18.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

My Mati: पिठोरिया परगनइत जगतपाल सिंह की आत्मकथा : क्यों उन्हें देना पड़ा अंग्रेजों का साथ

1881-32 में कोल विद्रोह हुआ. नागवंशी महाराजा का घटवार होने के कारण उनकी आज्ञा पर न चाहते हुए भी मुझे अंग्रेजों का साथ देना पड़ा. अंग्रेज खुश हुए. मेरे पिताजी तत्कालीन गर्वनर विलियम बेंटिक ने आजीवन 113 रुपये पेंशन प्रतिमाह देने की घोषणा की.

1881-32 में कोल विद्रोह हुआ. नागवंशी महाराजा का घटवार होने के कारण उनकी आज्ञा पर न चाहते हुए भी मुझे अंग्रेजों का साथ देना पड़ा. . अंग्रेज खुश हुए. मेरे पिताजी तत्कालीन गर्वनर विलियम बेंटिक ने आजीवन 113 रुपये पेंशन प्रतिमाह देने की घोषणा की.

दुनिया समझती है मैं मर गया हूं. सच है. नश्वर शरीर मिट्टी में मिल गया. लेकिन मेरी आत्मा नहीं मरी है. भटक रही है. कारण, मेरी वजह से मेरा गांव पिठोरिया कलंकित हुआ. आप मुझसे घृणा करते हैं. लेकिन एक बात आपलोग सुन लीजिए, जिसे फांसी की सजा होती है, उसकी भी अंतिम इच्छा पूछी और पूरी की जाती है. इसलिए मेरी बात सुन लीजिए.

मेरे पिताजी जयमंगल सिंह को महराजा दृपनाथ शाही (1761 से 1787) ने पिठोरिया इलाका का घटवार बनाया था. काम घाटों की रक्षा करना. जिम्मेदारी पहरेदारी करना था. खर्च के लिए पिठोरिया सहित 84 गांवों की जागीर मिली. मुख्य जिम्मेवारी क्षेत्र को आक्रमण से बचाना था. हमलोग राजा के सिपाही थे. आज्ञा सुनकर पालन करना और करवाना ही प्रथम और अंतिम दायित्व था. एक परगना के मालिक थे, इसलिए परगनइत भी कहलाए.

ये तो इतिहासविदों के दिमाग की उपज है जो हमलोगों को ‘राजा’ कहा गया. सो चिए घटवार (घाटों की रक्षा करने वाला) को राजा कहना मान है या अपमान. राजा कहने के पीछे मैं अंग्रेजों का स्वार्थ समझ रहा हूं. प्रशंसा करो और अपने नापक इरादों को पूरा करवाओ.

मेरे पिताजी को जब घटवार बनाया गया, उस समय पिठोरिया इस क्षेत्र का मुख्य स्थल था. इन सड़कों से पिठोरिया घाटी और चुटूपालु घाटी से आक्रमण हो सकता था. इसे रोकना ही घटवार का मुख्य काम था. दोनों पथ जंगल व घाटी से भरे थे. हमलोग कैसे अकेले रहते? इसलिए हमने 37 जातियों को यहां बसाया.

सभी परिवारों को मुफ्त में घर बनाने व खेती के लिए जमीन दिए. कोई बेघर नहीं, कोई भूमिहीन नहीं. सभी जातियों का एक एक बुनियादी व्यवसाय. लोहड़िया लोहा गलाकर कड़ाही बनाते थे, कसेरा बर्त्तन. अंसारी कपड़ा बुनते थे, स्वर्णकार गहने बनाते थे. मेहमान आने पर एक शाम का भोजन मेरे यहां से जाता था. हर कोई सुखी-संपन्न. यकीन मानिए, पिठोरिया एक आदर्श गांव है. ऐसा गांव शायद ही कहीं मिले.

