकार जमा लिया. 1865-66 में आये आकाल ने इनकी स्थिति और गंभीर कर दी. कोलेरा से हजारों संताल की जान चली गयी. एक बार फिर संतालों ने महाजनों से कर्ज लेना शुरू कर दिया. कई सारे संताल छोटनागपुर चले गये और कुछ गंगा पार कर पूर्णिया में चले गए.

Posted By: Sameer Oraon

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