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अनाज मापने की पुरानी परंपरा को सांस दे रहा है झारखंड का यह गांव, यहां बनता है पइला

आज हमारे पास वजन मापने की कई आधुनिक मशीन है, इस मशीन तक पहुंचने के सफर की अलग- अलग कहानी है लेकिन झारखंड में इसकी शुरुआत पइला से होती है. पइला जो आज भी झारखंड के ग्रामीण बाजारों की अर्थव्यस्था मांप कर चलाती है.

आज हमारे पास वजन मापने की कई आधुनिक मशीन है, इस मशीन तक पहुंचने के सफर की अलग- अलग कहानी है लेकिन झारखंड में इसकी शुरुआत पइला से होती है. पइला जो आज भी झारखंड के ग्रामीण बाजारों की अर्थव्यस्था माप कर चलाती है.

गांव के बाजार में खेजा ( सामान का छोटा सा ढेर जो अंदाजे से लगाया जाता है ) आज भी प्रचलित है. मिर्च, बादाम, सब्जियां, मशाले आज भी गांव के बाजारों में अंदाजे से बेचे जाते हैं और अगर मापने की जरूरत पड़े, तो दिखता है पइला. पइला आज भी चलन में है और खूब इस्तेमाल होता है लेकिन सवाल है कि कौन लोग हैं, जो आज भी पइला बना रहे हैं. पढ़ें मापने की पुरानी परंपरा को सांस देने वाले गांव से पंकज कुमार पाठक की खास रिपोर्ट

झारखंड की राजधानी से मात्र 35 किमी की दूरी पर मौजूद है,रेगेमलार कॉलोनी इस कॉलोनी की पहचान दूसरी कॉलोनी से अलग है. इस पूरी कॉलोनी में लगभग 26 घर हैं. इस कॉलोनी में रहने वाले सभी लोग एक ही व्यवसाय से जुड़े हैं. काम है पइला बनाना और यह आसान प्रक्रिया नहीं है. इसमें खूब मेहनत के साथ- साथ लगता है ढेर सारा वक्त.

7 दिन की कड़ी मेहनत से तैयार होता है पइला

पइला बनाने के लिए सबसे पहले वैसी मिट्टी की तलाश की जाती है, जो मजबूत ढांचा तैयार कर सके. तेज रफ्तार से आधुनिकता की तरफ भाग रही झारखंड की राजधानी रांची से महज 35 किमी दूरी पर इस गांव में लगता है जैसे वक्त ढहर गया है नंगे बदन मिट्टी में सने सीताराम मलार पइला बनाने में व्यस्त थे, हमने जब उनसे पूछा कि ये कौन सी मिट्टी है तो बोले नगड़ा मिट्टी है लेकिन इसे लाने के लिए भटकना पड़ता है.

मिट्टी तैयार करने में वक्त लगता है, इसे चालना पड़ता है. फिर सान कर एक ढांचा तैयार करना पड़ता है. ढांचे को धूप में सुखाया जाता है, फिर अलकतरा और तेल मिलाकर डिजाइन तैयार कियाय जाता है, इसे धुवन दिया जाता है फिर इसे सुखाया जाता है फिर कास्टिंग की जाती है. एल्यूमिनियम गलाकर सूखे मिट्टी के पइले में डाला जाता है जो तैयार डिजाइन के साथ एक शानदार आकार लेता है फिर उसे चमकाया जाता है. इस तरह कड़ी मेहनत और 7 दिनों के लंबे वक्त के बाद पइला तैयार होता है.

घर चलाना मुश्किल

इस गांव में लगभग 26 घर है, ये लोग कहां के रहने वाले हैं कहां से आये हैं ? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. बस इतना ही बताते हैं कि बाप – दादा के जमाने से हम यहीं हैं, झारखंड सरकार ने इन्हें यही पांच डिसमिल जमीन दी जिसमें मिट्टी का घर बनाकर ये रह रहे हैं, पेशा यही है पइला बनाना, तो बनाकर बाजार तलाशते हैं. कई बार अच्छी कीमत नहीं मिलती तो घर चलाना मुश्किल हो जाता है. खेत हैं नहीं जिससे पेट भरा जा सके.

पइला के अलावा अब बन रही है कई नयी चीजें

झारखंडी माटी, परंपरा और यहां के कला की पहचान बताती कई ऐसी प्रतिमा भी अब यहां बन रही है, रोहित मलार युवा हैं, पइला बनाने की इस पुरानी परंपरा को अब वह नया रूप दे रहे हैं. गांधी के तीनों बंदर, कछुआ, मेंढक, गाय, वाद्य यंत्र सहित डोकरा आर्ट से जुड़ी कई सामान जो उन्हें दूसरे घरों से अलग करती हैं. उनसे जब पूछा गया कि मजा आता है इस काम में तो रोहित कहते हैं, क्या कीजिएगा मजा नहीं आया तो सजा काटकर ये करना ही पड़ता है. अपना काम है इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है. कुछ ना कुछ तो करना ही है..

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