झारखंड विधानसभा नियुक्ति गड़बड़ी : जस्टिस विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की रिपोर्ट कभी रखी ही नहीं गयी
सरकार ने ऐसा किये बिना ही सेवानिवृत न्यायाधीश एसजे मुखोपाध्याय की अध्यक्षता में दूसरे आयोग का गठन कर दिया. इससे संबंधित अधिसूचना 21 सितंबर 2022 को जारी की गयी.
शकील अख्तर/आनंद मोहन, रांची :
झारखंड सरकार ने जस्टिस विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की रिपोर्ट को विधानसभा में कभी पेश ही नहीं किया. कानून के जानकार मानते हैं कि आयोग की रिपोर्ट को विधानसभा के पटल पर नहीं रखना कमीशन ऑफ इंक्वायरी एक्ट 1952 में निहित प्रावधानों का उल्लंघन है. सरकार ने जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय आयोग की रिपोर्ट सदन में पेश करने से पहले कैबिनेट की मंज़ूरी ली. हालांकि प्रेस ब्रिफिंग के दौरान इसकी जानकारी नहीं दी. कमीशन ऑफ इंक्वायरी एक्ट 1952 में जांच आयोग की रिपोर्ट सदन के पटल पर रखे जाने का प्रावधान किया गया है. अधिनियम की धारा तीन की उपधारा चार में इसका प्रावधान है. इसमें कहा गया है कि आयोग द्वारा अपनी जांच रिपोर्ट समर्पित किये जाने के छह महीने के अंदर सरकार एक्शन टेकन रिपोर्ट के साथ इसे विधानसभा में पेश करेगी. पर विक्रमादित्य प्रसाद आयोग के मामले में ऐसा हुआ नहीं.
सरकार ने ऐसा किये बिना ही सेवानिवृत न्यायाधीश एसजे मुखोपाध्याय की अध्यक्षता में दूसरे आयोग का गठन कर दिया. इससे संबंधित अधिसूचना 21 सितंबर 2022 को जारी की गयी. जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय आयोग के काम का दायरा सीमित रखा. सरकार ने एसजे मुखोपाध्याय आयोग को विक्रमादित्य आयोग की अनुशंसा और तथ्यों से पैदा हुई कानूनी पेचीदगियों से संबंधित समाधान पर सुझाव देने की ज़िम्मेवारी दी. इसी के मद्देनजर एसजे मुखोपाध्याय आयोग ने विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की रिपोर्ट को सरकार द्वारा स्वीकार नहीं करने का सुझाव दिया. विक्रमादित्य आयोग के गठन से संबंधित अधिसूचना में जांच के लिए 29 बिंदु ही शामिल किये गये थे. इन बिंदुओं की जांच में मिले तथ्यों के आधार पर विक्रमादित्य आयोग ने तत्कालीन अध्यक्षों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई करने की अनुशंसा की थी. एसजे मुखोपाध्याय आयोग ने तत्कालीन अध्यक्षों के खिलाफ की गयी इस अनुशंसा को विक्रमादित्य आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर करार दिया और सरकार द्वारा इसे स्वीकार नहीं करने की राय दी.
तीन आयोग बन चुके हैं :
सरकार द्वारा विधानसभा में हुई नियुक्ति-प्रोन्नति में अनियमितताओं के आरोपों की जांच के लिए अब तक तीन आयोगों (एक सदस्यीय) का गठन किया जा चुका है. सरकार ने 10 मई, 2013 को सेवानिवृत न्यायाधीश लोकनाथ प्रसाद की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन किया था. आयोग ने अपना काम शुरू तो किया, लेकिन जांच पूरी किये बिना ही अध्यक्ष ने त्यागपत्र दे दिया था. अक्तूबर 2013 में त्यागपत्र देने से पहले न्यायाधीश लोकनाथ प्रसाद ने अगस्त 2013 को सरकार को एक पत्र लिखा था. उन्होंने जांच में विधानसभा सचिवालय द्वारा अपनाये जा रहे असहयोगात्मक रवैये का उल्लेख किया था. इसके बाद सरकार ने 2015 में आरोपों की जांच के लिए सेवानिवृत्ति न्यायाधीश विक्रमादित्य प्रसाद की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयाेग का गठन किया. इस आयोग को लोकनाथ प्रसाद आयोग के मुकाबले अधिक शक्तियां दी गयी थीं.
कमीशन ऑफ इंक्वायरी एक्ट, 1852 में है इसका प्रावधान, विधानसभा के पटल पर नहीं रखा जाना कानून का उल्लंघन
विधानसभा नियुक्ति गड़बड़ी
जांच के बिंदु : क्या विधानसभा में की गयी नियुक्तियां और प्रोन्नतियां राज्य के विभाजन के बाद कर्मचारियों के आदान प्रदान के अनुरूप थी?
