My Mati: हाल के समय में जब झारखंड में ‘भाषा’ को लेकर एक नई बहस, आंदोलन और संघर्ष का सिलसिला शुरू हुआ है, तब यह चिंतन-मनन करना निश्चय ही बहुत जरूरी हो गया है कि राज्य बनने से अब तक झारखंड की क्षेत्रीय व जनजातीय भाषाओं का हश्र क्या हुआ, उसका भविष्य क्या है और उसकी उन्नति के लिए काम करना कितना जरूरी है. झारखंड में मान्यता प्राप्त नौ जनजातीय व क्षेत्रीय भाषाएं हैं. उनमें पांच जनजातीय भाषा (संताली, मुंडारी, हो, खड़िया और कुडुख) तथा चार क्षेत्रीय भाषा (खोरठा, कुड़माली, नागपुरी व पंचपरगनिया) शामिल हैं. इनमें आठवीं अनुसूची में अभी तक एकमात्र संताली ही शामिल ही पाई है.
ऐसा नहीं है कि केवल क्षेत्रीय भाषाओं को लेकर ही भाषाई विकास की संपूर्ण अवधारणा को सरजमीं पर उतार लेंगे, लेकिन इतना तो जोर देकर जरूर कहा जा सकता है कि इसके लिए क्षेत्रीय भाषाओं को ‘भाषा सेतु’ के रूप में अवश्य इस्तेमाल करना चाहिए. अगर क्षेत्रीय व जनजातीय भाषाओं को ‘भाषा सेतु’ के रूप में इस्तेमाल किया जाए तो निश्चित तौर पर उससे बच्चे अधिक पढ़-समझ पाएंगे और उनका शैक्षणिक विकास अधिक हो सकेगा.
वर्ष 2016 में यूनिसेफ ने झारखंड के कल्याण विभाग के सहयोग से प्राथमिक स्तर पर पहली व दूसरी कक्षा के लिए राज्य की लगभग सभी क्षेत्रीय व जनजातीय भाषाओं पर किताबें तैयार की है. उसमें गणित व छोटी-छोटी कहानियों से लेकर अन्य तरह की किताबें सरल और रोचक तरीके से प्रकृति व परिवेश के अनुरूप तैयार की गई है. भाषाविद दिनेश दिनमणि बताते हैं कि यूनिसेफ के तत्कालीन कॉर्डिनेटर विनय पटनायक ने राज्य की अलग-अलग क्षेत्रीय व जनजातीय भाषाओं पर काम करने वालों भाषा विद्वानों के सहयोग से इन किताबों को काफी मेहनत से तैयार कर उसे स्कूलों में लागू कराने के लिए प्रस्ताव राज्य सरकार को सौंपा था, पर सरकार ने उसकी गंभीरता नहीं समझी. नतीजा, अभी तक उसे लागू करने पर कोई विचार नहीं हुआ है.
22 वर्षों में भाषा अकादमी का गठन भी झारखंड में नहीं हो सका है. इसके गठन से भाषा-साहित्य को लेकर अध्ययन-अनुशीलन, उत्कृष्ट साहित्य का प्रकाशन, साहित्यकारों का संरक्षण व प्रोत्साहन जैसे अनेक कार्य हो सकते थे. अन्य राज्यों की तरह ‘साहित्य अकादमी सम्मान’ देकर साहित्यकारों, रचनाकारों को प्रोत्साहित किया जा सकता था. साहित्यकारों को प्रोत्साहन मिलने से राज्य में उत्कृष्ट साहित्य सृजन को बढ़ावा देने में मदद मिलती.
भाषा के विकास के लिए मानकीकरण भी निहायत जरूरी है. झारखंडी भाषाओं का मानक रूप तैयार करने के लिए शासकीय स्तर पर कोई पहल अभी तक नहीं हुई है. रचनाकार अपने स्तर से जैसा चाह रहे, रचना तैयार कर रहे हैं. इससे विद्यार्थियों को दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. इस असुविधा को दूर करने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं का मानकीकरण व शब्दावली को बढ़ावा देना भी उतना ही जरूरी है. वैसे, शब्द भंडार के मामले में झारखंड की कई क्षेत्रीय भाषाएं काफी समृद्ध है. उसकी इतनी सारी शब्दावली हैं कि अगर उसे संग्रहित किया जाए तो उससे क्षेत्रीय भाषाओं के साथ-साथ हिंदी भी अधिक मजबूत हो सकेगी.
