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मौसम के परिवर्तन का संकेत दे रहे काश के फूल, रांची के इन इलाकों में बने आकर्षण, औषधीय गुणों से है भरपूर

रांची के कई इलाकों में काश के फूल लोगों को अकर्षित कर रहे हैं. पर्यावरणविद इसे मौसम के बदलाव के सूचक भी मानते हैं. हिंदी और बांग्ला साहित्य में काश के फूल का विशेष स्थान है. साथ ही साथ ये कई बीमारियों के लिए भी लाभकारी है.

By Prabhat Khabar News Desk | September 21, 2022 8:59 AM

अभिषेक रॉय

Ranchi news: राजधानी के धुर्वा, रिंग रोड, रातू, बीआइटी मेसरा के अलावा सिकिदरी और आसपास की घाटियों में लंबी घास पर खिले रूई जैसे काश के फूल लोगों को आकर्षित कर रहे हैं. पर्यावरणविदों के अनुसार, काश के फूल मौसम में बदलाव का सूचक हैं. इन फूलों के खिलने से ही अनुमान लगाया जाता है कि वर्षा ऋतु अंतिम चरण में है और शरद ऋतु का आगमन होनेवाला है.

बांग्ला साहित्य में काश फूल खास

संत जेवियर्स कॉलेज के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ कमल कुमार बोस ने बताया कि हिंदी और बांग्ला साहित्य में काश के फूल का विशेष स्थान है. कवि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है – फूले काश सकल महि छाई, जिमि वर्षा ऋतु प्रगट बुढ़ाई (काश में फूल आ गये, तो बरसात खत्म हो गयी है).

कविगुरु रबींद्रनाथ टैगोर ने नृत्य नाट्य ‘शापमोचन’ में काश फूल का जिक्र किया है. कहते हैं – यह मन की कालिमा दूर करती है, शुद्धता लाती है, भय दूर कर शांति वार्ता की पहल करती है. इसलिए शुभ कार्य में काश फूल के पत्ते और फूल का इस्तेमाल किया जाता है. कवि काजी नजरुल इस्लाम ने लिखा है-‘काश फूल मन में सादगी का सिहरन जगाये, मन कहता है कितनी सुंदर है प्रकृति, सृष्टिकर्ता की उत्तम सृष्टि’.

औषधीय गुणों से भरा है काश का पौधा

आयुर्वेदाचार्य डॉ वेंकटेश कात्यायन पांडेय ने बताया कि काश के पौधे में औषधीय गुण हैं. इसे पीसकर लगाने से स्किन एलर्जी दूर होती है. जड़ का काढ़ा वात व पित्त संबंधित बीमारी को दूर करने की क्षमता रखते हैं.

कुश में देवों का वास, धार्मिक कार्य में होता है उपयोग

पंडित रामदेव ने बताया कि ‘काश’ को ‘काशी’ या ‘कुश’ भी कहा जाता है. धार्मिक मान्यता है कि कुश के पौधे के मूल में ब्रह्मा, तना में विष्णु और शिखर भाग में भगवान शिव का वास है. यही कारण है कि विवाह, पूजन और श्राद्ध समेत अन्य धार्मिक कार्यों में कुश का इस्तेमाल किया जाता है. पितृ पक्ष के बाद ढाकी अपने ढाक में काश के फूल बांधकर मां दुर्गा का आह्वान करते हैं.

औषधीय गुणों से भरा है काश के पौधे

आयुर्वेदाचार्य डॉ वेंकटेश कात्यायन पांडेय ने बताया कि आयुर्वेद में चरक संहिता और सुश्रुत संहिता के अनुसार काश के पौधे में औषधीय महत्व मिले है. काश के पौधा का सभी भाग यानी जड़, तना, फूल औषधीय गुणों से भरा है. इसे पीसकर लगाने से त्वचा संबंधी समस्या यानी एलर्जी दूर होती है. इसके साथ ही दाद, कंडू, सूजन से छुटकारा मिलता है. इसके अलावा वात व पित्त संबंधित बिमारी को दूर करने में काश पौधे के जड़ का काढ़ा शरीर की कमजोरी को दूर करने, खाने में रूची बढ़ाने, पेट की जलन कम करने, पथरी की समस्या को दूर करने, रक्तदोष संबंधी बीमारी, मूत्र को अधिक मात्रा में निकालने और दूध की क्षमता बढ़ाने में मददगार हैं.

जमीन के कटाव को रोकने में मददगार काश

रांची विश्वविद्यालय के बॉटनी विभाग की डॉ लाडली रानी ने कहा कि काश के पौधे में पुनर्उत्पत्ति का क्षमता होती है. यह अगस्त के अंत व सितंबर माह में दिखने लगते है और अक्तूबर में अपने मूल स्वरूप में होते है. यह पौधे खर-पतवार की श्रेणी में आते हैं. जो, बारिस के बाद जमीन के कटाव को रोकते है और मौजूदा खनिज जैसे नाइट्रोजन, फासफोरस और पोटासियम को बनाये रखने में मदद करते हैं. इसके साथ ही काश से इलाके में पानी की मात्रा अच्छे स्तर पर होने का संकेत मिलता है. पूर्व में लोग काश के फूल से वर्षा ऋतु के खत्म के साथ शरद ऋतु के आगमन का सूचक मानते थे.

काश फूल के लिए सत्यजीत रे ने एक वर्ष तक रोका था शूटिंग

फिल्मकार मेघनाथ ने बताया कि फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे 1950 की दशक में फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ की शूटिंग कर रहे थे. फिल्म के शॉट में उन्हें रेल लाइन के अासपास काश के फूलों को दिखाना था. किन्हीं कारणों से शूटिंग में गड़बड़ हो गयी, जिसे दोबारा शूट करना था. शूटिंग लोकेशन पर दोबारा पहुंचने पर सत्यजीत रे को पता चला की काश के फूल झड़ चुके है. जबकि, उनका मन उसी शॉट को री-शूट करने का था. इसके लिए सत्यजीत रे ने पूरे एक वर्ष तक फिल्म की शूटिंग रोक दी और अगले वर्ष दोबारा उसी लोकेशन पर उसे पूरा किया. इसके बाद फिल्म 1955 में रिलीज हुई, जिसे कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय अवार्ड मिले.

विभिन्न भाषा में काश फूल का नाम

साइंटिफिक नेम – सैकेरम स्पॉन्टेनियम

इंग्लिश – पोऐसी

संस्कृत – कासेक्षु

हिंदी – काश या कुस

उड़िया – कासो

कन्नड़ – कासलु

गुजराती – कांस

तमिल – कुचम

तेलगु – रसलामू

बांग्ला – कागरा

मलयालम – नान्नना

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