आनंद जायसवाल
आज का संताल परगना संताल हूल का प्रतिफल है. इसमें केवल संतालों ने ही नहीं, नाई, लोहार, तेली, कुम्हार, ग्वाला, डोम, कोल, बोंचा व रजवारों आदि ने भी भाग लिया था. महिलाएं भी बड़ी तादाद में शामिल हुई थी. बालकों की भी संख्या काफी थी. दरअसल उस वक्त जमींदार और महाजन मेहनतकश संतालों का खूब उत्पीड़न करते थे. उनसे जबरन वसूली की जाती थी.
उधार न चुकाने पर संपत्ति पर दखल कर लिया जाता था. बंधुवा मजदूरी करायी जाती थी. अंग्रेजों से सांठगांठ रखनेवाले इन जमीनदारों-महाजनों का ऐसा सलूक इस संताल परगना के अलावा वीरभूम, बांकुड़ा, भागलपुर के पूर्वी क्षेत्र व हजारीबाग के इलाके में आम बात थी. यही वजह बनी थी संताल हूल की. इसके विरोध में ही 30 जून 1855 की बैठक हुई थी. हूल का एलान हुआ था.
इस घटना के तुरंत बाद ही सात जुलाई 1855 को दिग्घी का दारोगा महेशलाल डकैती आदि के झूठे आरोप में सिदो-कान्हू को गिरफ्तार करने पहुंचा था. तब न केवल दारोगा महेशलाल दत्त को बल्कि एक अन्य दारोगा प्रताप नारायण को भी अपनी जान गंवानी पड़ी थी. इस वाकया के बाद 16 जुलाई 1855 को पीरपैंती-पियालपुर में आंंदोलनकारियों ने सार्जेंट मेजर सहित 25 अन्य को भी अपने तीर से निशाना बनाया था.
इसके बाद तो जब ब्रितानी हुकूमत ने इन्हें घेरने की कोशिश की, तो ये सेनानी राम मांझी, शाम, फुदुन आदि का साथ लेकर वीरभूम की ओर छह अगस्त 1855 को लगभग 3000 विद्रोहियों के साथ कूच कर गये. वहीं सात हजार संताल विद्रोहियों ने जामताड़ा के पूरब से अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने के लिए अपनी स्थिति मजबूत बनाने की कोशिश की थी.
वीरभूम पर हमला करने के पूर्व 12 सितंबर 1855 को रक्साडंगाल से विद्रोहियों ने देवघर से चले एक डाक हरकारे के हाथ तीन पत्त्ते वाली साल की डाली देकर संदेश भेजा कि वे तीन दिन में उन तक पहुंच रहे हैं, सामना करने को तैयार रहें. इन तीन पत्तों वाली साल की टहनी का एक-एक पत्ता विद्रोहियों के आगमन के पूर्व एक-एक दिन का प्रतीक था.
छह महीने के भीतर ही संताल हूल का यह विद्रोह भयानक रूप धारण कर पूरा संताल परगना, हजारीबाग, बंगाल के धुलियान, मुर्शिदाबाद व बांकुड़ा और बिहार के भागलपुर तक फैल गया. 21 सितंबर 1855 तक वीरभूम से दक्षिण-पश्चिम जीटी रोड पर स्थित तालडांगा और और दक्षिण पूर्व में सैंथिया से पश्चिम और गंगा घाटी वाले इलाके में राजमहल और भागलपुर जिले के पूर्वोत्तर और दक्षिणेत्तर इलाके तक विद्रोही गतिविधियां काफी तेज थी.
इसके बाद विद्रोहियों ने पूरा वीरभूम तहस-नहस कर दिया. नारायणपुर, नलहाटी, रामपुरहाट, सैंथिया ही नहीं, वीरभूम जिला का मुख्यालय सिउड़ी और उससे पश्चिम स्थित नागौर व हजारीबाग के नजदीक खड़डीहा में सियारामपुर तक सारे पुलिस चौकियों और इलाके को नवंबर 1855 के अंत तक लूटकर विद्रोहियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को मुश्किल में ला दिया. बिहार से बंगाल की ओर जानेवाली मुख्य सड़क पर विद्रोहियों का कब्जा हो गया.
डाक हरकारे को रोके जाने और उनकी डाक थैलियां लूट लिये जाने से विद्रोहियों से अग्रेजों की परेशानी बढ़ती गयी. ऐसे में अंग्रेजों की सेना ने भी कहर बरपाया. 15000 के करीब संताल मारे भी गये, पर ‘स्वराज-स्वशासन’ के लिए वे लड़ाई लड़ते रहे, पीछे नहीं हटे. ऐसे में अंग्रेजी हुकूमत के लिए यही रास्ता बचा कि वे मार्शल लॉ हटायें. सेक्शन 3 रेगुलेशन X 1804 के तहत लगा तीन जनवरी 1856 को अंतत: मार्शल लॉ हटाना पड़ा.
इसे 10 नवंबर 1855 को लगाया गया था. इससे पहले संताल परगना को Acts of XXXVII 1855 (बाद में X of 1857) के तहत अलग जिला बनाकर नन रेगुलेशन डिस्ट्रिक्ट का दर्जा देना पड़ा. डिप्टी कमिश्नर के तौर पर तब एश्ले इडेन सीएस विशेष रूप से नियुक्त किये गये. सिविल के साथ क्रिमिनल ज्यूरिडिक्शन पावर भी उन्हें दिये गये. चार उप जिलों के लिए चार सहायक अधिकारी भी दिया गया.
एक अन्य कानून Acts XXXVIII 1855 को दिसंबर में ही लागू किया गया. इसके तहत स्पीडी ट्रायल व सजा दिलाने का प्रावधान किया गया था. इसके तहत जनवरी 1856 के पहले सप्ताह तक अधिकतर आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया. सिदो पहले ही गिरफ्तार किये जा चुके थे और उनको सजा हो चुकी थी. जबकि कान्हू सहित अन्य भी गिरफ्तार कर लिये गये. इनकी गिरफ्तारी के बाद यह विद्रोह थमा.