विक्रमादित्य आयोग की राय : तत्कालीन अध्यक्ष मृगेंद्र प्रताप सिंह के समय प्रोन्नति दी गयी थी. दूसरी बार प्रोन्नति देते समय इस बात पर विचार नहीं किया गया कि प्रोन्नति से भरे जानेवाले पद रिक्त हैं या नहीं. इसके बावजूद प्रशासनिक जरूरतों के नाम पर प्रोन्नति दी गयी. इससे विसंगति पैदा हुई. सीधी नियुक्ति से भरे जानेवाले पदों को प्रोन्नति से नहीं भरा जा सकता है.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : विक्रमादित्य आयोग की रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख नहीं किया गया है कि सीधी नियुक्ति से भरने और प्रोन्नति से भरने के लिए कितने पद थे. इसलिए इस बिंदु पर की गयी अनुशंसा को स्वीकार नहीं किया जा सकता है.
जांच के बिंदु : क्या नियुक्ति की कार्रवाई बिना पद रहे शुरू कर दी गयी थी? क्या पद के उपलब्ध हुए बिना ही रिजल्ट घोषित कर दिया गया?
विक्रमादित्य आयोग की राय : सीधी नियुक्ति से भरे जाने के लिए पद नहीं रहने के बावजूद नियुक्तियां की गयी. अर्थात नियुक्ति की कार्रवाई शुरू करने और रिज़ल्ट प्रकाशित करने के समय तक पद उपलब्ध नहीं थे.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : इस बिंदु पर विक्रमादित्य आयोग की राय सचिव द्वारा तैयार की गयी रिपोर्ट से प्रभावित है. सचिव ने नियुक्तियों की वैधता का मूल्यांकन कर अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. इंक्वायरी कमीशन अधिनियम, 1952 में सचिव को इस बिंदु पर मूल्यांकन कर राय देने का अधिकार नहीं है. इसलिए सरकार को विक्रमादित्य आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार नहीं करना चाहिए.
जांच के बिंदु : क्या नियुक्तियों व प्रोन्नतियों में पिक एड चूज (pick and choose) की प्रक्रिया अपनायी गयी थी?
विक्रमादित्य आयोग की राय : नियुक्ति और प्रोन्नित में पिक एंड चूज की प्रक्रिया अपनायी गयी थी.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : विक्रमादित्य आयोग की रिपोर्ट में इस बात का स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि किस व्यक्ति की नियुक्ति और प्रोन्नति में पिक एंड चूक किया गया है. किसे, उससे सीनियर व्यक्ति को नजरअंदाज कर प्रोन्नति दी गयी है, इसका जिक्र नहीं है. इसलिए विक्रमादित्य आयोग की अनुशंसाओं को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.
जांच के बिंदु : क्या छह मई, 2006 को सीमित परीक्षा के लिए प्रकाशित नोटिस में छह महीने की सेवा अवधि वाले कर्मचारियों से आवेदन मांगे गये थे? क्या यह विधानसभा सचिवालय के नियम छह के विपरीत था?
विक्रमादित्य आयोग की राय : विधानसभा द्वारा यह स्वीकार किया जा चुका है कि छह माह की सेवा अवधि वाले कर्मचारियों से भी प्रोन्नति के लिए आवेदन मांगे गये थे. विधानसभा द्वारा इस बात को स्वीकार करने की वजह से इस बिंदु की आगे जांच की जरूरत नहीं है.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : विधानसभा सचिवालय भर्ती सेवा शर्त नियमावली 2003 के नियम छह में दो साल की सेवा पूरा करने के बाद सेवा संपुष्ट करने का प्रावधान है. साथ ही अध्यक्ष को इस अवधि में छूट देने का अधिकार है. विक्रमादित्य प्रसाद आयोग के समक्ष विधानसभा के अधिकारी ने सेवा संपुष्ट होने के बाद प्रोन्नति के लिए योग्य होने और छह महीने की सेवा पूरी करने वाले कर्मचारियों से प्रोन्नति के लिए आवेदन मांगे जाने की बात स्वीकार की है, लेकिन रिकार्ड में इस बात का उल्लेख नहीं है कि छह महीने की सेवा पूरी करने वाले चतुर्थ वर्ग के किस कर्मचारी से प्रोन्नति के लिए आवेदन लिया गया. इसलिए सरकार द्वारा विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की अनुशंसाओं को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.
जांच के बिंदु : क्या सीमित परीक्षा के पूर्व तृतीय वर्ग के पदों में प्रोन्नति द्वारा नियुक्ति का अनुपात निर्धारित किया गया था ? अगर ऐसा नहीं था तो विपत्र लिपिक के 15, चर्या लिपिक के सभी 23 पद, टाइपिस्ट के 19 पद एवं असिस्टेंट एडिटर के सभी दो पदों को प्रोन्नति से कैसे भर लिया गया.
