रांची : जयपाल सिंह मुंडा. जिनके लिए हॉकी सिर्फ खेल नहीं, एक जुनून था. हाॅकी की खातिर उन्होंने आइसीएस की नौकरी छोड़ दी. देश के लिए खेला और हॉकी के जरिये विश्व स्तर में भारत का नाम रोशन किया. वहीं, जब वे संविधान सभा का हिस्सा बनें, तो आदिवासियों की आवाज मुखरता से उठाते रहे. संसद में आदिवासियों के हक की बात प्रमुखता से रखते रहे. उन्हें पूरे समाज की ओर से ‘मरांग गोमके’ की उपाधि दी गयी थी. इस शब्द का अर्थ है- सबसे बड़ा अगुआ. आदिवासी समाज के लिए संघर्ष और अपनी उपलब्धियों से समाज को गौरवान्वित करने के लिए उन्हें यह खिताब दिया गया.
जयपाल सिंह मुंडा एक ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने एक छोटे से आदिवासी गांव से निकल कर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से बीए, एमए और अर्थशास्त्र में पीएचडी किया. उन्होंने कांग्रेस की लोकप्रियता को चुनौती दी. संविधान सभा में डॉ राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे दिग्गजों के सामने मजबूती से आदिवासियों का पक्ष रखा.
वे मानते थे कि उन्हें अपने लिए नहीं, बल्कि उन लाखों आदिवासियों के लिए बोलना है, जो इस धरती के असली वारिस हैं. उन्होंने बार-बार प्रयास किया कि नया भारत, आदिवासियत का दर्शन स्वीकार करे. नया भारत आर्य-अनार्य की संघर्ष भूमि न बने. जल, जंगल, जमीन पर आदिवासियों के नैसर्गिक अधिकारों की बहाली के हर संभव प्रयत्न किये जायें. इसके लिए उन्होंने इसे मौलिक अधिकारों में शामिल करने की मांग भी की थी. इन सबके परिणामस्वरूप संविधान में आदिवासी अधिकारों को आंशिक ही सही, पर मान्यता मिली.
खूंटी जिले के एक सुदूरवर्ती गांव टकरा के एक मुंडा पाहन परिवार में जन्मे जयपाल सिंह मुंडा (परिवार द्वारा दिया नाम प्रमोद पाहन/ 03 जनवरी 1903- 20 मार्च 1970) आज भारतीय आदिवासियों और झारखंड आंदोलन के सबसे कद्दावार नेता माने जाते हैं. वे एक जाने-माने राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद् और अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी थे.
उनकी मेधा से प्रभावित संत पॉल स्कूल, रांची के प्राचार्य केनन क्रोसग्रेव उन्हें अपने साथ इंग्लैंड ले गये थे. वहां के संत अगस्तीन कॉलेज में इंटर किया. 1928 में उनका चयन इंडियन सिविल सर्विस (आइसीएस) के लिए हुआ था. जब वे आइसीएस में एक साल के प्रोबेशन पर थे, तभी उन्हें ओलिंपिक के लिए भारतीय हॉकी टीम का कप्तान बनाया गया, पर खेलने के लिए छुट्टी नहीं मिल रही थी. उन्हें इनमें से किसी एक को चुनना था.
ऐसे में उन्होंने अपने दिल की आवाज सुनी और आइसीएस की नौकरी छोड़ने का निर्णय लिया. उस टीम ने स्वर्ण पदक जीता. हालांकि, फाइनल के ठीक पहले उन्होंने टीम छोड़ दी थी, पर उनकी टीम ने भारत को सर्वोच्च शिखर पर ला दिया. बीबीसी के रेहान फजल की रिपोर्ट के अनुसार, प्रैक्टिस मैच में ही भारत की टीम ने इंग्लैंड को 4-0 से पराजित किया था.
इसके बाद यूरोप की चैंपियन, इंग्लैंड की टीम ने एम्सटर्डम ओलंपिक में हिस्सा न लेने का निर्णय लिया. इंग्लैंड किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपने ही उपनिवेश की टीम से फजीहत नहीं चाहता था. आइसीएस की नौकरी त्यागने के बाद जयपाल सिंह मुंडा ने कोलकाता में बर्मा शेल ऑयल कंपनी में काम किया. तब कंपनी उन्हें 750 पाउंड प्रतिमाह देती थी, जबकि भारत में आइसीएस को 450 पाउंड मिलते थे.