बाग-बगीचा, मंदिर-मस्जिद से सजा अनोखा है पिठोरिया गांव. यह हमलोगों की ही देन है. व्यवसाय के लिए किला के सामने मंगलवार को साप्ताहिक हाट लगवायी. दूर-दूर के व्यापारी अन्य वस्तुओं के अलावे विशेष रूप से लाख (लाह) और बर्त्तन लेने आते थे. उत्पादित वस्तुओं की खरीद-बिक्री की सुविधा पिठोरिया में ही उपलब्ध हो गई. इस व्यवस्था से कोई बेरोजगार नहीं रहा. सभी खुश, संपदा से पूर्ण.

सिंचाई के लिए किला के समीप परकला बांध बनावाया. ग्रामवासियों को नहाने में कष्ट न हो, इसलिए घाट बनावाया. तालाब के नजदीक मेरा भव्य किला था, जो आज भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है. हमलोग शिकार खेलने राढ़ह़ा जंगल जाते थे. राढ़हा बस्ती में एक तालाब बनवाया. तालाब के समीप देवी मंडप के पास वहां विश्राम गृह व तालाब बनवाया. परकला बांध के पास शिवमंदिर (वर्त्तमान में ढांचा खड़ा है) बनवाया. प्रतिदिन स्नान के बाद शंकर भगवान की पूजा-अर्चना करता था. मुझे नागपुरी गाना लिखने और गाने का शौक था. यहां तक सब कुछ ठीक रहा.

1881-32 में कोल विद्रोह हुआ. नागवंशी महाराजा का घटवार होने के कारण उनकी आज्ञा पर न चाहते हुए भी मुझे अंग्रेजों का साथ देना पड़ा. . अंग्रेज खुश हुए. मेरे पिताजी तत्कालीन गर्वनर विलियम बेंटिक ने आजीवन 113 रुपये पेंशन प्रतिमाह देने की घोषणा की.

1853 में मेरे पिताजी की मृत्यु हो गई. 1857 ई. के विद्रोह में आंदोलनकारियों से मैंने लोहरदगा के जिलाधीश डेविस, न्यायाधीश ओक, पलामू के एसडीओ बर्च और कमिश्नर डाल्डन को रांची से सुरक्षित पिठोरिया लाकर बचाया. घोड़ों की व्यवस्था कर 2 अगस्त 1857 को अपने भाई जगदीश सिंह के साथ हजारीबाग तक सुरक्षित भिजवाया. न्यायाधीश ओक के इजलास में झूठी गवाही दी. मेरी झूठी गवाही पर ही विश्वनाथ शाहदेव सहित अन्य को फांसी व कालेपानी की सजा हुई.

21 अक्टूबर 1857 को धोखा देकर नीलांबर-पीतांबर व अन्य क्रांतिकारियों को पकड़वाया और फांसी दिलवायी. घटवार बनाने वाले महाराजा संतुष्ट. उनकी सत्ता बच गई. अंग्रेज खुश. क्षेत्र पर उनका कब्जा बरकरार रहा. अंग्रेजों ने मुझे उपहारस्वरूप खिल्लत और पेंशन दिए.

आखिर ये किस काम के? देशवासियों की आह और आंदोलनकारियों के शाप से हमलोग नि:संतान हो गए. ठाकुर विश्वनाथ शाही के आक्रमण के डर से पहले ही पिठोरिया किला छोड़कर पलामू के जंगल में शरण लेनी पड़ी. न दिन को चैन और न रात में नींद. वनवास की नारकीय जिंदगी हमें पलपल दंश मारती रही, जब तक प्राण नहीं निकले.

मैं प्रायश्चित के साथ अपने पापों को स्वीकार रहा हूं. आज मेरे परिवार में तर्पण करने वाला कोई नहीं बचा है, लेकिन आप ग्रामवासियों को जो कुछ अर्पित कर सका हूं, उसे याद रखिए. अच्छे कर्मों के लिए याद रखिएगा. इसी से मेरी भटकती हुई आत्मा को मुक्ति मिलेगी.

सुजीत केशरी

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें