कोरोना फेफड़ों की ही बीमारी है. इसे कोविड-19 निमोनिया भी कहा जाता है. इस रोग से 85% लोग बिल्कुल ठीक हो जाते हैं. शेष 15% संक्रमिताें में चार-पांच फीसदी काे ही वेंटिलेटर पर रखना पड़ता है. यह बातें एमजीएम चेन्नई से शिक्षा मंत्री का इलाज करने रांची पहुंचे डॉ अपार जिंदल ने कही. उनसे प्रभात खबर संवाददाता राजीव पांडेय ने विशेष बातचीत की.
60 साल से ज्यादा उम्र होने, अनियंत्रित डायबिटीज, हार्ट की बीमारी, कमजोर इम्युनिटी या लंग्स की बीमारी वालों के लिए कोरोना खतरनाक है. कोरोना के 15 फीसदी संक्रमित ही गंभीर होते हैं. इनमें से सिर्फ एक फीसदी संक्रमित का ही लंग्स फेल्योर होता है. एेसे संक्रमितों को या तो एकमो मशीन पर रखना पड़ता है या उनका फेफड़ा ट्रांसप्लांट करना पड़ता है. ऐसा नहीं करने पर उनकी मौत हो जाती है. कोरोना वायरस फेफड़ों तक नहीं पहुंचे इसके लिए सरकार की गाइड लाइन जैसे – मास्क पहनना, सामाजिक दूरी बनाये रखना, हाथ धोना, भीड़ नहीं लगाना, भीड़ में नहीं जाना आदि का पालन करना चाहिए.
मोडरेट या सीवियर श्रेणी के कोरोना संक्रमितों में 5-10 फीसदी के ही फेफड़े ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं. उन पर पैच (निशान) बन जाते हैं. मेडिकल की भाषा में इसे पोस्ट कोविड फाइब्रोसिस कहते हैं. इस स्थिति में फेफड़ों के काम करने की क्षमता कम हो जाती है. अगर एक बार कोई संक्रमित हो गया, तो उसके लिए भविष्यवाणी नहीं की जा सकती कि उसे यह समस्या होगी या नहीं. अगर दवा का पूरा कोर्स करने के बाद भी सांस फूल रही है, ऑक्सीजन लेवल कम है, खांसी बरकरार है, तो ये संकेत हैं कि अापका फेफड़ा अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हुआ है.
एकमो कोई दवा नहीं है, जाे फेफड़ों को ठीक करे. यह लंग्स का बाइपास है. यह शरीर को ऑक्सीजन देता है. इससे लंग्स को ठीक होने का समय मिल जाता है. कोरोना इतना ज्यादा बढ़ जाये, जिससे फेफड़े क्षतिग्रस्त हो जाये और दवाएं देने के बाद भी पहले वाली स्थिति में नहीं आते हैं, तो मरीज को हाई अॉक्सीजन दिया जाता है. उसके बाद भी जब फेफड़े ठीक नहीं हो पाते हैं और ऑक्सीजन लेवल गिरने लगता है, तो मरीज को एकमो पर शिफ्ट किया जाता है. जिन संक्रमित का लंग्स एकमो पर भी ठीक नहीं होता है, उसे ट्रांसप्लांट की जरूरत पड़ती है.
पूरे विश्व में अब तक 10 कोरोना संक्रमितों के लंग्स ट्रांसप्लांट हुए हैं. इनमें से पूरे एशिया में दो ट्रांसप्लांट भारत में हुए हैं. ये दोनों ही ट्रांसप्लांट हमने एमजीएम चेन्नई में किये हैं. एक संक्रमित दिल्ली का और दूसरा कोलकाता का रहनेवाला था. अगर शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो को लंग्स ट्रांसप्लांट की जरूरत पड़ती है, तो यह भारत व एशिया में यह तीसरा होगा. लंग्स ट्रांसप्लांट भी हार्ट की तरह ही होता है. ब्रेन डेड डोनर से फेफड़ा लिया जाता है और जरूरतमंद को ट्रांसप्लांट कर दिया जाता है. इसमें 20 से 30 लाख रुपये का खर्च आता है. लंग्स ट्रांसप्लांट में छाती को खोलकर फेफड़े को निकाला जाता है. उसके बाद एक-एक करके डोनर के फेफड़े लगाये जाते हैं. सामान्यत: लंग्स तो तुरंत काम करने लगता है, लेकिन शरीर उसे कभी स्वीकार नहीं करता है. इसके लिए जीवन भर दवाएं (प्रतिमाह 10 से 15 हजार की) खानी पड़ती हैं. ट्रांसप्लांट 50 से 60 फीसदी लोग 10 से 12 साल तक जीवित रह पाते हैं. सबसे ज्यादा दिन तक ठीक रहनेवाला व्यक्ति 31 साल से जीवित है.
posted by : sameer oraon