Jharkhand Foundation Day: बिहार से अलग होकर 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य अस्तित्व में आया था. आदिवासी और आदिवासियत के नाम पर बने इस राज्य की संस्कृति काफी समृद्ध है. इसके पर्व-त्योहारों में प्रकृति की महत्ता देखने को मिलती है. इनके पर्व-त्योहार एवं उत्सवों में सूर्य-चंद्रमा के साथ-साथ जल और जंगल की भी काफी अहमियत होती है. झारखंड स्थापना दिवस पर आज हम आपको झारखंड के उन्हीं पर्व-त्योहारों के बारे में बताने जा रहे हैं.
रोहिणी संभवत: झारखंड का पहला पर्व है. खेतों में बीज बोने का त्योहार है. इसी दिन किसान अपने खेतों में बीज बोना शुरू करते हैं. टुसु, सरहुल या करमा जैसे झारखंड के अन्य त्योहारों की तरह रोहिणी में कोई नृत्य-संगीत नहीं होता. यह रस्म-ओ-रिवाज का पर्व है. रोहिणी के साथ-साथ रजस्वला अंबावाती और चितगोम्हा जैसे त्योहार भी मनाये जाते हैं.
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करमा या करम पर्व झारखंड के सबसे अहम त्योहारों में एक है. इसमें करम वृक्ष की डाली की पूजा की जाती है. यह भाई-बहन के अटूट प्रेम का पर्व है. करम देवता को ऊर्जा यानी शक्ति और यौवन का देवता माना जाता है. यह पर्व भादव, जिसे स्थानीय भाषा में भादो भी कहते हैं, के महीने में मनाया जाता है. युवक-युवतियां इस दिन करम पूजा के लिए जंगल से लकड़ी, फल और फूल चुनकर लाते हैं. इस पर्व के दिन युवक-युवतियां समूह में नाचते-गाते हैं. करम पर्व के दौरान आदिवासी बहुल इलाकों की फिजां में संगीत इस कदर गूंजता है, मानो मांदर की थाप पर पूरा झारखंड नाच रहा हो. यह अपने आप में अनोखा पर्व है, क्योंकि बहन अपने भाई की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए दिन भर उपवास रखती हैं. शाम में करम डाली की पूजा करती हैं. डाली को पूरे घर में घुमाया जाता है और सूर्योदय के बाद नदी-तालाब या किसी अन्य जलस्रोत में प्रवाहित कर दिया जाता है. इस दौरान झुमर गीत गाते हुए और समूह में नाचते हुए लोग जलाशय तक जाते हैं.
झारखंड का एक और प्रसिद्ध उत्सव है- सरहुल. आदिवासियों का यह सबसे प्रसिद्ध त्योहार है. आसान शब्दों में कहें तो सरहुल में साल के पेड़ की पूजा की जाती है. यह प्रकृति की पूजा है, जिसमें भगवान श्रीराम की पत्नी सीता की पूजा ‘धरतीमाता’ के रूप में की जाती है. वे साल के पेड़ की पूजा करते हैं, क्योंकि आदिवासियों की मान्यता है कि सरना देवी साल के पेड़ पर वास करती हैं. सरना मां उन्हें हर प्रकार की प्राकृतिक और दैवीय आपदा से बचाती हैं. सरहुल पर्व में साल के फूल और रंगा मुर्गा का काफी महत्व है. सरहुल को सृजन का पर्व माना जाता है. इसी समय पाहन घड़ा में पानी देखकर इस वर्ष बारिश की भविष्यवाणी करते हैं. इसी दिन से खेत में बुवाई का काम शुरू हो जाता है.
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टुसु परब या मकर फसल की कटाई का पर्व है. पूस या पौष मास में यह पर्व मनाया जाता है. टुसु पर्व झारखंड की राजधानी रांची से सटे पंचपरगना (बुंडू, तमाड़ और रायडीह) और पश्चिम बंगाल से सटे इलाकों में बड़े पैमाने पर मनाया जाता है. संताल परगना में भी यह पर्व मनाया जाता है. कुंवारी कन्याओं का भी यह पर्व है. टुसू से एक महीना पहले से ही कुंवारी लड़कियां पूजा शुरू कर देती हैं. इस दिन कुंवारी लड़कियां लकड़ी या बांस के फ्रेम बनाती हैं और उसे रंगीन कागज से सजाती हैं. इसके बाद उसे पास की पहाड़ी नदी में प्रवाहित कर देती हैं. हालांकि, इस पर्व से जुड़ा कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है, लेकिन कई ऐसे गीत हैं, जो इस दौरान गाये जाते हैं. इन गीतों में आपको आदिवासियों की सादगी और मासूमियत दिखेगी.
झारखंड में मनाये जाने वाले भोक्ता परब को बूढ़ा बाबा (भगवान शिव) की पूजा भी कहते हैं. यह पर्व बसंत और गर्मी के मौसम के बीच में आता है. इस दिन लोग व्रत रखते हैं. भोक्ता चार दिन पहले पूजा शुरू कर देते हैं. शाकाहार अपनाते हैं. जनेऊ बदलते हैं. मंडा पर्व शुरू होने पर सबसे पहले ये लोग स्नान करते हैं. फिर भगवान शंकर की पूजा करते हैं और जलते अंगारे पर चलते हैं. उसी रात अंगारों के ऊपर उल्टा लटककर झूलते हैं. शिव के मंदिर की नंगे बदन परिक्रमा (लोटन क्रिया) करते हैं. इसी रात श्रद्धालु छऊ नृत्य करते हैं और रात्रि जागरण करते हैं. मुखौटा लगाकर कई तरह के करतब दिखाते हैं. इसके अगले दिन भोक्ता अपने शरीर में लोहे का हुक लगा लेते हैं और उसके दूसरे सिरे को किसी पोल से टांग देते हैं. कई बार इसे 40 फुट तक ऊंचे पोल से बांधकर गोल-गोल घुमाया जाता है. इस दौरान भोक्ता श्रद्धालुओं पर पुष्प वर्षा करते हैं. इस पुष्प को हर श्रद्धालु हासिल करना चाहता है.
मवेशियों और उसका पालन-पोषण करने वालों के प्रति कृतज्ञता जताने का पर्व है सोहराय. खेती-बाड़ी में गाय, बैल, भैंस, गौ पालक एवं गोहाल की अलग अहमियत होती है. इस दिन इन सबकी पूजा की जाती है. गौ पालक को नये-नये वस्त्र दिये जाते हैं. उन्हें उपहार भी दिया जाता है. दीपावली के अगले दिन सोहराय पर्व मनाया जाता है. शाम के समय दीये जलाये जाते हैं. अगले दिन सुबह मवेशियों को अच्छे से सन्नान करवाया जाता है, उनकी सींगों पर तेल-सिंदूर लगाया जाता है. उन्हें माला पहनायी जाती है. इस दिन कई जगहों पर सांडों की लड़ाई भी करवायी जाती है.