रजनीश उपाध्याय
दूसरा वाकया, इसी महीने का है. मेटा और गूगल ने कनाडा के सभी मीडिया संस्थानों को अपने प्लेटफॉर्म से हटाने की घोषणा की है. वजह कनाडा सरकार का वह कानून (ऑनलाइन न्यूज एक्ट : सी 18) है, जिसमें यह अनिवार्य कर दिया गया है कि डिजिटल प्लेटफॉर्म चलाने वाली कंपनियां न्यूज कंटेंट के बदले में मीडिया कंपनियों को भुगतान करें. इसका सीधा मतलब यह हुआ कि कनाडा में अब फेसबुक और इंस्टाग्राम पर शेयर किये गये कोई समाचार लिंक यूजर्स को नहीं दिखेंगे.
क्या इस डिजिटल युग में, जबकि टेक्स्ट, ऑडियो और वीडियो आधारित सूचनाएं रीयल टाइम में शहरों के ड्राइंग रूम से लेकर गांव के बैठक खाने तक पहुंच रही हैं, प्रिंट मीडिया की अहमियत बनी हुई है? क्या सोशल मीडिया (फेसबुक, ट्वीटर और वॉट्सएप) ने अखबार पढ़ने की ललक को कम कर दिया है? और क्या आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआइ) आने वाले दिनों में अखबारों में कामकाज को पूरी तरह बदल देगा? आइए, इन सवालों का जवाब तलाशने के पहले हाल के दिनों में घटित कुछ हालिया वाकये पर गौर करें.
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पहला वाकया, इसी साल मार्च महीने का बिहार का है. एक सनसनीखेज सूचना सोशल मीडिया पर तेजी से प्रसारित हुई, जिसमें कहा गया कि तमिलनाडु में हिंदीभाषी राज्यों (खास तौर पर बिहार व झारखंड) के प्रवासी श्रमिकों को मारपीट कर भगाया जा रहा है और कुछ की हत्याएं भी कर दी गयीं. इससे जुड़े कई वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हुए. बाद में पुलिस की जांच में ये वीडियो फर्जी पाये गये. इन्हें किसी खास इरादे से सुनियोजित तरीके से प्रसारित किया गया था. इसे तैयार करने वाले सभी कथित पत्रकार और उनके सहयोगी जेल में हैं. उनके खिलाफ कोर्ट में मुकदमा चल रहा है. इस फर्जी खबर के दबाव में कुछ अखबार भी आ गये. उन्होंने पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों (सूचना को क्रॉस चेक करने का) का पालन किये बगैर खबर और तस्वीरें प्रकाशित की. मामला कोर्ट तक पहुंचा और एक हिंदी अखबार (प्रभात खबर नहीं) को माफीनामा प्रकाशित करनी पड़ी.
दूसरा वाकया, इसी महीने का है. मेटा और गूगल ने कनाडा के सभी मीडिया संस्थानों को अपने प्लेटफॉर्म से हटाने की घोषणा की है. वजह कनाडा सरकार का वह कानून (ऑनलाइन न्यूज एक्ट : सी 18) है, जिसमें यह अनिवार्य कर दिया गया है कि डिजिटल प्लेटफॉर्म चलाने वाली कंपनियां न्यूज कंटेंट के बदले में मीडिया कंपनियों को भुगतान करें. इसका सीधा मतलब यह हुआ कि कनाडा में अब फेसबुक और इंस्टाग्राम पर शेयर किये गये कोई समाचार लिंक यूजर्स को नहीं दिखेंगे. इसके पहले 2021 में ऑस्ट्रेलिया में फेसबुक ने अपने प्लेटफॉर्म पर सभी मीडिया संस्थानों को बैन कर दिया था. गूगल ने भी चेतावनी जारी कर दी थी. तब ऑस्ट्रेलिया ने समाचार मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म अनिवार्य सौदेबाजी कानून बनाया था. हालांकि महज एक सप्ताह के भीतर ही ऑस्ट्रेलिया की सरकार को दबाव में अपने कदम पीछे खींचने पड़े और कानून में संशोधन कर इसे लचीला बनाया गया.
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अब ऊपर लिखित सवालों का जवाब तलाशने के लिए इन आंकड़ों पर गौर करें. इंटरनेट इन इंडिया रिपोर्ट 2022 के मुताबिक, देश में इंटरनेट के सक्रिय यूजर्स की संख्या 75.9 करोड़ है, जो कुल आबादी का करीब 52 फीसदी है. 36 करोड़ यूजर्स शहरों में और 39.9 करोड़ ग्रामीण इलाकों में हैं. 2025 तक यह संख्या बढ़ कर करीब 90 करोड़ तक पहुंचने के आसार हैं. हालांकि बिहार में फिलहाल 32 फीसदी इंटरनेट के उपयोगकर्ता हैं.