इसके बाद वे घाना (अफ्रीका) के अचिमोताे कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक बने, बीकानेर स्टेट के वित्त और विदेश मामलों के मंत्री रहे और राजकुमार कॉलेज रायपुर के पहले गैर ब्रिटिश, भारतीय प्राचार्य भी थे. उन्होंने बिहार की शिक्षा जगत में योगदान देने के लिए तत्कालीन बिहार कांग्रेस अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखा, पर उन्हें कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला था.
लंबे समय के बाद स्वदेश लौटे जयपाल सिंह मुंडा 1938 के आखिरी महीने में पटना और रांची आये थे. इसी दौरान आदिवासियों की खराब हालत देख कर उन्होंने राजनीति में आने का फैसला लिया. 1939 जनवरी में आदिवासी महासभा के अध्यक्ष बने, जिसने एक अलग झारखंड राज्य की मांग की थी. जब देश आजाद हुआ और इसके संविधान बनाने की बात आयी, तब जयपाल सिंह मुंडा भी संविधान सभा में शामिल थे. 389 सदस्यीय संविधान सभा में देश भर के आदिवासियों की बात रखने के लिए सिर्फ पांच आदिवासी थे. 1946 के चुनाव में आदिवासी महासभा को मिली जीत ने जयपाल सिंह मुंडा को इस सभा और अंतरिम संसद (प्रोविजनल पार्लियामेंट) में जगह दिलायी थी.
अश्विनी कुमार पंकज ने अपनी पुस्तक ‘मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंंडा’ में एक महत्वपूर्ण पहलू का उल्लेख किया है. वे लिखते हैं कि 1946-47 में जिन्ना की मुस्लिम लीग देश के अन्य अल्पसंख्यक समूहों के साथ संपर्क कर उन्हें साथ लेने की कोशिश कर रही थी.
झारखंड के मुस्लिम लीग के नेताओं ने जयपाल सिंह से आग्रह किया कि वे उनका साथ दें. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर चल रही लीग की गतिविधियों और जिन्ना के विचारों से उन्होंने समझ लिया कि मुस्लिम लीग भी मूल रूप से आदिवासी अस्मिता के साथ नहीं है. लिहाजा उन्होंने मुस्लिम लीग से अपना संबंध तोड़ लिया और सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया कि वे मुस्लिम लीग के पार्लियामेंट बॉयकॉट और अलग पाकिस्तान की मांग से सहमत नहीं हैं.
उन्होंने पांचवीं और छठी अनुसूची के तहत आदिवासियों के लिए बेहतर व्यवस्था, आदिवासी जमीन के संरक्षण को मौलिक अधिकार बनाने, अनुसूचित जनजाति की जगह आदिवासी शब्द के प्रयोग, आदिवासी के अनुसूचित क्षेत्र से बाहर निकलने पर भी उनके संवैधानिक अधिकार बरकरार रहने जैसे विषयों की पुरजोर वकालत की. झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों का बिहार, बंगाल और मध्य प्रदेश में विभाजित करने का भी विरोध किया था. आदिवासी संबंधी मामलों पर ऐसा कई बार हुआ, जब सदस्यों की जानकारी दिये बगैर और उसकी प्रति वितरित किये बगैर उसे संविधान सभा में स्वीकृति के लिए प्रस्तुत कर दिया गया. इन पर जयपाल सिंह मुंडा ने बार-बार आपत्ति जतायी थी.
दोनों आदिवासी अनुसूचियों पर उस दिन बहस करायी गयी, जिस दिन वे सभा में मौजूद नहीं थे. जयपाल सिंह बार-बार यह सवाल उठा रहे थे कि यदि अनुसूचित जनजाति का कोई व्यक्ति अनूसूचित या जनजातीय क्षेत्र से बाहर चला जाये, तो क्या उसके अधिकार वही रहेंगे, जो अनुसूचित या जनजातीय क्षेत्रों में प्राप्त थे? पर यह व्यवस्था बनायी गयी कि इस स्थिति में वे अपने अनूसचित जनजाति होने के संवैधानिक हक से वंचित हो जायेंगे.