विक्रमादित्य आयोग की राय : इन सभी पदों को 50:50 के अनुपात में सीमित परीक्षा और प्रोन्नति से भरने का नियम था. बाद में नियम संशोधित कर सीमित परीक्षा का कोटा 50 प्रतिशत से घटा कर 20 प्रतिशत कर दिया गया. तत्कालीन अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी और मृगेंद्र प्रताप सिंह के कार्यकाल में सीमित परीक्षा के माध्यम से 50 प्रतिशत पदों को भर दिया गया. इसके बाद सीमित परीक्षा के भरे जाने वाले पदों का प्रतिशत 50 से घटा कर 20 कर दिया गया. ऐसा छह मई 2006 को हुई सीमित परीक्षा के पहले किया गया. ऐसी परिस्थिति में सीमित परीक्षा से भरे जाने के लिए कोई पद नहीं बचा. इसलिए सीमित परीक्षा के माध्यम से दी गयी पदोन्नति नियम विरुद्ध है.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : विक्रमादित्य आयोग की राय कानून की सही व्याख्या पर आधारित नहीं है. उन्होंने पदों को भरे जाने की गणना 50:50 के अनुपात के आधार पर की है. राज्य सरकार द्वारा इसे नहीं स्वीकार किया जाना चाहिए. क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 187(3) के तहत बनाये गये नियम को हाइकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के अलावा किसी को गलत करार देने का वैधानिक अधिकार नहीं है. इंक्वायरी कमीशन एक्ट के तहत बने आयोग को भी इसका अधिकार नहीं है.
जांच के बिंदु : विधानसभा सचिवालय के ज्ञापांक 1019 दिनांक 5-6-2006 द्वारा कम टाइपिंग स्पीड वाले व्यक्तियों को दी गयी प्रोन्नति का औचित्य और वैधानिक आधार क्या था?
विक्रमादित्य आयोग की राय : विधानसभा ने टाइपिस्ट की कमी के नाम पर चतुर्थ वर्ग में नियुक्त अनुसेवकों को टाइपिस्ट के पद पर प्रोन्नति दी थी, लेकिन उनके पास इस पद के लिए निर्धारित टाइपिंग स्पीड नहीं थी. उन्हें इस शर्त के साथ प्रोन्नति दी गयी थी कि वे बाद में टाइपिंग स्पीड हासिल कर लें. किसी पद पर नियुक्ति के बाद उस पद के योग्य बनने का कोई नियम नहीं है.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : बिना टाइपिस्ट या कर्मचारी के कोई संस्थान नहीं चल सकता है. राज्य के विभाजन के बाद कई संस्थान जरूरत के मुकाबले कर्मचारियों की कमी का सामना कर रहे थे. ऐसी परिस्थिति में जरूरतों को देखते हुए टाइपिस्ट जैसे तकनीकी पद पर निर्धारित समय सीमा में टाइपिंग स्पीड हासिल कर लेने की शर्त के साथ प्रोन्नित को स्वीकार किया जाना चाहिए. इसलिए विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. :
जांच के बिंदु : क्या निरसा के तत्कालीन विधायक अपर्णा देवी के भाई पार्थसारथी ने ड्राइवर के पद पर नियुक्ति के लिए निकाले गये विज्ञापन आलोक में निर्धारित तिथि के बाद आवेदन दिया था. अगर बाद में आवेदन जमा किया, तो किस आधार पर इंटरव्यू में बुलाया गया ?
विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की राय : ड्राइवर की नियुक्ति के लिए आवेदन जमा करने की अंतिम तिथि 23 जनवरी, 2007 निर्धारित थी. पार्थसारथी के आवेदन में उम्र का कॉलम खाली था. आवेदन भरने की तिथि अंकित नहीं थी. आवेदन के साथ देवघर इंप्लायमेंट एक्सचेंज का प्रमाण पत्र संलग्न था. आवेदन पत्र एक फरवरी, 2007 को जारी किया गया था. इससे यह पता चलता है कि आवेदन निर्धारित तिथि के बाद जमा किया गया था. वह पूर्व विधायक अपर्णा सेनगुप्ता के भाई हैं. किसी से संबंधित होने की वजह से किसी को इंटरव्यू में नहीं बुलाने का कोई नियम नहीं है. समय के बाद आवेदन जमा करने की वजह से उन्हें इंटरव्यू में नहीं बुलाया जाना चाहिए था.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : झारखंड राज्य के गठन के बाद अनीस और शिव बालक नामक दो ड्राइवरों की सेवा झारखंड विधानसभा को दी गयी थी. राज्य के विधायकों को ड्राइवरों की जरूरत थी. विक्रमादित्य आयोग ने इस आवश्यकता पर ध्यान नहीं दिया है. पार्थसारथी की नियुक्ति अनियमित हो सकती है, लेकिन अवैध नहीं है. इसलिए विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की अनुशंसा को स्वीकार नहीं करना चाहिए.