‘भाषा सेतु’ के रूप में इस्तेमाल होने से क्षेत्रीय भाषाओं के साथ-साथ हिंदी जैसी राष्ट्रीय भाषा को भी एक नई मजबूती दी जा सकती है. हिंदी जैसी राष्टीय भाषाओं की मजबूती की भावना को अपनाकर ही हम भाषाई संपन्नता की अवधारणा को सही मायने में सरजमीं पर उतारने में कामयाब हो सकते हैं. इसको स्वीकारना पड़ेगा कि भाषा के तौर पर हिंदी एक शरीर है तो क्षेत्रीय भाषाएं उसकी धमनियां. अगर शरीर नष्ट हो गया तो धमनियों का क्या मोल रह जाएगा? और अगर धमनियां ही नहीं बची तो वह शरीर ही किस काम का रहेगा?
ऐसा नहीं है कि झारखंड में क्षेत्रीय भाषाओं को लेकर कोई काम ही नहीं हुआ है. लेकिन जितनी उम्मीदें थी और जितना होना चाहिए, उसके मुकाबले उन कार्यों की गिनती नहीं के बराबर में होती है. जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग ने अभी-तक एक भी शिक्षक की नियमित नियुक्ति नहीं की है. हाल में बैकलॉग के नाम पर नागपुरी, कुड़माली और संताली में कुछ बहाली की गई है. कुछ अकाउंट टीचर बिना पैसा का काम करते-करते अब जाकर यूजीसी मानदंड पर वेतन मिलना दो-चार सालों से शुरू हुआ है. हाई स्कूल टीचर की बहाली रघुवर सरकार के कार्यकाल में हुई थी. उससे पहले कभी भी क्षेत्रीय भाषा में टीचर की बहाली नहीं हुई थी. कंपटीशन लेवल पर क्षेत्रीय भाषा को शामिल करने से एक रुझान इन भाषाओं के प्रति बढ़ा है. साहित्य को विभिन्न पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया है तो उससे साहित्यकारों को थोड़ी खुशी, थोड़ा संतोष मिल रहा है. लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के लिए इतना भर काफी नहीं है. सिर्फ पाठ्यक्रमों में शामिल कर देने से ही भाषा का विकास नहीं हो जाएगा. उसकी अनुषंगी बातों पर भी सरकार को पहल करनी चाहिए.
स्कूल के सिलेबस में तो क्षेत्रीय भाषाओं को शामिल कर दिया गया है, लेकिन जनजातीय व क्षेत्रीय भाषाओं में किताबें नहीं है. सरकार पाठ्यक्रम तैयार कराती है, लेकिन पाठ्यक्रम से जुड़ी किताबें सरकार के स्तर पर अभी-तक उपलब्ध नहीं है. कुछ भाषा संगठनों के प्रतिनिधियों ने जैक अध्यक्ष से मिलकर अपनी बात भी रखी कि उनकी किताबें पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए ले ली जाए, लेकिन जैक अध्यक्ष ने ‘ऐसा कोई प्रावधान नहीं, कह कर प्रस्ताव को खारिज कर दिया. मोटे तौर पर सार यही है कि तमाम चुनौतियों के बीच झारखंड में क्षेत्रीय भाषाओं का एक भविष्य तो जरूर है, लेकिन उसके लिए जरूरत है तो केवल मजबूत इच्छाशक्ति के साथ शासकीय स्तर पर ठोस पहल होने की. अगर ऐसा हो सका तो राज्य में क्षेत्रीय भाषाएं मजबूती से स्थापित होने में निश्चित तौर पर सफल हो सकेंगी.