जयपाल सिंह मुंडा ने कांग्रेस की लोकप्रियता को खासी चुनौती दी थी. झारखंड के जाने-माने साहित्यकार विनोद कुमार ने अपने लेख ‘जयपाल सिंह मुंडा के साथ इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया’ में कहा है कि वर्ष 1957 के चुनाव में जयपाल सिंह मुंडा की झारखंड पार्टी के 34 विधायक और पांच सांसद बने थे. लेकिन, 1962 के चुनाव में विधायकों की संख्या घट कर 22 हो गयी और सांसदों की संख्या भी घट कर चार रह गयी. इन 22 में से भी 12 विधायकों को कांग्रेस में शामिल हो गये थे.
जयपाल सिंह मुंडा ने अपनी आत्मकथा, ‘लो बिर सेंदरा’ में महात्मा गांधी के नाराज होने का वाक्या बयां किया है. उन्होंने लिखा है कि कांग्रेस पार्टी ने निर्णय लिया कि एआइसीसी का वार्षिक सम्मेलन रामगढ़ में होगा. इसमें महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, सरदार पटेल व अन्य की मौजूदगी से उनके (जयपाल सिंह मुंडा के) काम को नुकसान होगा. रामगढ़ के राजा ने सम्मेलन के लिए जमीन दी थी. इसी बीच सुभाष चंद्र बोस ने दो दिन पूर्व वहीं ‘एंटी काॅम्प्रोमाइज कांफ्रेस’ करने का निर्णय लिया और भीड़ जुटाने के लिए मदद मांगी. इस बात की जानकारी सर मॉरिस को मिल गयी और पुलिस मेरी तलाश करने लगी.
रांची-रामगढ़ रोड में 144 भी लगा दिया गया. इसी बीच महासचिव इग्नेस बेक ने सुझाया कि पिठोरिया के जंगलों से होते हुए रामगढ़ जा सकते हैं. मैंने वैसा ही किया और तीर-धनुष के साथ पांच हजार आदिवासियों ने इस कार्यक्रम में हिस्सा लिया. सम्मेलन सफल रहा. इसके दो दिन बाद कांग्रेस का सत्र शुरू हुआ. महात्मा गांधी रांची आये और इसके विरोध में मैंने हड़ताल बुलायी. सभी दुकानें बंद रहीं. महात्मा गांधी के जयकारे के लिए कोई भीड़ नहीं थी. उन्होंने मुझे कभी माफ नहीं किया. जैसे ही स्वागत कमेटी के अध्यक्ष के रूप में ‘राजेन बाबू’ ने अपना संबोधन समाप्त किया था, जोरदार बारिश होने लगी और वह सम्मेलन ‘धुल गया’.
प्रसार भारती की सेंट्रल आर्काइव के अनुसार, 11 दिसंबर 1946 को जयपाल सिंह मुंडा ने कांस्टीट्यूएंट एसेंबली में कहा था : मैं डॉ राजेंद्र प्रसाद को इस संविधान सभा के आदिवासी प्रतिनिधियों की ओर से धन्यवाद देते हुए कहना चाहता हूं कि जितना मैं गिन पाया हूं, हम सिर्फ पांच ही हैं. हम लाखों-लाख हैं और हम भारत के वास्तविक मालिक हैं. हाल के दिनों में भारत छोड़ो पर बातें हो रही हैं. मैं मानता हूं कि यह एक सिर्फ एक पायदान है, जाे भारत के असली लोगों के पुनर्वास और पुनर्स्थापन के लिए है. अंग्रेजों को जाने दें, उसके बाद में आनेवाले बाहरी लोगों को, घुसपैठियों को जाने दें. इसके बाद सिर्फ वे ही बचेंगे, जो इस देश के आदिवासी हैं.