जांच के बिंदु : क्या इंदर सिंह नामधारी के कार्यकाल में प्रतिवेदक (Reporter) के 23 पदों के मुकाबले 30 व्यक्तियों की नियुक्ति की गयी थी ? क्या आशुलिपिक की जांच में इनकी गति 150-180 शब्द प्रति मिनट से ज्यादा थी? क्या मुख्य प्रतिवेदक मोहम्मद मुश्ताक ने 9-11-2006 के दौरे के क्रम में सचिव को यह लिखा था कि नव नियुक्त रिपोर्टर काम करने में सक्षम नहीं हैं?
विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की राय : रिपोर्टर के 23 पदों के मुकाबले 30 व्यक्तियों की नियुक्ति की गयी थी. यह नियमावली के प्रावधानों के विरुद्ध थी. रिपोर्टर के पद पर नियुक्ति के लिए शॉर्टहैंड में 150-180 शब्द प्रति मिनट लिखने की गति सीमा निर्धारित थी, लेकिन कम गति वाले लोगों को नियुक्त किया गया. मुख्य प्रतिवेदक ने यह लिखा था कि वीरेंद्र कुमार को छोड़ कर शेष प्रतिवेदक काम करने के योग्य नहीं थे.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : विक्रमादित्य प्रसाद आयोग ने यह स्वीकार किया है कि परीक्षा के बाद रिपोर्टर के पद पर नियुक्ति के लिए 30 लोगों का मेरिट लिस्ट बना था. इसमें से 20 को पहले नियुक्त किया गया. बाद में 10 पदों का सृजन किया गया और वेटिंग लिस्ट में शामिल 10 लोगों को नियुक्त किया गया. इस तरह नियुक्ति में नियमों का पालन किया गया. इसलिए इसे अवैध या अनियमित नहीं कहा जा सकता है. सिर्फ मुख्य प्रतिवेदक की रिपोर्ट के आधार पर सभी को अयोग्य नहीं करार दिया जा सकता है. विक्रमादित्य आयोग का गठन 2015 में किया गया. उस वक्त तक रिपोर्टर के पद पर नियुक्त लोग आठ साल तक काम कर चुके थे और दक्ष हो चुके थे.
जांच के बिंदु : क्या 20-10-2003 के नियुक्ति से संबंधित विज्ञापन में पदों का उल्लेख नहीं किया गया था ? क्या बिना पदों की संख्या के जारी किया गया विज्ञापन वैध था?
विक्रमादित्य आयोग की राय : 20-10-2003 को कोई विज्ञापन प्रकाशित नहीं हुआ था. 19-12-2003 और 20-12-2033 को विज्ञापन प्रकाशित हुआ था. विधानसभा ने आयोग के दिये गये जवाब में यह स्वीकार किया है कि पदों की संख्या के बिना विज्ञापन प्रकाशित किया गया था. विधानसभा द्वारा प्रकाशित यह विज्ञापन संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रावधानों का उल्लंघन है.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : राज्य के विभाजन के बाद विधानसभा का कॉडर विभाजन 14-8-2004 को हुआ था. कॉडर विभाजन के बाद सहायक, अनुसेवक और ड्राइवर की सेवा झारखंड विधानसभा को दी गयी. इसलिए विज्ञापन प्रकाशन की तिथि तक यह पता नहीं था कि झारखंड विधानसभा को कितने कर्मचारी मिलेंगे. कानून में ऐसा कोई विशिष्ठ प्रावधान नहीं है कि बिना पदों की संख्या के प्रकाशित विज्ञापन को गैरकानूनी माना जाये.
जांच के बिंदु : क्या 15 फरवरी से, 27 जुलाई तक चले इंटरव्यू का नंबर नवंबर 2004 तक नहीं सौंपा गया था? क्या तत्कालीन अध्यक्ष ने 30-11-2004 को आदेश जारी कर 15 दिनों में इंटरव्यू में मिले नंबर सौंपने को कहा? क्या अध्यक्ष ने 11 दिसंबर, 2004 को आदेश जारी कर 24 घंटे में इंटरव्यू का परिणाम सौंपने का आदेश दिया? क्या परिणाम नहीं सौंपने वाले पदाधिकारी कौशल किशोर प्रसाद, ब्रह्मदेव महतो और सोनत सोरेन के विरुद्ध चरित्र पुस्तिका में प्रतिकूल टिप्पणी की गयी? क्या तत्कालीन अध्यक्ष द्वारा पारदर्शिता के अभाव एवं नियम के उल्लंघन के कारण नियुक्ति प्रक्रिया रद्द कर दी गयी एवं 23-24 दिसंबर को समाचार पत्र में इससे संबंधित विज्ञप्ति जारी की गयी ?
