Exclusive: डीसी हो या वीसी, कोई झारखंड का भला नहीं चाहते, मिटा रहे हैं पहचान : जयराम महतो

प्रभात संवाद में सवालों का जवाब देने के लिए जयराम महतो मौजूद थे. उन्होंने स्थानीय और नियोजन नीति से लेकर अपने राजनीतिक उद्देश्यों तक पर बातें की. राज्य में भाषा-संस्कृति नष्ट होने का सबसे बड़ा कारण जयराम अफसरशाही को मानते हैं.

By Prabhat Khabar News Desk | June 13, 2023 6:52 AM

जयराम महतो राज्य में नियोजन की स्पष्ट नीति बनाने की मांग करते हैं. उनका साफ मानना है कि राज्य में भाषा-संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश हो रही है. वह अफसरशाही को बड़ा रोड़ा मानते हैं. जयराम का कहना है कि यहां के लोगों को उनका अधिकार देने से कोई संविधान नहीं रोक रहा है. रोटी और रोजगार के लिए यहां के युवा संघर्ष कर रहे हैं. बिहार-बंगाल के छात्रों से हम मुकाबला नहीं कर सकते हैं, हमें संरक्षण चाहिए. इस बार प्रभात संवाद में सवालों का जवाब देने के लिए जयराम महतो मौजूद थे. उन्होंने स्थानीय और नियोजन नीति से लेकर अपने राजनीतिक उद्देश्यों तक पर बातें की.

जयराम महतो कौन हैं. छात्र नेता, एक्टिविस्ट या भावी राजनेता?

अब तक तो छात्र नेता ही हूं. पीएचडी की पढ़ाई चल रही है. कोयलांचल विवि का छात्र हूं.

1932 के खतियान की लड़ाई पिछले दो दशक से अनसुलझी पहेली है. आप इस पूरे मुद्दे का क्या भविष्य देखते हैं?

भारत विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों वाले राज्यों का समूह है. 1953 में देश में पहली बार भाषा के आधार पर तमिल भाषा से हटकर तेलुगु भाषी राज्य का गठन हुआ. सभी राज्यों की पहचान भाषा व जमीन के रिकॉर्ड के आधार पर है. झारखंड में भी सर्वे सेटलमेंट को स्थानीयता का आधार माना जा सकता है. मूलवासियों के पास इस भूभाग को छोड़कर कहीं दूसरा ठिकाना नहीं है. बाद में आकर बसने वालों को झारखंड की परंपरा और संस्कृति को स्वीकारना पड़ेगा.

अब आप एक नयी पार्टी बनाने की बात कर रहे हैं. मूलवासी के भावनात्मक मुद्दे के सहारे अपना राजनीतिक भविष्य कहां तक देखते हैं?

हमने संभावना जतायी है. धनबाद-बोकारो में केवल 50 लोगों से आंदोलन शुरू हुआ था. हमने सोचा भी नहीं था कि यह आंदोलन पांच करोड़ लोगों तक जा पहुंचेगा. झारखंड के बाहर भी आंदोलन की चर्चा होगी. इसके बाद भी अगर सरकार बैकफुट पर नहीं आती है, तो हमारी प्राथमिकता इस भीड़ को वोट में बदलने की होगी.

1932 के खतियान का मामला हो या राजनीतिक अभियान चलाने का, संगठन को फंड चाहिए, आपको कौन फंडिंग करता है?

अभी तक तो मानव शृंखला व जनसभाओं से हम चर्चा में आये हैं. जहां सभा होती है, वहां के लोग पंडाल और साउंड सिस्टम का खर्च उठाते हैं. खाने-पीने का इश्यू नहीं है. पेट्रोल में थोड़ी दिक्कत होती है. लेकिन, जहां सभा होती है, वहां के ग्रामीण चंदा कर पेट्रोल का खर्चा देते हैं. हमारे पास फंड नहीं है. इसलिए, आने वाले चुनाव में हम लोगों से वोट के अलावा नोट भी मांगेंगे.

1932 आधारित नियोजन नीति झामुमो का कोर एजेंडा रहा है. राज्य सरकार ने केंद्र से नौवीं अनुसूची में डालने का आग्रह किया है. इस पूरे प्रकरण पर क्या कहेंगे?

आज झामुमो के खिलाफ आंदोलन का एकमात्र कारण उनके मैनिफेस्टो में 1932 का होना है. झामुमो की सरकार सत्ता में भी 1932 के कारण आयी थी. उससे पूर्व की सरकार ने बहाली में बाहरी लोगों के लिए दरवाजा खोल दिया था. तत्कालीन शिक्षा मंत्री नीरा यादव ने तो दूसरे राज्यों के लोगों को झारखंड में नौकरी करने से नहीं रोक पाने की बात तक कह दी थी. इसी आक्रोश के कारण राज्य के लोगों ने झामुमो की सरकार बनायी थी. अब लोग तीसरे विकल्प की चर्चा कर रहे हैं.

