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My Mati: जल-जंगल-जमीन के लिए संघर्ष की याद दिलाती है बिरसा की शहादत

जून महीना झारखंड के इतिहास में आदिवासी समुदाय के जल-जंगल-जमीन पर अपने परंपरागत अधिकार को कायम रखने के लिए शहादती संघर्ष की याद दिलाता है.

दयामनी बरला

आज बिरसा मुंडा का शहादत दिवस है. जल-जंगल जमीन की रक्षा के लिए मात्र 25 साल की उम्र में बिरसा मुंडा ने कई बार जेल की जिंदगी काटी थी. बिरसा मुंडा सहित 482 से अधिक आंदोलनकारियों पर मुकदमे चले. सैकड़ों मुकदमे दर्ज किये गये. बिरसा मुंडा को पकड़ने के लिए अंग्रेज सैनिक जंगल–जंगल छान मार रहे थे. तीन फरवरी 1900 को बिरसा मुंडा को रोगोतो जंगल से गिरफ्तार किया गया. रांची सेंट्रल जेल में बिरसा मुंडा अपने साथियों के साथ बंद रहे. 9 जून 1900 को बिरसा मुंडा अबुआ राइज-अबुआ दिशुम के लिए शहीद हो गये. बिरसा मुंडा की शहादत को याद करते हुए झारखंड के सभी वीर शहीदों तिलका मांझी, सिदो-कान्हू, चांद-भैरव, वीर बुधु भगत, तेलंगा खड़िया, सिंदराय मानकी, बिंदराय मानकी, फुलो-झानो, माकी-देवमनी, गया मुंडा, डोंका मुंडा, मझिया मुंडा सभी वीर शहीदों को श्रद्धांजलि और हूलउलगुलान जोहार.

जून महीना झारखंड के इतिहास में आदिवासी समुदाय के जल-जंगल-जमीन पर अपने परंपरागत अधिकार को कायम रखने के लिए शहादती संघर्ष की याद दिलाता है. बिरसा मुंडा के संघर्ष को 15 नवंबर, 9 जनवरी डोंबारी बुरु और 9 जून शहीद दिवस के रूप में याद करते हैं. अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लंबे समय तक जेल में बंद रखा. जब बिरसा मुंडा और उनके साथियों को कोर्ट में पेशी के लिए लाया जाता था, तब मोटे-मोटे लोहे के जंजीरों से उनके पैर को जकड़े रहते थे. हाथों में मोटे-मोटे लोहे की बेड़ियां डालते थे. चलते-चलते उनके पैर लहूलुहान हो जाते थे. जेल की काली कोठरी में बंद बिरसा मुंडा और उनके साथी अंग्रेजी शासन, जमींदारों के शोषण, दमन और जंगल-जमीन की लूट से आदिवासी समाज की मुक्ति के लिए बेचैन थे. बिरसा मुंडा सभाओं में कहते थे– “होयो दुदुगर हिजु ताना–राहडी को छोपायपे (दुश्मनों द्वारा संकट आने वाला है. संघर्ष के लिए तैयार हो).”

30 जून को सिदो-कान्हू की अगुवाई में संताली आदिवासियों के भोगनाडीह के बलिदानी हुल को याद करते हैं. इस हूल में 20 हजार संताली आदिवासी अंग्रेजों के बंदूक की गोलियों से छलनी हो गये थे. अंग्रेजी हुकूमत और उनके सहयोगी जमींदारों, साहूकारों के खिलाफ संताल परगना, छोटानागपुर से लेकर कोल्हान तक के आदिवासी समुदाय रक्तरंजित संघर्ष किये. हजारों-हजार आदिवासियों ने शहादत दी. जरा सोचें, ये बलिदान किसके लिए था, और क्यों दिया? सभी शहीदों का सपना था, हमारे गांव में हमारा राज, अबुआ हातु–दिशुम रे अबुआ राइज की आत्मा को पुनर्जीवित-पुनर्स्थापित करना था. जंगल-जमीन पर आदिवासी समुदाय के परंपरागत सामुदायिक अधिकार को पुनर्स्थापित करना था, जिसे अंग्रेज शासन व्यवस्था द्वारा खंडित कर दिया गया था. जंगल-जमीन और पानी पर आदिवासी समुदाय का सामुदायिक अधिकार था, इसे व्यक्तिगत संपत्ति में तब्दील कर दिया गया था.

बिरसा मुंडा, कानू मुंडा, कांडे मुंडा, गया मुंडा, माकी मुंडा जैसे सैकड़ों बिरसा उलगुलान के शहीदों के लहू से ही लिखा गया है छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 और मुंडारी खूुंटकटी अधिकार. संताल हूल के शहीदों के संघर्ष ने संताल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 लिखने को मजबूर किया. हो आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन पर परंपरागत अधिकार पर हमला के खिलाफ हो आदिवासी विद्रोह की देन है विलकिंसन रूल.

