डॉ ज्योतिष कुमार केरकेट्टा, ‘पहान’ सहायक प्राध्यापक-सह-वैज्ञानिक, वानिकी संकाय, बिरसा कृषि विवि, रांची :
झारखंड के आदिवासी प्रकृति से जुड़ाव और नववर्ष का स्वागत मार्च-अप्रैल माह से सखुआ वृक्ष में नये फूलों और कोमल पत्तों के आने पर सरहुल पर्व से इस कामना के साथ करता है कि सृष्टि की रक्षा, सृजन और जनकल्याण हो, जिसे धरती और सूर्य की विवाह के तौर पर मनायी जाती है. आदिवासियों के प्रायः त्योहार और शुभ कार्य बढ़ते चांद अर्थात् शुक्लपक्ष के दिनों में ही संपन्न करने की प्रथा रही है. पीला रंग सूर्य को समर्पित है. यह उर्जा, बौद्धिकता, शांति, नकारात्मक शक्तियों को दूर कर सुख-समृद्धि लानेवाला और शुद्धता का प्रतीक है, जो करम वृक्ष के काष्ठ का भी रंग है. शुद्ध रूप से हल्दी-पानी छिड़क कर पूजा और ‘खोंसी’ के लिये प्रयुक्त होने वाले ‘जवा फूल’ भी पीले होते हैं.
भादो मास के शुक्लपक्ष एकादशी को झारखंड और इससे सटे राज्यों के अधिकांश आदिवासी-मूलनिवासी अपने देव-वृक्ष करम को परंपरागत अखड़ा-आंगन में स्थापित कर प्रकृति के प्रति अपनी आस्था और अलौकिक दिव्य शक्ति की स्वयं में अनुभूति करते हुए अपने प्रकृति प्रेम, आध्यात्मिक जीवन-दर्शन, सामाजिक परंपरा और सामूहिकता का भाव प्रदर्शित करते हैं. धान की फसल लगने के बाद अर्द्ध सफलता वाली खुशी होती है, साथ ही पूर्ण सफलता के लिए कामना की जाती है कि खेतों में लगाया गया फसल सुरक्षित और अच्छा हो, फसलों के तैयार होने तक पर्याप्त बारिश हो ताकि गांव-समाज में अन्न-धन की प्रचुरता और संपन्नता बनी रहे.
देव-वृक्ष के रूप में पूजे जाते हैं करम
झारखंड के आदिवासी-मूलनिवासी करम को देव-वृक्ष के रूप में पूजते हैं. धार्मिक-सामाजिक व्यवस्था में करम वृक्ष के माध्यम से प्रकृति की शक्ति को साधने की विधि और फल प्राप्ति हेतु सुझाये गये पूजा विधि, अच्छे कर्म तथा सद्गुणों के धागों से मानो गांव, परिवार और समाज को पुरखों द्वारा पिरोये गये थे जो आज भी झारखंड के गावों में देखने को मिल जाते हैं. आर्थिक और पेशेगत अंतर हो सकते हैं, किंतु ऊंच-नीच के जातिभेद नहीं पाये जाते. आर्थिक और पेशेगत अंतर को पाटने के लिए भी गांव समाज ने ‘मदईत’ व्यवस्था बना रखा था, जिससे हर घर में अन्न, धन और संपन्नता बनी रहे ताकि त्योहारों में सभी सामूहिक रूप से नाच-गा सकें और विपत्तियों में भी सभी एकजुटता का परिचय दे सकें.
क्या है मान्यता
करम वृक्ष को पूजा में स्थान दिये जाने के एक अज्ञात कारण के पीछे एक तर्क का होना कि इसके पुराने मोटे धड़ के खोखले होने वाले भौतिक गुण को भी माना जा सकता है. भोजन अथवा शिकार की तलाश में अपने भाइयों के जाने से पहले कुंवारी बहनें अपने भाइयों के लिये याचना करती होंगी कि वे सुरक्षित घर लौटें. सकुशल लौटकर आने वाले भाइयों ने बताया होगा कि वे कैसे हिंसक जंगली जानवरों के हमले होने पर भागकर और छिपकर करम वृक्ष के खोडरों में जान बचाते और आश्रय पाते होंगे. घायल-चोटिल अथवा खरोंच लगने पर करम के संक्रमण-रोधी पत्ती-छाल का उपयोग कर ठीक होते रहे होंगे. पूर्वजों द्वारा स्थापित करम वृक्ष के साथ भावनात्मक सोच की झलक शायद आज भी करम पूजा के दौरान वृक्ष के सम्मान और कहानी के रूप में देखे-सुने जा सकते हैं जो रक्षा एवं सुरक्षा का प्रतीक है अतः इसे देव वृक्ष माना गया होगा.
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