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Special Story : साहित्य अकादमी के COTLIT मेंबर बने महादेव टोप्पो, बोले- क्यों कर रहे धरतीखोर-आदमखोर विकास?

झारखंड के प्रख्यात साहित्यकार महादेव टोप्पो का जन्म रांची जिले के हुलसी गांव में वर्ष 1954 में एक कुड़ूख आदिवासी परिवार में हुआ था. उन्होंने स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण करने के साथ वर्ष 1994 में पुणे स्थित फिल्म एप्रेसिशन सर्टिफिकेट कोर्स भी किया.

रांची : झारखंड के प्रख्यात साहित्यकार महादेव टोप्पो को साहित्य अकादमी के सेंटर फॉर ओरल एंड ट्राइबल लिटरेचर (सीओटी लिट) का बोर्ड मेंबर नियुक्त किया गया है. साहित्य अकादमी की ओर से सीओटी लिट का मेंबर बनाए जाने पर प्रभात खबर डॉट कॉम ने उनसे विस्तृत बातचीत की. आइए, जानते हैं कि उन्होंने साहित्य के साथ झारखंड की आदिवासी विरासत, झारखंडी परिवेश, आदिवासी समुदाय की सोच और आधुनिक विकास पर किस प्रकार की चर्चा की.

झारखंडी साहित्यकार महादेव टोप्पो का एक परिचय

आपको बताते चलें कि झारखंड के प्रख्यात साहित्यकार महादेव टोप्पो का जन्म रांची जिले के हुलसी गांव में वर्ष 1954 में एक कुड़ूख आदिवासी परिवार में हुआ था. उन्होंने स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण करने के साथ वर्ष 1994 में पुणे स्थित फिल्म एप्रेसिशन सर्टिफिकेट कोर्स भी किया. उनकी प्रमुख रचनाएं हिंदी के पत्र-पत्रिकाओं में धर्मयुग, परिकथा, नया ज्ञानोदय, वागर्थ सबलोग, समयांतर, इंडिया टुडे, समकालीन जनमत, विश्व-रंग, बनास जन, जनसत्ता, प्रभात खबर आदि में प्रकाशित हुईं. इन रचनाओं में लेख, टिप्पणी, कहानी, कविताएं आदि शामिल हैं. उनकी प्रमुख रचनाओं में “जंगल पहाड़ के पाठ (कविता संग्रह)”; “सभ्यों के बीच आदिवासी (लेख संग्रह)” तथा कविता-संग्रह “जंगल पहाड के पाठ” का अंग्रेजी, मराठी और संताली में अनुवाद आदि शामिल हैं. उनकी कुछ कविताओं का जर्मनी, अंग्रेजी, मराठी, तेलुगू, संस्कृत, संताली, असमिया में भी प्रकाशन किया गया. उन्होंने कुड़ूख फिल्म “पहाड़ा’ तथा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित “एड़पा काना (गोइंग होम)” में अभिनय भी किया है. उन्होंने अपनी मातृभाषा कुड़ूख में लघु-नाटक की रचना भी की है. उन्हें बिरसा मुण्डा पुरस्कार समेत अनेक अनेक सम्मान प्रदान किए गए हैं. फिलहाल, वे झारखंड की राजधानी रांची में रहते हुए भाषा, साहित्य, कला, संस्कृति तथा मातृभाषा कुड़ूख के विकास के लिए कार्य कर रहे हैं.

साहित्य अकादमी को धन्यवाद

साहित्य अकादमी की ओर से सेंटर फॉर ओरल एंड ट्राइबल लिटरेचर (सीओटी लिट) का बोर्ड मेंबर नियुक्त किए जाने पर झारखंडी साहित्यकार महादेव टोप्पो ने कहा कि इस सम्मान के लिए साहित्य अकादमी को धन्यवाद. उन्होंने आगे कहा कि मैंने अपने जीवन में पहला लेख लिखा, तो झारखंड और आदिवासी पर ही लिखा और अब तक वही लिखता आ रहा हूं. उन्होंने कहा कि जब मैं पढ़ता था, तो उस समय देश में जो कुछ भी सामग्रियां प्रकाशित की जाती थीं, उसमें झारखंड और आदिवासियों के बारे में बहुत ही कम देखने को मिलता था. उस समय इतना कुछ नहीं लिखा जाता था.

