झारखंड आंदोलन के प्रणेता बिनोद बिहारी महतो उर्फ बाबू किसी परिचय के मोहताज नहीं. वह अलग राज्य के आंदोलन का अलख जगाने वालों में प्रमुख चेहरा रहे. आंदोलन के लिए भी उन्होंने कलम को हथियार बनाने की बात कही. उनका नारा ही था पढ़ो, लड़ो और आगे बढ़ो. आज जब कथनी-करनी में अंतर साफ दिखता है, वैसे में बिनोद बिहारी महतो ने जो कहा, उसे किया भी. पढ़ने की बात की तो गांव-गांव में शिक्षण संस्थान खोले या फिर मदद कर शिक्षण संस्थानों को आगे बढ़ाया.
आज भी ये शिक्षण संस्थान शिक्षा की मशाल जलाये हुए हैं. उनके व्यक्तित्व को इसी बात से समझा जा सकता है कि जब कुड़मी समाज के लिए कोई बड़ा अभियान नहीं था, झारखंड एकीकृत बिहार का ही हिस्सा था, तब उन्होंने बिहार विधान सभा में 24 जनवरी,1990 को कुड़मी जाति को एनेक्चर एक में शामिल करने का मुद्दा उठाया था. एक सफल कलमकार, रणनीतिकार, अधिवक्ता और अग्रसोची बिनोद बाबू की 23 सितंबर को जन्मशती है. इस मौके पर प्रस्तुत है प्रभात खबर का यह विशेष आयोजन बिनोद बाबू की कुछ जानी-अनजानी बातों के साथ.
बचपन से ही मेधावी बिनोद बिहारी महतो का जन्म धनबाद जिले के बलियापुर प्रखंड अंतर्गत बड़ादाहा गांव में 23 सितंबर 1923 को हुआ था. उनके पिता का नाम माहिंदी महतो उर्फ महेंद्र महतो तथा माता का नाम मंदाकिनी देवी था. वर्ष 1941 में मैट्रिक किया. इसके बाद परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं रहने के कारण पढ़ाई छोड़ दी. दैनिक मजदूर के रूप में धनबाद कोर्ट में काम शुरू किया. फिर समाहरणालय में आपूर्ति विभाग में किरानी की नौकरी मिली. एक बार फिर पढ़ाई एवं नौकरी साथ-साथ की. इंटर की पढ़ाई पीके राय कॉलेज से की. स्नातक की पढ़ाई रांची विश्वविद्यालय से पूरी की. वह आजीवन लोगों को शिक्षा के लिए प्रेरित करते रहे. उन्होंने अपने जीवनकाल में कई स्कूल-कॉलेज खोले, जो आज भी चल रहे हैं.
जानकार बताते हैं कि बिनोद बाबू जब समाहरणालय में किरानी के रूप में कार्यरत थे, तब एक वकील ने एक दिन कह दिया ‘तुम कितना भी होशियार क्यों नहीं बनो, किरानी ही रहोगे. संभल कर बात करो.’ यह टिप्पणी उन्हें आहत कर गयी. इसके बाद उन्होंने वकील बनने की ठान ली. पटना यूनिवर्सिटी से कानून की डिग्री ली. इसके बाद धनबाद कोर्ट में प्रैक्टिस किया. सिविल के बड़े वकील बने.
बिनोद बिहारी महतो ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत सीपीआइ(भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) से की. सीपीआइ के विभाजन के बाद वर्ष 1967 में सीपीएम में चले गये. धनबाद लोकसभा सीट से पहली बार 1971 में सीपीएम के टिकट पर चुनाव लड़े. दूसरे स्थान पर रहे. पहली बार धनबाद नगरपालिका के वार्ड नंबर 21 से वार्ड आयुक्त चुने गये. बाद में जिला परिषद के उपाध्यक्ष भी बने. लंबे समय तक बलियापुर प्रखंड के प्रमुख रहे.
वर्ष 1980 में अविभाजित बिहार में टुंडी सीट से जीत कर विधायक बने. वर्ष 1985 में सिंदरी सीट से जीत कर दुबारा तथा वर्ष 1990 में फिर टुंडी से जीत कर लगातार तीसरी बार विधायक बने. वर्ष 1991 के लोकसभा चुनाव में गिरिडीह संसदीय क्षेत्र से जीत कर पहली बार सांसद बने. उनका निधन 18 दिसंबर 1991 को हो गया. बाद में गिरिडीह लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में उनके बड़े पुत्र राजकिशोर महतो जीते और सांसद बने.
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बिनोद बिहारी महतो ने वर्ष 1972 में सीपीएम से इस्तीफा दे दिया. चार फरवरी 1973 को झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना हुई. झामुमो की स्थापना में दिशोम गुरु शिबू सोरेन व धनबाद के पूर्व सांसद एके राय भी उनके साथ थे. श्री सोरेन को महासचिव बनाया गया था. श्री महतो लगभग एक दशक 1983 तक झामुमो के अध्यक्ष रहे. लाल-हरा मैत्री का भी नारा बुलंद किया था. अलग झारखंड राज्य की लड़ाई को धार दी.