My Mati : झारखंड के एक सामाजिक और सांस्कृतिक अगुआ थे डॉ. रामदयाल मुंडा
My Mati: वर्ष 2010 में डॉ. रामदयाल मुंडा को पद्मश्री से नवाजा गया. इस सम्मान को उन्होंने सामूहिक रूप से स्वीकार किया और कहा- “इस सम्मान का मैं अकेले हकदार नहीं हूं.” डॉ. रामदयाल मुंडा एक साधारण आदिवासी परिवार में जन्में थे. उन्होंने जमीनी स्तर पर भारत के दलितो व आदिवासियों के उत्थान के लिए काम किया.
My Mati : 23 अगस्त 1939 को गंधर्व सिंह एवं लोकमा के एकलौते पुत्र डॉ. राम दयाल मुंडा का जन्म झारखंड के दिउड़ी गांव मे हुआ. मुंडाओं के सांस्कृतिक नामकरण परंपरा (शाकिंग नुतुम) अनुसार इनका नाम इनके मामा श्री राम मुंडा के पहले नाम ‘राम’ को रखा गया. मंडल में परंपरा है शाकिंग नाम रखने की. इस परंपरा के अनुसार जन्मे बच्चे का नाम घर या परिवार, मेहमान के ही किसी बड़े बुजुर्ग का नाम बच्चे को दिया जाता है. इस नाम का चुनाव प्राकृतिक रूप से और मनचाहे व्यक्ति का नाम भी रखा जा सकता है और फलां व्यक्ति बच्चे का सामाजिक अभिभावक होने की जिम्मेदारी निभाता है.
एक साधारण आदिवासी परिवार मे जन्मे मुंडा जी की प्राथमिक शिक्षा लूथर मिशन स्कूल अमलेसा और माध्यमिक शिक्षा, ठक्कर बाप्पा छात्रावास में रहते हुए 1953 में खूंटी हायर सेकेंडरी स्कूल से प्राप्त किया. वर्ष 1963 मे रांची विश्वविद्यालय से मानवशास्त्र विषय में स्नातक एवं शिकागो विश्वविद्यालय से वर्ष 1968 में अपनी स्नातकोत्तर की डिग्री अपने शोध विषय-प्रोटो खेरवेरियन ध्वन्यात्यमक प्रणाली( प्रोटो खेरवारियन फोनेमिक सिस्टम) में लिया और 1975 मे पीएचडी की डिग्री ली, उनके पीएचडी का शीर्षक पांचपरगाना के वैष्णव गीतों की संरचनात्मक विशेषताएं: कविता की भाषा का अध्ययन (स्ट्रक्चरल फीचर्स ऑफ वैष्णव सांग्स ऑफ द पंचपरगना(डिस्ट्रिक्ट ऑफ बंगाल): ए स्टडी इन द लैंगुएज ऑफ पोएट्री)शिकागो और मिनिसोटा के विश्वविद्यालयों में पढ़ने के बाद करीब 20 साल वहां पढ़ाया भी. बाद में जनजातीय और क्षेत्रीय भाषाओं के नवस्थापित विभाग का कार्यभार संभालने हेतु उस दौरान रहे रांची यूनिवर्सिटी के कुलपति डॉ कुमार सुरेश सिंह ने डाॅ मुंडा को रांची बुलाया. आदिवासी भाषाएं जैसे मुंडारी, संथाली, कुड़ुख, को विभाग पाठ्यक्रम में शामिल करने ने इनकी प्रमुख भूमिका रही.
रांची विश्वविद्यालय के इस जनजातीय विभाग और विभाग के प्रांगण में बने अखड़ा को अपने सोच के अनुरूप ढालने के लिए उन्होंने श्रमदान भी दिया. शैक्षणिक संस्थान में ओपन डांस ग्राउंड (अखड़ा) और उसके बीचो-बीच करम और सखुआ के पेड़ का सोच अपने आप में अनोखा है. चूंकि ये जनजातीय विभाग है, इसलिए यहां का पठन-पाठन विषय प्रकृति के इर्द-गिर्द ही संभव है. इस विभाग के निर्माण के साथ-साथ ही आदिवासी बुद्धिजीवी वर्ग अलग झारखंड राज्य निर्माण चिंतन-मंथन का स्थान बन गया. परिणामस्वरूप ‘झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन’ का गठन हुआ. इसमें डॉ रामदयाल मुंडा की अहम भूमिका रही. राज्य और स्थानीय लोगों के बीच संवाद कायम कराया. उस दौरान प्रधानमंत्री रहे स्वर्गीय श्री राजीव गांधी के द्वारा एक कमेटी ‘झारखंड मैटर्स’ का गठन किया गया. वास्तव में यह नये राज्य झारखंड के गठन की समिति की रिपोर्ट का आधार था.