इसलिए उठाई कलम

बातचीत के दौरान साहित्यकार महादेव टोप्पो ने आगे कहा कि मैं 1964-65 से धर्मयुग वगैरह पढ़ना शुरू कर दिया था. उस समय के अखबारों में भी लिखे जाते थे, उस समय पटना से दो अखबार प्रदीप और आर्यावर्त आते थे, तब उन अखबारों में आदिवासी के बारे में कम लिखा जाता था. उन्होंने कहा कि मैंने सोचा कि आप गंगा और हिमालय की बात करते हैं, विंध्याचल की बात करते हैं, बंगाल की बहुत तारीफ होती है, केरल की भी तारीफ होती है, लेकिन आप मध्य प्रांत के बीच बसे आदिवासियों की बात नहीं करते हैं. मेरे मन में विचार आया कि मध्य भारत आखिर क्यों वंचित है. मैं ज्योग्रफी वगैरह पढ़ता था. मेरे मन में ये विचार आया कि उनके लिए वो जीवन को अहमियत रखता है और मध्य भारत के लोगों का जीवन अहमियत क्यों नहीं रखता. इसे वंचित क्यों रखा जाता है. मैं किशोर था, तो मेरे मन में ये सवाल बार-बार उभर रहा था. मैंने बचपन में सुना था कि साहित्य समाज का दर्पण होता है, तो मुझे इसी बात ने लिखने के लिए प्रेरित किया.

साहित्य से हमारा इलाका अछूता क्यों?

उन्होंने कहा कि मैं हमेशा सोचता था कि ये कैसा साहित्य है, जिससे मैं और मेरा इलाका वंचित है. उधर, गंगा और पूर्णिया के इलाके से रेणुजी आ रहे हैं, गया का इलाका आ रहा है, तो फिर मेरा इलाका अछूता क्यों है? मेरे मन में आया कि हम खनिज दे रहे हैं. दुनिया को 39 प्रतिशत कोयला दे रहे हैं और उससे बिजली उत्पादन हो रहा है. उस समय अभ्रक और यूरेनियम था. सारा खनिज हमारा था, तो मैं सोचा कि आखिर साहित्य से हमारा इलाका अछूता क्यों है?

दो बातों ने मुझे काफी प्रेरित किया

महादेव टोप्पो ने आगे कहा कि उस समय राष्ट्रीय स्तर पर कामिल बुल्के का काफी नाम था. बाद में द्वारका प्रसाद जैसे लोग भी आए. जब इन लोगों को देखा, तो मैंने लिखना शुरू किया. मेरे सामने दो-तीन चीजें थीं. इसमें पहला यह था कि किसी अखबार या पत्रिका ने आदिवासी के बारे में छापा और उसने कुछ गलत लिखा, तो मैंने उसका विरोध किया. या यह बताने की कोशिश की कि इसमें ये-ये गलती है. किसी ने अच्छा लिखा, तो मैंने उसकी प्रशंसा भी की. दूसरा यह कि 1975 के आसपास मेरे कुछ पत्र धर्मयुग में छपे. उस समय धर्मयुग में छप जाना भी बहुत बड़ी बात थी. उसी समय मेरे में मेरी रचनाएं भेजने के लिए पत्र आ गया था, तो मैं बहुत घबरा गया था. उसी समय मुझे यह जो इलाका है, इसमें मैं दो तरह से काम कर सकता हूं. एक तो यह कि संपादक के नाम पत्र लिखना मेरे कर्तव्य जैसा एहसास होने लगा. इन पत्रों के जरिए मैं उन्हें बताने लगा कि आपने बहुत अच्छा लिखा है. तो मैं पत्रों के जरिए अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगा. मुझे लगा कि ये देश और समाज के लिए बेहतर हो सकता है.

पहली रचना भी धर्मयुग में ही छपी

उन्होंने कहा कि मैं आपको बताऊं कि मेरी पहली रचना भी धर्मयुग में ही प्रकाशित हुई. हालांकि, इससे पहले मैंने सारिका के लिए एक पत्र लिखा था. उसमें अटल बिहारी वाजपेयी संस्मरण छपा था, तो मेरा यह पत्र उसी संस्मरण पर था. उस मैंने प्रतिक्रिया दी थी. कन्हैया लाल नंदन संपादक थे, तो उन्होंने मेरे पत्र को लेख बनाकर प्रकाशित किया था. इसके बाद दो लेख धर्मयुग में छपे थे. उस समय मैं नौकरी कर रहा था, तो नौकरी करते हुए लिखते रहना मेरे लिए कष्टदायक लगने लगा. कष्टदायक इस अर्थ में कि उस समय मैं एक ही बार में पूरा लिखकर भेज नहीं पाता था. हालांकि, आजकल के प्रतिभाशाली लोग कहते हैं कि एक ही बार में लिखकर भेज दो. उस समय मैं वैसा नहीं कर सका. पहला लेख खिलाड़ियों के बारे में छपा. हमारे हॉकी खिलाड़ियों और बच्चों के बारे में लिखा था. उस समय सिल्वानुस डुंगडुंग ओलंपिक में गोल्ड जीतने वाली टीम के सदस्य थे. एक और लेख ‘हम आदिवासियों के बारे में क्या जानते हैं’ छपा था. ये 28 अगस्त 1981 को छपा था. उस समय हम तीन-चार लोग छपे थे. इसमें कृष्णकेतू जी थे, विद्याभूषण जी थे और महाश्वेता देवी थीं.

