झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा और मध्यप्रदेश के आदिवासियों का एक महत्वपूर्ण पर्व है सरहुल. सरहुल प्रकृति से जुड़ा पर्व है. इस दिन साल के फूल की जितनी अहमियत होती है, उतनी ही अहमियत लाल पाड़ वाली सफेद साड़ी की भी है. सरहुल के दिन प्रकृति की पूजा तो होती ही है, लोग नृत्य भी करते हैं. इस दिन पुरुष गंजी और धोती के साथ लाल गमछा अपने पास रखते हैं. वहीं, महिलाएं लाल पाड़ वाली सफेद साड़ी पहनती हैं.
आदिवासी विद्वान राम दयाल मुंडा कहा करते थे- जे नाची से बांची. यानी जो नाचेगा, वही बचेगा. अर्थात् जीवन में मस्ती बनी रहनी चाहिए. नाच-गान से हर तरह का तनाव दूर हो जाता है. एक धुन पर नाचने से एकता बनी रहती है. पौराणिक काल से ही नृत्य ही आदिवासियों की संस्कृति है. सरहुल ही नहीं, आदिवासियों के हर पर्व-त्योहार में नृत्य की प्रधानता है. पर्व-त्योहार मनाने के बाद आदिवासी अखड़ा में नाचने जाते हैं.
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सरहुल में महिलाओं में लाल बॉर्डर वाली साड़ी पहनने का चलन है. सफेद रंग शांति और पवित्रता का प्रतीक है, जबकि लाल रंग क्रांति का. सरना झंडा में भी सफेद और लाल रंग ही हैं. कहते हैं कि सफेद रंग ‘सिंगबोंगा’ का प्रतीक है, तो लाल रंग को ‘बुरूंबोंगा’ का प्रतीक माना जाता है. इसलिए ‘सरना झंडा’ में सफेद और लाल रंग होता है.
उल्लेखनीय है कि आदिवासियों की आजीविका कृषि पर निर्भर है. वे हर शुभ काम प्रकृति की उपासना के साथ करते हैं. सरहुल भी अपवाद नहीं है. सरहुल आदिवासियों का सबसे बड़ा पर्व है. गेहूं (रबी) की नयी फसल की कटाई सरहुल पर्व के बाद ही होती है. सरहुल के दिन दिन ही पाहन घोषणा करते हैं कि इस साल कैसी बारिश होगी. अच्छी-खासी बारिश होगी या क्षत्र में अकाल पड़ेगा.
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शहरों में सरहुल पर्व मनाने के लिए कई संस्थाएं बन गयीं हैं. उनकी ओर से कई तरह के दिशा-निर्देश जारी किये जाते हैं. मुख्य कार्यक्रम एक जगह होता है, लेकिन सभी क्षेत्रों में लोग अपने-अपने हिसाब से सरहुल मनाते हैं. ग्रामीण अंचलों में अलग-अलग दिन एक महीने तक सरहुल का पर्व लोग मनाते हैं.
बता दें कि इस बार सरहुल का पर्व 24 मार्च को मनाया जा रहा है. आमतौर पर सरहुल का पर्व अप्रैल के महीने में आता है. लेकिन, हिंदी तिथि के अनुसार, कई बार मार्च के महीने में भी सरहुल मनाया जाता है. हर साल चैत्र शुक्ल तृतीया तिथि को सरहुल पर्व मनाने की परंपरा है. इस बार यह तिथि 24 मार्च को है. इसलिए इसी दिन सरहुल का पर्व मनेगा.