पूरे भारत में जनजातीय आबादी के विस्तार को देखें. नवीनतम आंकड़ा 254 लाख का है, जिसे मैं मान लेता हूं. अब इसमें हम पाते हैं कि भारत में सबसे बड़ा आदिवासी समूह मुंडा भाषी जनजाति है. यदि उनके 1941 के आंकड़े जोड़ दें, तो पायेंगे कि वे 43 लाख के बराबर हैं. इसके बाद गोंड हैं, जिसका हमें एक प्रतिनिधि दिया गया है. इसकी मुझे खुशी है. फिर भील हैं, जो 23 लाख हैं, पर इस समिति में कोई भील सदस्य नहीं है. इसके साथ 11 लाख की आबादी के साथ उरांव भी हैं, लेकिन इस समिति में एक भी उरांव नहीं है. अध्यक्ष महोदय, समय कीमती है. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहीं और कहा था कि हम लोगों के हर दिन की कीमत 10,000 रुपये है. मुझे लगता है कि 250 लाख आदिवासियों का जीवन एक दिन के 10,000 रुपये से कहीं अधिक मूल्य का है.
यह एक अवसर है जहां मुझे अपनी बात रखनी चाहिए. मैं यह भी देख रहा हूं कि कतिपय कारणों से मूल अधिकार समिति में भी कोई आदिवासी सदस्य नहीं है.
24 जनवरी 1947 को उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत संकल्प को समर्थन दिया और कहा (इंडियन हिस्ट्री कलेक्टिव): एक जंगली और एक आदिवासी होने के नाते मुझसे अपेक्षित नहीं है कि इस संकल्प की जटिलताओं को समझूं. लेकिन, हमारे समुदाय का नैसर्गिक ज्ञान कहता है कि हममें से हरेक को आजादी के संघर्ष की राह में एक साथ चलना और लड़ना है. मैं सभा से कहना चाहूंगा कि अगर देश में कोई सबसे ज्यादा दुर्व्यवहार का शिकार हुआ है, तो वे हमारे लोग हैं.
पिछले छह हजार सालों में उनकी उपेक्षा हुई है और उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया है. मैं जिस सिंधु घाटी सभ्यता का वंशज हूं, उसका इतिहास बताता है कि आप में से अधिकांश, जो यहां बैठे हैं, बाहरी हैं, घुसपैठिये हैं, जिनके कारण हमारे लोगों को अपनी धरती छोड़ कर जंगलों में जाना पड़ा. इसलिए यहां जो संकल्प पेश किया गया है, वह आदिवासियों को लोकतंत्र नहीं सिखाने जा रहा. आप सब आदिवासियों को लोकतंत्र सिखा ही नहीं सकते, बल्कि आपको ही उनसे लोकतंत्र सीखना है.
वे धरती पर सबसे अधिक लोकतांत्रिक लोग हैं. आदिवासियों का संबंध आर्यों से भिन्न समूह से है और इसके लोग भारत के दक्षिण-पूर्व की ओर अनेक द्वीपों में बहुत दूर तक फैले हुए हैं. इन भागों में उनकी प्राचीन संस्कृति काफी हद तक संरक्षित है. शायद किसी और जगह की तुलना में कहीं अधिक.
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने सिंधु घाटी सभ्यता और बाद की सदियों की बात करते हुए अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी आॅफ इंडिया (भारत एक खोज)’ में इस विषय को बहुत अच्छी तरह से रखा है. क्या मैं दोहरा सकता हूं कि यह इंडो-आर्यन भीड़ का आगमन है, जो लोकतंत्र के उसके अवशेषों को नष्ट कर रहा है. आगे भी अनेक आदिवासी गणराज्य, गणतंत्र होंगे जो भारतीय स्वाधीनता संग्राम की अगुवाई में होंगे. मैं प्रस्ताव का तहे दिल से समर्थन करता हूं और आशा करता हूं कि जो सदस्य अभी बाहर हैं, उनका अपने साथी देशवासियों पर समान विश्वास होगा. आइये, हम सब मिल कर आजादी की लड़ाई लड़ें, एक साथ बैठें और एक साथ काम करें. तभी हमें वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त होगी.
Posted By : Sameer Oraon