झारखंड में नशा मुक्ति का सबसे बड़ा केंद्र है. पड़ोसी राज्यों बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा के अलावा दूर-दराज के राज्यों से भी लोग यहां इलाज कराने आते हैं. 70 बेड वाले इस अस्पताल में कभी सीट खाली नहीं रहती. कई बार रोगियों को भर्ती होने के लिए इंतजार करना पड़ता है. मरीज की समस्या की गंभीरता को देखते हुए कई बार डॉक्टर उन्हें किसी दूसरे वार्ड में एडमिट कर लेते हैं. जब डी-एडिक्शन सेंटर (De-Addiction Center) से कोई रोगी डिस्चार्ज होता है, तो उस मरीज को इस वार्ड में शिफ्ट कर लिया जाता है. बता दें कि मानसिक रोगों के सबसे बड़े अस्पतालों में एक है रांची का सीआईपी (केंद्रीय मनश्चिकित्सा संस्थान).
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि रांची के कांके स्थित इस अस्पताल में देश के कोने-कोने से लोग इलाज कराने आते हैं. इसमें कई प्रकार की मानसिक समस्याएं शामिल हैं. यानी हर तरह के मानसिक रोगों का यहां इलाज होता है. सबसे ज्यादा रोगी बिहार से यहां आते हैं. पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ से तो आते ही हैं, पूर्वोत्तर के राज्यों यानी असम, मेघालय, मणिपुर जैसे राज्यों से भी लोग यहां इलाज करवाने आते हैं. मानसिक रोगों के इलाज के इस बड़े केंद्र में ही नशा मुक्ति वार्ड बनाया गया है.
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सीआईपी रांची के ओपीडी के आंकड़ों पर गौर करेंगे, तो पायेंगे कि डी-एडिक्शन सेंटर में वर्ष 2018 में 92,901 लोगों ने अपना इलाज करवाया, वर्ष 2019 में 98,789 लोग यहां पहुंचे. वर्ष 2020 में कोरोना महामारी के दौरान जब लॉकडाउन लग चुका था, तब भी 58,601 लोग इलाज करने के लिए झारखंड (सीआईपी रांची) आये थे. वर्ष 2021 में यह आंकड़ा बढ़कर 79,114 हो गया, जबकि वर्ष 2022 में 97,491. फरवरी 2023 में ओपीडी में इलाज कराने वालों की संख्या 16,337 पहुंच गयी.
डी-एडिक्शन सेंटर में एडमिट होने वाले मरीजों की संख्या भी अच्छी खासी है. वर्ष 2018 में सीआईपी रांची में 684 मरीजों को भर्ती किया गया था, जबकि वर्ष 2019 में 883, वर्ष 2020 में 416, वर्ष 2021 में 649, वर्ष 2022 में 751 और वर्ष 2023 में फरवरी के महीने तक 146 लोगों को एडमिट किया जा चुका था.
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सीआईपी कांके के निदेशक प्रो डॉ बासुदेव दास बताते हैं कि इस अस्पताल में नशा मुक्ति वार्ड (डी-एडिक्शन सेंटर) है. उन्होंने बताया कि सरकार की ओर से डी-एडिक्शन प्रोग्राम चलाया जा रहा है. सीआईपी को पूर्वी भारत का नोडल सेंटर बनाया गया है. सीआईपी ने नशा मुक्ति के क्षेत्र में कई पहल की है. आने वाले दिनों में कई और अभियान चलाने की योजना है. इसके तहत स्कूल-कॉलेजों में एनजीओ की मदद से जागरूकता अभियान चलाया जायेगा.
डॉ दास ने कहा कि सीआईपी की कोशिश है कि जहां तक हो सके, बच्चों को ड्रग्स से बचाया जाये. अगर कोई इससे ग्रसित हो चुका है, तो उसका इलाज सुनिश्चित करना भी सीआईपी अपनी जिम्मेदारी समझता है. इसलिए सीआईपी रांची अपनी तरफ से हर कोशिश कर रहा है. डॉ दास ने कहा कि कई बच्चों ने यहां इलाज करवाया है और ठीक भी हुए हैं. उन्होंने कहा कि सिर्फ इलाज कराकर छोड़ देंगे, तो उससे समस्या दूर नहीं होगी.
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डॉ बासुदेव दास के मुताबिक, नशे या एडिक्शन का इलाज कराने के बाद बच्चों की निगरानी अभिभावकों को भी करनी होगी. समाज को भी इसमें अपनी भूमिका निभानी होगी. कई बार दिक्कत होती है कि अभिभावक और समाज ऐसे लोगों की निगरानी नहीं करता. डॉ दास कहते हैं कि नशे की गिरफ्त से बाहर आये लोग उस तरफ फिर से न जायें, इसलिए उनकी निगरानी बेहद जरूरी है.
सीआईपी के निदेशक ने कहा कि अगर उनकी निगरानी नहीं की, तो वे फिर से उस ओर चले जाते हैं. इसे रिवॉल्विंग डोर पॉलिसी कहते हैं. यानी एक दरवाजा से निकलकर आने वाले कुछ दिन बाद फिर दूसरे दरवाजे से उसी नर्क में दाखिल हो जाते हैं. इसे रोकने के लिए निगरानी बेहद जरूरी है. हम ऐसा कर पायेंगे, तो हम अपने आसपास के लोगों को फिर से नशे की गिरफ्त में जाने से रोकने में सक्षम हो पायेंगे.
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प्रो डॉ दास कहते हैं कि सीआईपी कांके में जो डी-एडिक्शन सेंटर है, उसमें 70 बेड हैं. स्थिति यह है कि ये सभी 70 बेड हमेशा यह फुल रहते हैं. कई बार ऐसी नौबत आ जाती है कि डायरेक्टली बहुत से मरीजों को एडमिट नहीं कर पाते. किसी और वार्ड में उन्हें रखना पड़ता है. उनके मुताबिक, आज भी सबसे ज्यादा मानसिक रोगी बिहार से ही यहां इलाज कराने आते हैं. बंगाल, ओडिशा, पूर्वोत्तर, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश से भी मरीज आते हैं.
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