जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के संघर्ष की गारंटी रहे महेंद्र सिंह

बल्कि उससे से कहीं आगे, लोगों की जिंदगी और उनके घर-परिवार समेत आम लोगों के साथ पूरे सामाजिक स्तर पर एक अटूट रिश्ता कायम किया. उसे ही निभाते हुए भाकपा माले की राजनीति की और शहादत दी.

By Prabhat Khabar News Desk | January 16, 2024 5:45 AM

आपकी जिंदगी के सारे सवाल हम हल कर देंगे इसका कोई वायदा, कोई गारंटी हम आपसे नहीं करना चाहते हैं, लेकिन एक बात हम आपको ज़रूर बता देना चाहते हैं कि जब तक आप हमारे साथ हैं, जूते की तरह पार्टी नहीं बदलेंगे और कोई उपहार या अटैची लेकर आपको शर्मिंदा होने का मौका नहीं आने देंगे. आत्मविश्वास से भरी ये बातें सिर्फ महेंद्र सिंह जैसे जन राजनीतिज्ञ ही पूरे दावे के साथ कह सकते थे.

एक जनप्रिय विधायक के रूप में अपने क्षेत्र की जनता से सिर्फ वोट लेने और देने तक का ही रिश्तामात्र नहीं रखा. बल्कि उससे से कहीं आगे, लोगों की जिंदगी और उनके घर-परिवार समेत आम लोगों के साथ पूरे सामाजिक स्तर पर एक अटूट रिश्ता कायम किया. उसे ही निभाते हुए भाकपा माले की राजनीति की और शहादत दी. उनकी शहादत की गहरी टीस आज भी व्यापक जनसमुदाय और लोकतांत्रिक समाज को पीड़ा और क्षोभ से भर देती है.

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कड़वा सच है कि मौजूदा राजनीति में हर चीज़ के मायने बदल दिये गये हैं. और, आजादी के 75 वर्ष पूरा करने वाले देश की लोकतांत्रिक प्रणाली का चुनौतीपूर्ण स्याह पक्ष पूरी तरह से उजागर हो चुका है कि अब राजनीति को भी क्रिकेट के ट्वेंटी-ट्वेंटी मैच जैसी स्थितियों में पहुंचाया जा चुका है. जिसमें कभी भी, कुछ भी हो जाना एक आम परिघटना बन गयी है. राजनीतिक दलों के स्वयंभू सुप्रीमो-नेता-प्रवक्ताओं के श्रीमुख से भी इसकी संपुष्टि होती रहती है कि राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन-दोस्त नहीं होता है. झारखंड राज्य में हुए दलों-नेताओं का पाला बदल प्रकरण हमारे प्रत्यक्ष सामने है.

महेंद्र सिंह भाकपा माले के क्रांतिकारी कम्यूनिष्ट कार्यकर्ता बनने के काफी पहले से ही आम जन के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए जमीनी आंदोलन की एक मुखर आवाज बन चुके थे. संघर्ष की इसी जनचेतना ने उन्हें वामपंथ का अगुवा चिंतक और सेनानी बनाया. यही वजह रही कि उन्होंने जनता के वोट को महज राजनीति में आगे बढ़ने का जरिया मात्र नहीं समझा. बल्कि चालू-राजनीति के तमाम लटकों-झटकों से परे, उन्होंने आम जन के लोकतांत्रिक विवेक पर भरोसा किया. जिसे वे अपने संबोधनों में पूरे आत्मीय लहजे में व्यक्त भी करते थे कि आप किसको वोट देंगे, ये आपकी पसंद का मामला है. जैसे अपनी पसंद से ज़मीन-मकान खरीदते-बनवाते या बाजार में सामान खरीदते हैं, इसलिए मैं आप पर छोड़ता हूं कि आप किसे वोट देंगे. निज स्थानीयता के प्रबल समर्थक होते हुए भी लोकतांत्रिक व्यापकता के प्रबल हिमायती रहे.

अपने तर्कपूर्ण-सटीक बातों और खनक भरे वक्तव्यों के लिए वे आज भी व्यापक जनमानस के दिलों में बसे हुए दिखते हैं. उनके विचारों से असहमति रखने वाले भी उनके शालीन और मर्यादित व्यवहार के हमेशा कायल रहे. जिसे उन्होंने ने अपनी कविताओं तक में भी उसी सहजता के साथ व्यक्त किया- गणतंत्रवादियों! / ऐ कानूनविदों, चुप क्यों हो? / हत्यारों को दंडित करने की अकेली आवाज़ कब तक गूंजेगी/ नक्कारखाने में तूती की तरह? / सत्य कब तक बना रहेगा चाकर/ लोकतांत्रिक सदन में.

(लेखक अनिल अंशुमन भाकपा माले के नेता व सांस्कृतिक कर्मी हैं.)

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