1932 आधारित नियोजन नीति क्या वैधानिक और संवैधानिक रूप से जायज है?

1946 के आसपास सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कहा था कि भाषा के आधार पर राज्यों का गठन नहीं होना चाहिए. लेकिन, दो साल बाद सरदार पटेल ने अपने ही बयान में संशोधन किया. कहा कि बड़े समूह की मांग होने पर उसे मान लेना चाहिए. इसी क्रम में अगर झारखंड के जनमानस की भावना 1932 है, तो इसकी समीक्षा होनी चाहिए.

आप अपनी राजनीतिक जमीन कहां तलाश रहे हैं, मतलब कहां से चुनाव लड़ेंगे?

अभी तक तो तय नहीं किया है. हमारा बैकग्राउंड काफी गरीब परिवार से रहा है. मेरा कोई राजनीतिक बैकग्राउंड नहीं है. अभी के चुनाव को देख लीजिए, कितना पैसा बहाया जाता है. इसी को देखकर डर लगता है. लेकिन आज जनता हमारी एक आवाज पर सड़कों पर उतर रही हैं. औरतें-बहनें लाठी खाने को तैयार हैं. उन लोगों को देखकर लगता है कि हमारे लिए इतना करने वाली जनता की आवाज बनना ही पड़ेगा. अब चुनाव डुमरी से लडूंगा या टुंडी से, यह वहां की जनता तय करेंगी. मैं थोपा हुआ लीडर नहीं बनना चाहता.

सरकार ने नियुक्ति का दरवाजा खोला है. 60-40 नाय चलतो कैंपेन चल रहा है. इस नीति से क्या परेशानी है?

अभी सहायक अभियंता की बहाली हुई है. इसमें ओपेन टू ऑल में 93% अन्य राज्यों के अभ्यर्थी हैं. पब्लिक प्रोसिक्यूटर की बहाली में भी 90% बाहरी हैं. शिक्षक बहाली में भी 1400 के आसपास दूसरे राज्यों के लोग हैं. अभी शिक्षक बहाली की तैयारी चल रही है. इसकी कोचिंग दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद और पटना में करायी जा रही है. हमारे यहां बीएड करके बैठे युवा घर-गृहस्थी देख रहे हैं. मजदूरी कर रहे हैं. ऐसे हालात में वह दिल्ली व पटना में कोचिंग करनेवालों से मुकाबला कर ही नहीं सकते हैं.

राज्य सरकार का कहना है कि आप जैसे लोग राज्य में नियुक्तियों के बाधक हैं?

यह राज्य सरकार की गलतफहमी है. अगर राज्य सरकार यहां के लोगों के लिए गंभीर होती, तो शिक्षक बहाली में 1400 लोग बाहर से आकर कैसे यहां नौकरी ले लेते.

झामुमो में लोबिन हेंब्रम सहित कई लोग 1932 के पैरोकार हैं, उनको अपने साथ कैसे जोड़ेंगे?

लोबिन जी से लगातार बात होती है. चाहे 1932 का मामला हो या यहां के लोगों को रोजगार देने का मामला, हर चीज में उनका आशीर्वाद व सुझाव लेता हूं. कई नेताओं से भी बातचीत होती रहती है. 2024 के चुनाव में परिदृश्य बदला हुआ नजर आयेगा.

पूर्व विधायक गीताश्री उरांव और अमित महतो जैसे कई नेता 1932 खतियान के नाम पर अभियान चला रहे हैं. सबको एक मंच पर कैसे लायेंगे?

हम लोगों का प्रयास होगा कि सबका मार्गदर्शन मिले. आज हमसे कई नेता संपर्क में हैं. लेकिन, हमारे साथ सभी नये लोग ही जुड़े हैं. इनके साथ उनका कॉम्बिनेशन कैसे होगा. मान लीजिए मैं पार्टी बना लेता हूं. तब बाबूलाल मरांडी का वह दिन याद कर करिये, जब 13 विधायक जीतने के बाद भी वह शून्य पर पहुंच गये. मेरे साथ ऐसी परिस्थिति होने पर नयी पीढ़ी मुझ पर दोष मढ़ेगी.

झारखंड में चमरा लिंडा जैसे नेताओं ने संगठन बनाकर लोगों को गोलबंद करने का प्रयास किया, लेकिन राजनीतिक पार्टियों में ही ठौर तलाशना पड़ा, आज झामुमो में हैं. आप भविष्य में किस दल में जा सकते हैं?