पद्मश्री डा. रामदयाल मुंडा सबसे पहले तो एक किसान, फिर शिक्षाविद, सामाजिक कार्यकर्ता, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने वाले पारंपरिक आदिवासी कलाकार एवं संगीतकार मुंडा जी बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी थे. उन्होंने जमीनी स्तर पर भारत के दलितो व आदिवासियों के उत्थान के लिए काम किया. उनकी सोच राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि वैश्विक थी. राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी एवं स्वयंसेवी संस्थाओं से मिलकर जन विकास के अनगिनत कार्य में सक्रिय भूमिका रही, खासकर वन विस्तार एवं संरक्षण में आदिवासी समाज का महत्व और उनकी भागीदारी के क्षेत्र में काम किया.
राष्ट्रीय स्तर पर ही आदिवासी जनहित अधिनियम के प्रारूप निर्माण कार्य, विशेकर ग्राम स्वशासन (पेसा) आदिवासी नीति एवं वन नीति नियम निर्माण में इनके योगदान को देखा जा सकता है. अंतरराष्ट्रीय स्तर में संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह और न्यूयॉर्क में आदिवासी मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र के स्थायी मंच नीति निर्माण में भारत से इन्होंने आदिवासियो का नेतृत्व किया. वर्ष 1987 में दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर पर संगठन- इंडियन कनफेडरेशन ऑफ इंडीजीनस एंड ट्राइबल पीपल्स की नींव रखी और इसके माध्यम से देश के विभिन्न राज्यों के आदिवासी संगठनों को जोड़ा.
उनकी विद्वता और आदिवासीयत ने उन्हें अपने समाज के प्रति समर्पित किया. ये भावना उनके लिखे गीतों में स्पष्ट दिखाई देती हैं. उन्हीं गीतों में से एक गीत जो उन्होंने अलग राज्य के आंदोलन के समय लिखा था ‘अखंड झारखंड में अब भेला बिहान हो अखंड झारखंड में’. इस गाने में उन्होंने यहां के विभिन्न आदिवासी समाज एवं सदान को अपने हक अधिकार के लिए एकजुट होने की बात की है. एकजुटता ऐसी कि एक के दुख से सभी दुखी एवं एक के सुख से सभी सुखी होने चाहिए. ऐसी दूरदर्शिता एवं सद्भावना बहुत कम लोगों में देखने सुनने को मिलती है.
झारखंड की संस्कृति को विश्व के मानस पटल पर लाने में मुंडा जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा. 1987 में सोवियत रूस में आयोजित भारत उत्सव मे झारखंड से पहली बार संस्कृतिक टीम लेकर गये और यहां के नगाड़े, ढोल, भेंर के साथ पाइका नृत्य की अमिट छाप छोड़ आए. ये सिलसिला बाली (इंडोनेशिया), फिलीपींस, ताइपेइ, युरोप आदि देश में भी चला. एक शिक्षाविद के साथ-साथ अपनी भाषा संस्कृति के साथ लगाव और अपनी मातृभूमि से प्रेम अटूट था. स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा एंव उनके शहीद साथियों की रणभूमि डोंबारी बुरु में जन सहयोग एवं सरकारी विभागों के साथ आदिवासी महानायक बिरसा मुंडा की विशाल प्रतिमा एवं 80 फीट ऊंचे शहीद स्तंभ के निर्माण में भी डॉ मुंडा की अहम भूमिका रही. चूंकि, ब्रिटिश काल में हुए शहीदों की पारंपरिक पथलगड़ी नहीं हुई थी तो उनके सम्मान में डोंबारी स्थित शहीद स्मारक में लगे हजारों पत्थर शहीदों के नाम पर किया गया पथलगड़ी (ससंदिरि) है, ऐसा डोंबारी गांव के लोगों का मानना है.
वर्ष 2007 में क्षेत्रीय कला एवं संस्कृति में योगदान के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार एवं वर्ष 2010 में पद्मश्री से नवाजा गया. इस सम्मान को उन्होंने सामूहिक रूप से स्वीकार किया और कहा – “इस सम्मान का मैं अकेले हकदार नहीं हूं.” जब डॉ मुंडा राज्यसभा सदस्य बने तो उन्होंने रांची के टैगोर हिल पर एक बड़ा अखड़ा बनाने की सोच रखी, अखड़ा का नक्शा भी उन्होंने खुद बनाया. अखड़ा की बात एक आदिवासी ही कर सकता है, क्योंकि उसने अपने जीवन में अखड़ा के महत्व को देखा है. देखा है कि कैसे अखड़ा समाज को जोड़ कर रखता है. शायद इसी एकता के लिए उनका सपना था टैगोर हिल का बड़ा अखड़ा, जो आज तक सपना ही है.
(अध्यक्ष, एशिया यंग इंडीजिनस पीपुल्स नेटवर्क, फिलीपींस)
डॉ मीनाक्षी मुंडा