आज संविधान दिवस है. संविधान, जिससे एक आम भारतीय को हक-अधिकार की गारंटी मिलती है. देश में समानता, स्वतंत्रता, समरसता के भाव के साथ संविधान सबको जीवन जीने का अधिकार देता है. देश की आजादी के बाद सार्वभौम व जनसत्ता कायम करनेवाले संविधान की जरूरत थी. बड़े मंथन, बहस के बाद संविधान का निर्माण हुआ.
झारखंड से कई लोग संविधान सभा के सदस्य बने. झारखंड के तीन आदिवासी, जयपाल सिंह मुंडा, बोनीफास लकड़ा और देवेंद्रनाथ सामंत ने भी योगदान दिया था. संविधान की मूल प्रति के अंत में इन तीनों के हस्ताक्षर हैं. इन्होंने आदिवासियों के हक-हूकूक बात रखी. मनोज लकड़ा की रिपोर्ट.
जयपाल सिंह मुंडा
जयपाल सिंह मुंडा खूंटी से थे और आदिवासी महासभा से जुड़े थे. वे आदिवासियों के हक के लिए लगातार मुखर रहे. संविधान सभा में उन्होंने कहा : पिछले 6000 साल से अगर इस देश में किसी का शोषण हुआ है, तो वे आदिवासी हैं. जब भारत के इतिहास में एक नया अध्याय शुरू हो रहा है, तो इन्हें भी अवसरों की समानता मिलनी चाहिए.
उन्होंने पांचवीं और छठी अनुसूची के तहत आदिवासियों के लिए बेहतर व्यवस्था, आदिवासी जमीन के संरक्षण को मौलिक अधिकार बनाने, अनुसूचित जनजाति की जगह आदिवासी शब्द के प्रयोग, आदिवासी के अनुसूचित क्षेत्र से बाहर निकलने पर भी उनके संवैधानिक अधिकार बरकरार रखने जैसे विषयों की पुरजोर वकालत की. उन्होंने झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों का बिहार, बंगाल व मध्य प्रदेश में विभाजित करने का विरोध किया था.
बोनीफास लकड़ा
बोनीफास लकड़ा ने संविधान सभा में छोटानागपुर सबडिविजन के रांची, हजारीबाग, पलामू, मानभूम व सिंहभूम जिलों को ऑटोनॉमस इलाका या सब प्रोविंस बनाने की मांग की थी. ट्राइबल वेलफेयर के लिए ट्राइबल मिनिस्टर बनाने की मांग रखी थी. संविधान के लागू होते ही यथाशीघ्र ट्राइब्स एडवाइजरी काउंसिल के गठन की मांग रखी थी.
वे लोहरदगा के डोबा गांव के थे और उरांव जनजाति से थे. वे पेशे से वकील थे. 1937 में रांची सामान्य सीट से कैथोलिक सभा के प्रत्याशी के रूप में विधायक (बिहार प्रोविंसियल असेंबली के सदस्य) चुने गये. वे 1946 से 1951 तक बिहार सरकार में एमएलसी व पार्लियामेंट सेक्रेटरी रहे. वे 1939 में गठित आदिवासी महासभा के संस्थापक सदस्य भी बने.
देवेंद्र नाथ सामंत
पद्मश्री देवेंद्र नाथ सामंत पश्चिमी सिंहभूम के दोपाई गांव के थे. मुंडा जनजाति के थे. संविधान सभा में इन्होंने आदिवासी हितों की बात मजबूती से रखी. उन्हें 25 सितंबर 1925 को चाईबासा में महात्मा गांधी से मिलने के बाद उनके जीवन में बड़ा बदलाव आया. 1925 के अंतिम महीने में उन्होंने चाईबासा के बार एसोसिएशन का सदस्य बन कर जिला अदालत में वकालत शुरू की.
1927 में सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया और 1952 तक लगातार इस क्षेत्र में काम किया. वे कांग्रेस से जुड़े थे. इस अवधि में बिहार-उड़ीसा लेजिसलेटिव काउंसिल, बिहार विधानसभा, बिहार विधान परिषद, संविधान सभा के सदस्य और संसद सचिव के रूप में कार्य किया. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के लिए राजबंदी के रूप में नौ सितंबर 1942 को गिरफ्तार हुए और 11 फरवरी 1944 तक हजारीबाग जेल में सजा काटी.