किसी राजनीतिक दल में जाने पर बिहार के कन्हैया व गुजरात के हार्दिक पटेल की कहानी हो जायेगी. हम अकेले चलेंगे. अगर राजनीतिक सफलता नहीं मिली, तो भी लोगों का विश्वास बना रहेगा. जनता के विश्वास के साथ गद्दारी नहीं करेंगे. आज इस राज्य को ऐसे नेता की जरूरत नहीं है, जो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए किसी भी दल का त्याग कर किसी भी दल में चला जाये.

कुड़मी आदिवासी का दर्जा हासिल करने के लिए आंदोलनरत हैं. आपकी क्या राय है?

हम लोग 1932 के आंदोलन को लेकर आगे आये हैं. राज्य का हाल कैसे बेहतर हो, इस दिशा में काम कर रहे हैं. जहां तक कुड़मी आंदोलन की बात है, तो यह मेरे जन्म के पहले से चल रहा है. फिलहाल, हमारा पूरा ध्यान इस राज्य की जंग लगी व्यवस्था को दुरुस्त करने की है.

छात्र नेता जयराम महतो कहते हैं कि राज्य के युवा झारखंडियों का अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. हेमंत सरकार का 60-40 फार्मूला किसी भी हाल में स्वीकार नहीं है. राज्य सरकार की नौकरियों में बिहार-बंगाल के लोगों का कोई अधिकार नहीं है. . झारखंड के जंगल में रहने वाले लोगों का उनसे कोई मुकाबला ही नहीं है. झारखंड के युवा केवल संरक्षण मांग रहे हैं. खुद को हाशिये पर जाने, पतन से रोकने और नस्ल बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. किसी भी समाज को नष्ट करने के लिए वहां की भाषा, संस्कृति और साहित्य को समाप्त करना काफी है.

श्री महतो ने कहा कि उदाहरण के ताैर पर बिनोद बिहारी विवि में खोरठा, कुड़माली, संथाली को शामिल करने के लिए आंदोलन चल रहा है. लेकिन, ओडिशा निवासी वीसी ने ओड़िया को शामिल कर दिया है. आज यहां केे अफसरों की मंशा ही झारखंड की पहचान खत्म करने की है. झारखंड के लोगों को शुरू से ही आदमी नहीं, बल्कि जानवर समझा जाता है. जादूगोड़ा में यूरेनियम रेडिएशन के कारण 47 प्रतिशत महिलाएं गंभीर समस्या से जूझ रही हैं. रामगढ़ में एक कंपनी के फैलाये प्रदूषण से आठ साल का बच्चा मर रहा है. बेरमो में 999 साल की लीज पर कोयला कंपनियों को जमीन दी जा रही है. दरअसल, नेता, अधिकार, सब झारखंड के लोगों को पशु समझते हैं. वैसा ही व्यवहार करते हैं.

जयराम ने कहा कि राज्य की स्थिति और परिस्थिति के मुताबिक स्थानीय को आरक्षण मिलना ही चाहिए. भारत का संंविधान लचीला है. इसकी आड़ में झारखंडियों के अधिकार पर अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है. उनकी रोटी और रोजगार नहीं छीनी जा सकती है. इसी रोटी-रोजगार की वजह से लोग आंदोलन कर रहे हैं. अधिकारियों की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए कहा कि कोई भी डीसी या वीसी झारखंड का भला नहीं चाहता. यही आइएएस और आइपीएस दूसरे राज्य में निष्ठा के साथ काम करते हैं, लेकिन झारखंड में मनमानी करने लगते हैं.

नियोजन नीति पर श्री महतो ने कहा कि सरकार को पहले स्थानीयता परिभाषित करना चाहिए. झारखंड के लोग कौन हैं, यह बताने के लिए एक ऐसी नीति तो बनानी ही पड़ेगी. जब महाराष्ट्र में मराठी, गुजरात में गुजराती के लिए मापदंड निर्धारित है, तो झारखंड में झारखंडी की परिभाषा भी तय होनी चाहिए. सरकार को ठोस कदम उठाना चाहिए. बिहार-बंगाल समेत विभिन्न राज्यों में तीसरे और चौथे वर्ग की बहाली के लिए निकाले जाने वाले विज्ञापन पर भारत का नागरिक होने के साथ वहां के स्थानीय होने की शर्त रहती है. लेकिन, झारखंड की रिक्तियों में केवल भारत के निवासी होने की बात लिखी रहती है. इसमें झारखंड का स्थानीय निवासी होने का भी कॉलम अनिवार्य रूप से होना चाहिए.

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