महुआ यानी ‘झारखंड की किशमिश’ (Raisin of Jharkhand) प्रदेश के आदिवासी समुदाय की आय का मुख्य स्रोत माना जाता है. पर्व-त्योहार से लेकर शादी-ब्याह तक में महुआ का इस्तेमाल होता है. इसकी चर्चा स्थानीय गीतों के अलावा हिंदी, भोजपुरी, मैथिली और अन्य प्रांतों के लोकगीतों में भी है. यही महुआ आदिवासी समाज के खानपान में रचा-बसा है.
बसंत के आते ही महुआ के वृक्ष से पत्ते झरने लगते हैं. कुछ दिनों बाद उसमें फूल आते हैं. ये रात भर झरते रहते हैं. महुआ पेड़ के चारों ओर फूलों की सुगंध फैल जाती है. इन फूलों को ग्रामीण सुखाकर रख लेते हैं. आदिवासी गर्मी के दिनों में इससे लजीज व्यंजन बनाते हैं. माना जाता है कि गठिया, अल्सर जैसी बीमारियों में महुआ का सेवन फायदेमंद है.
महुआ का इस्तेमाल कई तरह से किया जाता है. महुआ के बीज से तेल निकालकर उसका उपयोग घी के रूप में भी किया जाता है. इतना ही नहीं, महुआ से बिस्कुट, चॉकलेट, जूस व पाचक आदि भी बनाये जा रहे हैं. महुआ से बनी ये चीजें बेहद स्वादिष्ट और पौष्टिक होती हैं. इसलिए बाजार में इनकी डिमांड भी अच्छी-खासी होती है.
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महुआ का पेड़ विशालकाय होता है. हालांकि, यह बहुत ऊंचा नहीं होता, लेकिन इसका तना काफी मोटा होता है. बेहद तेजी से बढ़ने वाले इस पेड़ के तने में बहुत सी गांठें होती हैं. 20-25 वर्षों में फल-फूल देना शुरू करता है और सैकड़ों वर्षों तक फलता-फूलता रहता है. झारखंड के जंगलों में बहुतायत में पाये जाने वाले इस पेड़ को लोग अपने घर के आसपास लगाते हैं.
महुआ के पेड़ के फल एवं फूल का तो इस्तेमाल होता ही है, इसकी लकड़ियों को भी अलग-अलग तरीके से काम में लिया जाता है. महुआ के फल की सब्जी बनती है. साबुन, डिटर्जेंट, वनस्पति मक्खन बनाने तथा ईंधन के रूप में इसके तेल का प्रयोग किया जाता है. इसकी खल्ली का उपयोग चोकर के रूप में जानवरों को खिलाने में करते हैं. खेतों की उपज बढ़ाने के लिए भी खल्ली का प्रयोग करते हैं.
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झारखंड के अलावा इसके पड़ोसी राज्यों पश्चिम बंगाल और ओड़िशा में भी महुआ के पेड़ पाये जाते हैं. इन राज्यों में महुआ के फूलों को सुखाकर रखा जाता है. शराब उत्पादन में महुआ का खूब इस्तेमाल होता है. ग्रामीण स्तर पर भी और औद्योगिक स्तर पर भी. इसकी छाल से दवा बनायी जाती है. लकड़ी से छोटे-मोटे औजार बनते हैं. इस वृक्ष साल में 20 किलो से 200 किलो तक महुआ फूल देते हैं.