दरअसल इंटरनेट की पैठ से सोशल मीडिया का उपयोग करने वालों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है. यह न केवल हैलो-हाय और गुड मॉर्निंग-गुड नाइट से लेकर एक-दूसरे से आपसी संवाद का माध्यम बन गया है, बल्कि सूचनाओं को समाज में फैलाने का भी जरिया है. इसी क्रम में इसने बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को एक प्लेटफॉर्म भी मुहैय्या करा दिया, जो अपनी भावनाएं अभिव्यक्त करने की इच्छा रखते थे. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कविता, कहानी, लेख, विचार और समाचार, घटनाओं के रीयल टाइम वीडियो भी प्रेषित होने लगे. इसमें कोई बुराई भी नहीं है.
दिक्कत तब शुरू हुई जब न्यूज पोर्टल और यू ट्यूब के जरिये समाचार और न्यूज कंटेंट इन प्लेटफॉर्म पर आने लगे. तथ्यों की पड़ताल किये बगैर बेसिर पैर की और मनगढ़ंत खबरें खूब चलने लगीं. चल भी रही हैं. इधर, प्रिंट मीडिया पूंजी, बाजार और स्टेट पावर का दबाव झेल रहा था और इससे उकता रहे लोगों ने न्यू मीडिया को हाथों-हाथों लपक लिया. वे अपनी आकांक्षा उसमें ढूंढ़ने लगे. तमिलनाडु में प्रवासी श्रमिकों को मारे-पीटे जाने की फर्जी खबर तो एक उदाहरण भर है, जो मीडिया के पूरे परिदृश्य को समझने के लिए काफी है. ऐसे वाकये बहुतायत हैं.
समाज के विचार को प्रभावित करने वाले तबके ने पहले तो इसे अपने प्रचार-प्रसार और ब्रांडिंग का माध्यम समझ बढ़ावा दिया. जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा तो अब नींद टूटी है. अखबारों में और विश्वसनीय न्यूज वेबसाइट पर खबर प्रकाशित/जारी करने के पहले इसकी विश्वसनीयता और तथ्यों की जांच-परख का एक सिस्टम है. आज भी एक खबर को कम से कम तीन अलग-अलग चरणों से गुजरना पड़ता है. हर समाचार की जिम्मेवारी तय है. यही फर्क प्रिंट मीडिया को विश्वसनीय और भरोसेमंद बनाता है. आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं.
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रजिस्ट्रार ऑफ न्यूज पेपर्स फॉर इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, 31 मार्च, 2022 तक देश में 1.46 लाख प्रिंट पब्लिकेशन (दैनिक समाचार पत्र व पत्रिकाएं आदि) रजिस्टर्ड थे. उनमें करीब दस हजार दैनिक समाचार पत्र हैं. दैनिक समाचार पत्रों की प्रसार संख्या करीब 22.59 करोड़ है. यह बात भी सही है कि डिजिटल दुनिया में नयी पीढ़ी में अखबारों के प्रति ललक अपेक्षाकृत कम हुई है. लेकिन न केवल भारत, बल्कि विकसित देशों में भी अखबारों के प्रति भरोसा कायम है, क्योंकि वे जनता के प्रति जवाबदेह हैं. बदलते दौर में पत्रकारिता का फोकस पूंजी, राजनीति, सेलेब्रेटी से हटकर आम आदमी, किसान, खेती, छात्र की ओर हुआ है.
कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के घटनाक्रम के निहितार्थ यह हैं कि सोशल मीडिया के स्वामित्व वाली कंपनियों ने धीरे-धीरे खुद को इतना ताकतवर कर लिया है कि वे लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी सरकारों पर भी इस हद तक दबाव डाल रही हैं. आने वाले दिनों में यदि भारत में ऐसे किसी कानून की पहल हुई तो यह बखेड़ा यहां भी खड़ा हो सकती है. इसका नुकसान तो अंतत: पाठकों को ही झेलना पड़ेगा. किसी सूचना की पहुंच को किस हद तक नियंत्रित किया जा सकता है, यह तो अभी से सोशल मीडिया पर दिख भी रहा है.
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ऐसे में समाचार पत्रों की प्रासंगिकता, महत्ता और जरूरत न केवल कायम रहेगी, बल्कि बढ़ेगी. जरूरत इस बात की है कि अखबार नयी तकनीक का उपयोग करते हुए जनसरोकार के मुद्दों और आम आदमी की पीड़ा से जुड़े रहें. रही बात आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआइ) के खतरे की, तो पत्रकारिता और प्रौद्योगिकी का हमेशा घनिष्ठ संबंध रहा है. इसका लाभ भी मीडिया को गतिशील बनाने में मिलता रहा है. लेकिन, कोई मशीन पत्रकारिता के मूल्य, दृष्टिकोण और मानवीय संवेदना तय नहीं कर सकता. यह कार्यभार तो पत्रकारों को ही उठाना होगा.
(लेखक प्रभात खबर में वरीय संपादक हैं.)