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किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं झारखंड के जगदीश महतो, जिन्होंने शुरू की पेड़ों में रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा

झारखंड के अलग-अलग हिस्सों में इसे नेतृत्व देने वालों में जगदीश महतो का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है, बल्कि यह कहना सही है कि जगदीश महतो वन सुरक्षा अभियान के प्रतीक और पर्याय बन चुके हैं. जगदीश की यह पहचान रातों-रात नहीं बनी. जगदीश ने तकरीबन चार दशक तक इस आंदोलन-अभियान को नेतृत्व दिया है.

दीपक सवाल : झारखंड में जल-जंगल और जमीन के मुद्दे पर हमेशा ही चिंतन-मनन होता रहा है. वजह यह है कि इस प्रांत की पहचान और झारखंडियों की अस्मिता मूलतः इसी में छुपी हुई है. परिणामतः, इसके संरक्षण और संवर्द्धन के लिए अनेक स्तर पर काम, अभियान और आंदोलन भी हुए हैं और विभिन्न रूपों में आज भी हो रहे हैं. राज्य के अलग-अलग हिस्सों में इसे नेतृत्व देने वालों में जगदीश महतो का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है, बल्कि यह कहना सही है कि जगदीश महतो वन सुरक्षा अभियान के प्रतीक और पर्याय बन चुके हैं. इन्होंने झारखंड, खासकर उत्तरी छोटानागपुर और उससे सटे क्षेत्रों में वनों के संरक्षण एवं संवर्द्धन की दिशा में जो कार्य कर दिखाया, वह अद्भुत है. इसी का प्रतिफल है कि इन्हें 2017 में तत्कालीन सीएम के हाथों ‘झारखंड सम्मान’ समेत अन्य कई सम्मानों से नवाजा जा चुका है. वन विभाग में भी इनका नाम बड़े आदर से लिया जाता है. हाल ही में इनके पैतृक गांव हिसीम में आयोजित हुए वन-सुरक्षा सम्मेलन में भारतीय वन सेवा के अधिकारी रजनीश कुमार ने अपने संबोधन में वन-पर्यावरण की सुरक्षा और उसके विकास के लिए गांव-गांव से ‘जगदीश महतो’ जैसे नेतृत्वकर्ता निकलने की आवश्यकता जतायी थी.

कैसे बनी जगदीश की पहचान?

जगदीश की यह पहचान रातों-रात नहीं बनी. जगदीश ने तकरीबन चार दशक तक इस आंदोलन-अभियान को नेतृत्व दिया है. दरअसल, इस अभियान के प्रारंभ होने के पीछे भी कुछ वजह थी. यह तकरीबन 40 साल पुरानी बात है. बोकारो के हिसीम पहाड़ और इसकी तलहटी पर स्थित जंगल तेजी से साफ हो गये थे. अधिकतर जगहों पर तो जंगल के नाम पर केवल ठूंठ बचे थे और हालात यहां तक पहुंच गये थे कि उन ठूंठों पर भी कुल्हाड़ी चलने लगी थी. इन जंगलों के उजड़ने के पीछे इलाके में सक्रिय लकड़ी माफिया तो थे ही, ग्रामीण भी कम जिम्मेदार नहीं थे. यूं कह लें, रोजगार की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं होने की स्थिति में रोजी-रोटी के लिए ग्रामीणों ने लकड़ी माफियाओं का साथ दिया और स्वयं भी लकड़ी काटकर बेचना शुरू किया. जलावन के नाम पर भी जंगल में तेजी से कुल्हाड़ी चल रही थी. ग्रामीणों में जंगल के प्रति जागरूकता तब आयी, जब जंगल लगभग खत्म हो गये और ठूंठों को भी उखाड़ने की नौबत आने लगी. ठूंठ भी न बचेंगी, तो क्या होगा? मूलतः इसी सोच और सवाल ने ग्रामीणों को चिंतित-परेशान करना शुरू किया और यही इनकी जागरूकता का कारण बना.

वह 31 अक्तूबर, 1984 का दिन था. हिसीम पहाड़ पर बसे चारों गांव हिसीम, केदला, गुमनजारा और त्रियोनाला के ग्रामीण हिसीम के मध्य विद्यालय प्रांगण में जुटे. इस गंभीर समस्या पर दिन-भर चर्चा चली. अंत में सबों ने निर्णय लिया कि अब किसी भी हाल में एक भी पेड़ पर न खुद कुल्हाड़ी चलायेंगे और न किसी को चलाने देंगे. जो भी थोड़े-बहुत जंगल और पेड़ शेष रह गये हैं, उन्हें हर हाल में बचायेंगे. इसी संकल्प के साथ एक समिति गठित की गयी. नामकरण हुआ- ‘वन सुरक्षा समिति, हिसीम’. दूसरे दिन से ही कुल्हाड़ी के खिलाफ अभियान शुरू हो गया. दिन तो दिन, रात में भी जंगल की पहरेदारी होने लगी. इसके लिए सदस्यों को बारी-बारी से जिम्मेदारी दी गयी. अनुपालन नहीं करने वालों पर दंड का प्रावधान भी किया गया. ग्रामीण जंगल बचाने को लेकर काफी उत्साहित थे, किंतु इसे जितना समझा गया था, उतना सरल साबित नहीं हुआ. मोटी कमाई करने वाले लकड़ी माफियाओं ने दूसरे गांवों के ग्रामीणों को उकसाया. पहाड़ पर बसे गांवों के ग्रामीणों को नीचे उतरने पर बुरे परिणाम की चेतावनी दी गयी. लेकिन समिति वाले भी हार मानने वालों में नहीं थे. जिन गांवों के ग्रामीणों को इस अभियान के खिलाफ उकसाया गया था, उन्हें भी इस अभियान में शामिल करने की मुहिम चलायी गयी. उनके बीच भी वनों की सुरक्षा को लेकर जन-जागरूकता अभियान चलाया. इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा. अन्य गांवों में भी वन सुरक्षा समितियां गठित होने लगीं. आखिरकार लकड़ी माफियाओं को हार माननी पड़ी. धीरे-धीरे उन्हें दुबकने को विवश होना पड़ा. वहीं, कसमार के अलावा दूसरे अंचलों में भी समितियां बनने लगी, और थोड़े समय में ही इसके वृहद रूप को देखते हुए इसका नामकरण ‘उत्तरी छोटानागुपर वन-पर्यावरण सुरक्षा समिति’ कर दिया गया. दो-चार सालों में इसका दायरा दर्जनों अंचलों में हो गया और यह ‘केंद्रीय वन-पर्यावरण सुरक्षा सह प्रबंधन समिति’ के नाम से जाना जाने लगा. आज लगभग साढ़े चार सौ समितियां इससे जुड़ी हुई हैं. सैकड़ों जंगल फिर से लहलहा उठे हैं.

शुरू की पेड़ों में रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा

करीब 30 साल पहले पेड़ों में रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा भी इन्होंने शुरू की. इससे ग्रामीणों का एक भावनात्मक रिश्ता वनों से जोड़ने में मदद मिली, जो वनों की सुरक्षा सुरक्षा में काफी सहायक साबित हुआ. आज 40 साल बाद भी जगदीश महतो वन-पर्यावरण सुरक्षा अभियान से जुड़े हुए हैं.

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