क्या होती है जनभागीदारी या जनवादी पत्रकारिता

उन्होंने कहा कि उस समय मैं पलामू में था. उस समय महाश्वेता देवी आदिवासियों के लिए काम कर रही थीं. वो बंधुआ मजदूरों के लिए काम कर रही थीं. मैं भी उनके साथ जुड़ा हुआ था. उसी समय मैं जनभागीदारी के लिए या जनवादी प्रत्रकारिता के बारे में जाना. मेरे लेख किस किस्म के हैं, मैं नहीं कह सकता.

धरतीखोर-आदमखोर विकास की ओर क्यों बढ़ रहे हैं?‍

21वीं सदी के साहित्यकारों और बच्चों को सलाह देने के सवाल पर उन्होंने कहा कि मैं तो यही कहूंगा कि आज जो प्रगति, सभ्यता और शिक्षा. आज जिसे हम विकास कह रहे हैं या यूं कहें कि जिसे हम आज विकास कह रहे हैं, उसे मैं कहता हूं कि हम एक आदमखोर और धरतीखोर विकास की ओर आगे बढ़ रहे हैं. ये कैसा विकास है? अगर ये विकास है, तो हम आत्मघाती विकास की ओर आगे क्यों बढ़ रहे हैं. आप जिस धरती में रह रहे हैं, उसे क्यों बर्बाद कर रहे हैं. उसे सुंदर क्यों नहीं बना रहे हैं. जिसे आप तकनीक और शिक्षा कह रहे हैं या जो भी कर रहे हैं, तो आप दुनिया को सुंदर क्यों नहीं बना रहे हैं. मैं बचपन से पेड़-पौधे और जीव-जंतुओं से जुड़ा रहा हूं. अगर बचपन में हमलोग बेर के पेड़ से बेर फल झाड़ते थे, तो हमारे पुरखे कहा करते थे कि कुछ चिड़ियो चुरगुनी के लिए भी छोड़ दो. अब धरती की नदिया सूख रही हैं, पेड़ काटे जा रहे हैं, तो आदिवासी दुखी क्यों नहीं होगा? वह आक्रोशित क्यों नहीं होगा? आदिवासी ने उस दर्द और प्रकृति के साथ जुड़ाव को बचाया. आज आदिवासी साहित्य के बारे में बात करते हैं, लेकिन इससे पहले लोगों ने दूसरे माध्यमों से एहसास कराया. हिंदी जगत ही नहीं, पूरे विश्व जगत को कराया. आज उसकी अहमियत को लोग समझ रहे हैं. मैं कहता हूं कि जो चट्टान टूट रहे हैं, उसकी तकलीफ को भी तो समझो. नदियों के पानी पीने लायक नहीं हैं और हवा इतनी गंदी कर दे रहे हैं, कि आप स्कूल बंद दे रहे हैं.

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प्रकृति की नरेटी दबाइएगा, तो अकबकाएगी नहीं?

उन्होंने कहा कि अभी मैंने कोविड-19 पर एक लेख लिखा, तो मेरे गांव के एक बुजुर्ग ने कहा, ‘अरे भाई, किसी की नरेटी दबाओगे, तो वो अकबकाएगा कि नहीं?’ उसने कहा कि ये जो प्रकृति है, उसे भी सांस लेने की जरूरत है. जब आदमियों ने प्रकृति की नरेटी दबाने लगी, तो वह अकबका गई और तब आपको उसे सांस लेने के लिए अवसर देना पड़ा. इतनी बड़ी महामारी आ गई कि पूरी दुनिया की गतिविधियां ही बंद हो गईं और प्रकृति ने खुलकर सांस लिया. अब आप सोचिए कि गांव के एक बुजुर्ग व्यक्ति ने कितनी बड़ी बातें कह दीं. उन्होंने कहा कि इस तरह की छोटी-छोटी बाते हैं, जिन पर ध्यान देने की जरूरत है और हम सभी को प्रकृति से जुड़ी छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना चाहिए.

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