विक्रमादित्य आयोग की राय : 30-11-2004 को मार्कशीट जमा करने के लिए कोई आदेश जारी नहीं किया गया था. विधानसभा ने यह स्वीकार किया कि 30-11-2004 तक मार्कशीट जमा नहीं किया गया था. इसके बाद तत्कालीन अध्यक्ष मृगेंद्र प्रसाद सिंह ने 2-12-2004 को आदेश जारी कर मार्कशीट और मेरिट लिस्ट जमा करने के लिए 48 घंटे का समय दिया, लेकिन नियुक्ति समिति के सदस्यों ने और समय की मांग की. इसके बाद तत्कालीन अध्यक्ष ने मार्कशीट और मेरिट लिस्ट 24 घंटे में जमा करने का आदेश दिया. इस आदेश के आलोक में नियुक्ति समिति के सदस्य मदन मोहन मिश्रा ने मेरिट लिस्ट जमा किया. बाकी तीन सदस्यों ने मेरिट लिस्ट नहीं जमा किया. अध्यक्ष मे नियुक्ति समिति के सदस्य कौशल किशोर प्रसाद, ब्रह्मदेव महतो और सोनत सोरेन के सीआर में इसे लिखने का आदेश दिया. लेकिन ऐसा नहीं किया गया.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : विधानसभा द्वारा दिये गये जवाब से यह प्रतीत होता है कि मामला अनुसेवकों की नियुक्ति से संबंधित था. तत्कालीन अध्यक्ष मृगेंद्र प्रसाद सिंह ने नियुक्ति प्रक्रिया रद्द करने और विज्ञापन प्रकाशित कराने का आदेश दिया था, लेकिन उन्होंने रद्द करने के कारणों का उल्लेख नहीं किया था. विज्ञापन लगातार दो दिनों तक समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था. चूंकि यह पांच समाचार पत्रों में प्रकाशित नहीं हुआ था, इसलिए विक्रमादित्य प्रसाद आयोग ने यह माना कि इसका व्यापक प्रचार प्रसार नहीं किया गया था. विक्रमादित्य आयोग ने अनुमान के आधार पर अनुशंसा की थी. इसलिए इसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.
जांच के बिंदु : क्या 16 अप्रैल को नियुक्ति प्रक्रिया रद्द करने का आदेश वापस ले लिया गया था? वापसी के निर्णय और औचित्य का आधार क्या था?
विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की राय : नियुक्ति रद्द करने से संबंधित प्रकाशित विज्ञापन को वापस ले लिया गया था. विधानसभा के अधिकारियों के सीआर में इंट्री नहीं की गयी थी. विधानसभा अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी ने इसे वापस लिया था. साथ ही वापसी की प्रक्रिया में साजिश की आशंका जतायी थी. उन्होंने सचिव के नोट पर टिप्पणी लिखी थी कि अगर खटिया में खटमल पड़ जाए, तो खटमल निकाले जाते हैं, खटिया नहीं जलायी जाती है. इसलिए अगर किसी गड़बड़ी की जानकारी मिली थी, तो उसे दूर किया जाना चाहिए था या विज्ञापन ही रद्द कर दिया जाना चाहिए था. अध्यक्ष द्वारा विज्ञापन वापस लेने के लिए दिया गया यह तर्क सही नहीं था.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : राज्य सरकार द्वारा जांच के लिए दिया गया संदर्भ अस्पष्ट है. विधानसभा के जवाब से यह पता चलता है कि संदर्भ अनुसेवक की नियुक्ति से था. नियुक्ति प्रक्रिया रद्द करने के लिए विधानसभा के एक अध्यक्ष की राय अलग थी, जबकि नियुक्ति पक्रिया को रद्द करने से संबंधित आदेश वापस लेने के मामले में दूसरे अध्यक्ष की राय अलग थी. ऐसे में दोनों अध्यक्षों की राय में सही और गलत के फैसला करने का अधिकार सक्षम न्यायालय को है. इसलिए राज्य सरकार द्वारा विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की राय को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.
जांच के बिंदु : क्या इसके लिए तैयार मेधा सूची मे कई रौल नंबरों पर ओवर राइटिंग की गयी थी?
विक्रमादित्य आयोग की राय : मेधा सूची के तीन नंबरों पर ओवर राइटिंग की गयी थी. ओवर राइटिंग के मामले में किसी अधिकारी ने उस पर हस्ताक्षर नहीं किया था.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : जांच के लिए दिया गया संदर्भ अस्पष्ट था. इसमें इस बात का उल्लेख नहीं किया गया था कि यह किस पद के लिए है. इसलिए विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की राय को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.
जांच के बिंदु : क्या विधानसभा सचिवालय ने प्रमाण पत्रों का सत्यापन किये बिना ही 20-9-2005 को ज्ञापांक 5225 के सहारे नियुक्ति आदेश जारी कर दिया ?
विक्रमादित्य आयोग की राय : अध्यक्ष के आदेश का अनुपालन नहीं किया गया. नियुक्ति पत्र जारी करने से पहले प्रमाण पत्रों का सत्यापन नहीं किया गया था. नियुक्ति के समय इस औपचारिकता को पूरा किया गया.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : विक्रमादित्य आयोग की रिपोर्ट मे इस बात का उल्लेख नहीं किया गया कि किसके प्रमाण पत्रों की जांच पूरी नहीं की गयी. इसलिए उनकी अनुशंसा को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.
जांच के बिंदु : क्या पलामू के 13 अभ्यार्थियों को स्थायी डाक पते पर पोस्ट से भेजा गया पत्र 12 घंटे में मिल गया और इसके दो दिनों के अंदर उन्होंने योगदान कर लिया?
विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की राय : 20-9-2005 को प्रकाशित ज्ञापांक संख्या 5225 से 62 लोगों को नियुक्त किया गया. इसे नोटिस बोर्ड पर चिपकाया गया. 62 में से 13 ने 22-9-2005 को योगदान किया. कुछ लोगों ने 23-9-2005 को योगदान किया. डिस्पैच रजिस्टर की जांच से यह पता चलता है कि चयनित लोगों को पत्र भेजा गया, लेकिन इस बात का उल्लेख नहीं किया गया थाा कि पत्रों को कैसे भेजा गया.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : जांच का संदर्भ अस्पष्ट है. विभिन्न स्रोतों से मिली जानकारी के आलोक मे किये गये योगदान के आधार पर नियुक्ति को गलत नहीं कहा जा सकता है.
जांच के बिंदु : क्या पांचवें पेज पर उपलब्ध मेधा सूची के ऊपरी हिस्से में सिर्फ चार नाम हैं और उसके नीचे सदस्यों के हस्ताक्षर है? क्या एक अलग पेज पर क्रम संख्या 63-75 तक अलग शैली और लिखा है. क्या इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि इसे बाद में जोड़ा गया ?
विक्रमादित्य आयोग की राय : विधानसभा ने यह स्वीकार किया कि पेज पांच पर मेधा सूची में सिर्फ चार नाम हैं. इस पर सदस्यों के हस्ताक्षर हैं. क्रम संख्या 63-75 तक एक अलग शैली में टाइप किया हुआ है. इस पेज पर सदस्यों के हस्ताक्षर हैं, लेकिन तिथि अंकित नहीं है.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : सरकार द्वारा दिया गया संदर्भ अस्पष्ट है. विक्रमादित्य आयोग की राय पूरी तरह संदेह पर आधारित है. सरकार को उनकी अनुशंसा नहीं स्वीकार करना चाहिए.
जांच के बिंदु : क्या अनुसेवक के रूप में चयनित लोगों को अरदली के रूप में नियुक्त कर लिया गया? क्या महाधिवक्ता ने अनुसेवक के विज्ञापन के आलोक में सिर्फ अनुसेवक को नियुक्त करने की राय दी थी? क्या 10 फरवरी को अनुसेवक के पदों को अरदली के पदों में मर्ज कर दिया गया? इस पर महामहिम की स्वीकृति ली गयी ?
विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की राय : महाधिवक्ता ने मर्जर के बावजूद अनुसेवक के पद पर अनुसेवक को नियुक्त करने की राय दी थी. अरदली को पदों को मर्ज करने पर राज्यपाल की सहमति नहीं ली गयी थी. अरदली को पदों को मर्ज करने के अनुसेवक को अरदली के रूप में नियुक्त करने से संबंधित विधानसभा की दलील स्वीकार्य नहीं है.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की रिपोर्ट : काडर की परिभाषा के आलोक में अरदली और अनुसेवक दोनों एक ही काडर के हैं. विक्रमादित्य आयोग के समक्ष तथ्यों को सही तरीके से पेश नहीं किया गया. इसलिए उनकी अनुशंसा को स्वीकार नहीं करना चाहिए.
जांच के बिंदु : क्या मेधा सूची के क्रम 76-150 के चार में से तीन पृष्ठों पर इंटरव्यू कमेटी के हस्ताक्षर भी नहीं हैं? क्या ऐसी गलती मेधा सूची के क्रम 151-225 में भी है? क्या इसे बाद में जोड़ा गया माना जाना चाहिए?
विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की राय : सीरियल नंबर 1-62 तक की मेधा सूची पर इंटरव्यू बोर्ड के सदस्यों के हस्ताक्षर के साथ तिथि अंकित है. क्रम संख्या 63-75 तक के टाइपिंग का फॉंट अलग है. इस मेधा सूची पर बोर्ड के सदस्यों के हस्ताक्षर हैं, लेकिन तिथि अंकित नहीं है. मेधा सूची के चौथे पेज में क्रमांक 150 के बाद काफी जगह है. इस जगह से क्रमांक 151 से टाइप किया जा सकता था, लेकिन क्रमांक 151-225 तक का टाइपिंग फॉंट अलग है. कार्यालय द्वारा मेधा सूची के आधार पर नियुक्ति के लिए तैयार किये गये प्रस्ताव में कहीं इस बात का उल्लेख नहीं है कि मेधा सूची में कितने लोग शामिल हैं.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : मेधा सूची पर इंटरव्यू बोर्ड के सदस्यों द्वारा हस्ताक्षर तिथि अंकित नहीं करने को अनुमान के आधार पर किसी गड़बड़ी का प्रमाण नहीं माना जा सकता है. इसके अलावा टाइपिंग फॉन्ट का आलग होना या पेज में कुछ जगह छोड़ कर टाइप करने को भी मेधा सूची में किसी तरह की अनियमितता करना नहीं माना जा सकता है. इसलिए विक्रमादित्य प्रसाद आयोग की अनुशंसाओं को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.
जांच के बिंदु : क्या विधानसभा द्वारा सहायक की नियुक्ति के लिए 29-12-2002 को प्रकाशित विज्ञापन और 17-1-2003 की परीक्षा को हाइकोर्ट द्वारा (डब्लूयपी-एस 511/2004) रद्द कर दिया गया था ? हाइकोर्ट के आदेश को एलपीए संख्या 703/2004 में 21-7-2005 को पारित आदेश में सही करार दिया गया था ? इसके बावजूद ज्ञापांक 437 (दिनांक-11-8-2005) के सहारे सात लोगों को सहायक के पद पर अस्थायी रूप से नियुक्त किया और ज्ञापांक 2544 (दिनांक-8-9-2006) के सहारे सेवा नियमित कर दिया गया था? क्या न्यायालय के आदेश का उल्लंघन नहीं है ?
विक्रमादित्य आयोग की राय : विधानसभा ने सहायकों की नियुक्ति के लिए 20-12-2003 को विज्ञापन प्रकाशित किया था. झारखंड विधानसभा नियुक्ति एवं सेवा शर्त नियमावली 2003 बनने से पहले सहायकों की नियुक्ति के लिए 29-12-2002 को भी विज्ञापन प्रकाशित हुआ था. 2002 में प्रकाशित विज्ञापन को रद्द करने के लिए याचिका दायर की गयी थी. न्यायालय ने सुनवाई के बाद 2002 में प्रकाशित विज्ञापन और इसके आलोक में 17-1-2003 को ली गयी परीक्षा को रद्द कर दिया था. साथ इस परीक्षा में शामिल होने वालों को 2003 में प्रकाशित विज्ञापन के आलोक में आयोजित की जानेवाली परीक्षा में शामिल करने का आदेश दिया था. इन्हें किसी तरह का लाभ नहीं देने का निर्देश दिया था. एलपीए की सुनवाई के न्यायालय ने मूल याचिका में दिये गये फैसले को सही करार दिया था. मामले की सुनवाई के दौरान विधानसभा के वकील दिलीप जेरथ ने यह कहा था कि बिहार विधानसभा नियुक्ति नियमावली में अध्यक्ष को अस्थायी नियुक्ति करने का अधिकार है, लेकिन झारखंड विधानसभा की नियमावली में यह प्रावधान नहीं किया गया है.इसके बावजूद दिलीप जेरथ का कानूनी राय की गलत व्याख्या कर सात सहायकों की अस्थायी नियुक्ति की गयी. 2003 में प्रकाशित विज्ञापन के आलोक में परीक्षा का रिजल्ट 20-7-2007 को निकला. लेकिन 8-9-2006 को ज्ञापांक संख्या 2544 के अस्थायी रूप से नियुक्त सात सहायकों की सेवा नियमित कर दी गयी. इस तरह न्यायालय के आदेश का उल्लंघन करते हुए उन्हें अनुचित लाभ दिया गया. इस मामले में इंदर सिंह नामधारी ने अपने जवाब में यह कहा था कि कुछ विधायकों द्वारा इनकी सेवा नियमित करने की अनुशंसा की गयी थी. यह काफी अनुभवी थे. अगर इनकी सेवा नियमित नहीं की जाती, तो विधानसभा का काम रूक जाता.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : एलपी की सुनवाई के दौरान विधानसभा के वकील द्वारा न्यायालय से यह कहा गया था कि बिहार विधानसभा की नियमावली में अध्यक्ष को अस्थायी नियुक्ति का अधिकार है, लेकिन झारखंड विधानसभा की नियमावली में यह प्रावधान नहीं किया जा सका है. झारखंड विधानसभा में सहायकों की कमी को देखते हुए न्यायालय से यह अनुरोध किया गया था कि वह झारखंड विधानसभा के अध्यक्ष को बिहार विधानसभा के अध्यक्ष की तरह अस्थायी नियुक्ति करने की अनुमति दे. लेकिन न्यायालय ने अध्यक्ष की शक्तियों पर कोई बात कहने से खुद को अलग रखा. सातों अस्थायी सहायक नियुक्ति परीक्षा में शामिल हुए थे. वे 10 साल के काम कर रहे हैं. इसलिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा कर्नाटक सरकार बनाम उमा देवी के मामले में दिये गये फैसले के आलोक में इनकी सेवा नियमित करना गलत नहीं है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया था कि अगर कोइ नियुक्ति अनियमित हो, लेकिन अवैध नहीं हो, तो और 10 साल तक काम कर चुका हो, तो उसकी सेवा नियमित कर दी जानी चाहिए.