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी समुदाय के समझौताविहीन शहादती संघर्ष को आजाद भारत के संविधान में भी सम्मान मिला. आदिवासी समुदाय के प्रकृतिमूलक जीवनशैली को देश के राजनीतिज्ञों-विशेषज्ञों ने समझा, इसीलिए देश के संविधान में आदिवासी इलाके के लिए विशेष कानून का प्रावधान किया गया, जो पांचवीं अनुसूची और छठी अनुसूची के रूप में संविधान में है. बिरसा मुंडा सहित तमाम आदिवासी शहीदों का सपना आज चूर–चूर होता दिखाई दे रहा है. सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, पांचवीं अनुसूची, पेसा कानून का हश्र हम देख रहे हैं. प्राकृतिक धरोहर को मुनाफा कमाने वाली वस्तु बना दिया गया है. कॉरपोरेट पूंजी के सामने सरकारें घुटना टेक चुकी हैं.

देश ही नहीं दुनिया भर में विकास बनाम विस्थापन और विनाश का सत्य हमारे सामने है. विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुध दोहन से उत्पन्न विनाश लीला को विकसित देशों ने भी स्वीकारा है. वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी, राजनीतिक, शासक-प्रशासक सभी जलवायु परिर्वतन, ग्लोबल वार्मिंग, सूखा-अकाल, धरती का बढ़ता ताप, अटलांटिक महासागर में तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर, समय-बेसमय समुद्र-महासमुद्र से उठते तूफानों का तांडव, विस्थापन-पलायन, बेरोजगारी, भूमिहीनों की बढ़ती संख्या जैसे चुनौतियों से चिंतित हैं. वैज्ञानिक और अर्थशास्त्री भी मानने लगे हैं– कि आदिवासी समुदाय के प्रकृतिकमूलक साहचर्य जीवनशैली ही एक मात्र रास्ता है, जो इन चुनौतियों का सामना कर सकता है, जो प्रकृति के साथ रहते हैं और पर्यावरण का संरक्षण करते हैं. विश्व मानने लगा है कि सस्टेनेबल डेवलपमेंट के लिए प्रकृति की ओर वापस जाना होगा. यानी, कम बैक टु द रूट.

बिरसा मुंडा के नाम झारखंड की राजनीति चलती है. बिरसा उलगुलान का परिभाषा बदल दी जा रही है. अब तो पूंजीपतियों की व्यवसायिक संस्थाएं, उद्योग-धंधे भी बिरसा मुंडा के नाम से चल-बढ़ रहे हैं. सबके जुबान पर बिरसा मुंडा का नाम है, लेकिन लक्ष्य अलग है. जल-जंगल, जमीन में गांव की सामुदायिक स्वामित्व की जगह भूमि बैंक ने ले ली. कल गांव मालिक था, अब स्वामित्च योजना के तहत कोई भी बाहरी व्यक्ति या कंपनी गांव के सामुदायिक जमीन का मालिक बन सकता है. सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, मुंडारी खूंटकटी अधिकार, विलकिंसन रूल, पांचवीं अनुसूची, पेसा कानून संविधान के पन्नों में है, लेकिन धरातल पर इसकी आत्मा नष्ट की जा रही है. आज समय है डिजिटालाइजेशन का. जमीन-जंगल के कागजात, 1932 के खतियान, विलेज नोट, गांव का नक्शा सब डिजिटल हो गया. विकास की राह में लैंड रिकॉर्ड मॉडर्नाइजेशन प्रोग्राम के तहत अब ये सारे दस्तावेज सॉफ्टवेयर/हार्डवेयर/सर्वर में उपलब्ध होगा. वन नेशन वन लॉ, वन नेशन वन लैंड रिकॉर्ड, जिसका नियंत्रण नेशनल इन्फॉर्मेटिक सेंटर करेगा.

बड़ा सवाल है इस बदलती दुनिया, बदलती परिस्थिति में अल्पशिक्षित ग्रामीण आदिवासी-मूलवासी किसान समुदाय, दलित, मेहनतकश समुदाय कहां खड़े हैं. राज्य के बहुत सारे गांवों में 80 प्रतिशत किसान अपने जमीन का लगान ऑनलाइन भुगतान नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उनके जमीन के दस्तावेजों में भारी छेड़छाड हुआ है. खतियान से जमीन का प्लॉट गायब है. पंजी-टू में रातों रात कोई दूसरा मालिक बन गया. कहीं-कहीं 95 प्रतिशत रैयतों के पंजी-टू में जमीन का प्लाट ही गयाब है. इसको ठीक करने के लिए भारी रकम की उगाही चल रही है. सवाल है क्या हमारे शहीदों के सपनों का यही झारखंड राज्य है? जरूरत है गांव, समाज, जंगल, जमीन, भाषा-संस्कृति को खत्म करने वाली नीतियों व कार्यक्रमों को समझने की. गांव, समाज, प्राकृतिक धरोहर की रक्षा के लिए संगठित ताकत को मजबूत करने की. बिरसा मुंडा ने कहा था– “संघर्ष के सभी हथियार दे कर जा रहा हूं, जब भी समाज संकट में आए, इसका इस्तेमाल करना.”

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