जांच के बिंदु : क्या जनवरी 2007 में सहायक जनसंपर्क पदाधिकारी और बागवानी पर्यवेक्षक के एक-एक पद पर नियुक्ति के लिए सिर्फ विधानसभा के नोटिस बोर्ड पर नोटिस चिपकाया गया था, जबकि सरकार में इस तरह की नियुक्ति के लिए समाचार पत्रों मे विज्ञापन प्रकाशित कराया जाता है. क्या नोटिस बोर्ड पर नोटिस चिपका कर नियुक्ति करने का कोई नियम विधानसभा ने बनाया था ? नोटिस बोर्ड के माध्यम से नियुक्ति करने का क्या कारण था ?
विक्रमादित्य आयोग की राय : विधानसभा की ओर से यह कहा गया था कि नियुक्ति नियमावली में विज्ञापन प्रकाशित कराने या नोटिस बोर्ड पर चिपकाने से संबंधित कोई स्पष्ट नियम नहीं है. सहायक जनसंपर्क पदाधिकारी और बागवानी पर्यवेक्षक के पद पर एक भी कर्मचारी के नहीं होने की वजह से विधानसभा का कामकाज प्रभावित हो रहा था. इसलिए नोटिस बोर्ड पर नोटिस चिपका कर नियुक्ति की गयी. विधानसभा के इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि विधानसभा ने अन्य नियुक्तियों से संबंधित विज्ञापन प्रकाशित कराये थे. आयोग ने विधानसभा के नोटिस बोर्ड को ऐसी जगह पर नहीं पाया, जहां आम लोग इस पर चिपकायी गयी सूचना को देख सकें.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : चूंकि विधानसभा की नियमावली में विज्ञापन प्रकाशित करने का कोई स्पष्ट नियम नहीं है. सहायक जनसंपर्क पदाधिकारी और बागवानी पर्यवेक्षक के पदों पर नियुक्त व्यक्ति इस पद के लिए निर्धारित योग्यता रखते हैं. इसलिए सिर्फ विज्ञापन प्रकाशित नहीं कराने को आधार मान कर इन नियुक्तियों को अवैध करार नहीं दिया जा सकता है.
29 जांच के बिंदु : क्या 17 दिसंबर 2003 को गठित नियुक्ति कोषांग में शामिल कौशल किशोर प्रसाद, सोनेत सोरेन के विरुद्ध तत्कालीन अध्यक्ष एमपी सिंह ने प्रतिकूल टिप्पणी की थी? क्या इंटरव्यू के लिए 200-600 लोगों को बुलाया गया, जबकि एक ही इंटरव्यू कमेटी थी. क्या विधानसभा सत्र और स्थापना कार्यों के मद्देनजर नियुक्ति समिति के अध्यक्ष कौशल किशोर पूरे इंटरव्यू में शामिल नहीं रहे. उनकी जगह टाइपिंग शाखा के तारकेश्वर झा और सहायक केयरटेकर महेश नारायण सिंह इंटरव्यू में शामिल हुए . क्या इंटरव्यू के बाद 2004 की तरह प्रति दिन इंटरव्यू के परिणाम कार्यालय को नहीं सौंपे जाते थे. क्या इस तरह की प्रक्रिया पारदर्शी कही जायेगी और इस प्रक्रिया का अपनाया जाना नियुक्ति प्रक्रिया को दूषित नहीं करेगा ?
विक्रमादित्य आयोग की राय : तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष आलमगीर आलम ने महेश नारायण सिंह के प्रस्ताव पर कौशल किशोर प्रसाद को नियुक्ति कोषांग में शामिल किया था. इस समिति में माली, मेहतर, दरबान और फरास के पद पर नियुक्ति के लिए बनायी गयी थी. इंटरव्यू में 25 हजार लोगों को बुलाया गया था. प्रति दिन 200-600 लोगों को बुलाया जाता था, लेकिन 150-200 लोग शामिल होते थे. महेश नारायण सिंह ने कौशल किशोर के बदले इंटरव्यू लेने की बात स्वीकार की. इंटरव्यू के बाद हर रोज मार्कशीट नहीं बनाया जाता था. जांच के लिए दिये गये सभी संदर्भ सही पाये गये हैं.
एसजे मुखोपाध्याय आयोग की राय : सरकार द्वारा विक्रमादित्य आयोग को जांच के लिए दिया गया संदर्भ अस्पष्ट है. विक्रमादित्य आयोग ने अस्पष्ट संदर्भ के आलोक में राय दी है. विक्रमादित्य आयोग ने 17-12-2006 को गठित नियुक्ति समिति के आलोक में विक्रमादित्य आयोग ने राय दी है. लेकिन यह आदेश उनके सामने पेश नहीं किया गया था. इसलिए विक्रमादित्य आयोग की राय को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.