डॉ शालिनी साबू
जनमानस और प्रकृति का पारस्परिक संबंध मानव सभ्यता जितना ही प्राचीन है. आधुनिक वैश्विक समाज के उद्गम के बहुत पहले से विश्व भर के समुदाय फूलने-फलने और स्थानीय प्राकृतिक वातावरण से तादात्म्य बनाने के लिए प्राकृतिक स्रोतों का न्यूनतम दोहन करते थे. इसी क्रम में ज्ञान, आविष्कार और आचरण के बहुत बड़े भंडार का विकास हुआ, जो प्राकृतिक स्रोतों के प्रयोग से जटिल रूप से जुड़ा हुआ है, और जिसने बहुत सारे समुदायों को न सिर्फ उनके क्षेत्रीय वातावरण के दायरे में रहने में मदद की बल्कि उनकी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान बनाने में भी योगदान दिया.
अतः प्रकृति और परितंत्र के संरक्षण में किया जाने वाला कोई भी प्रयास प्रकृति और संस्कृति के पारस्परिक जुड़ाव को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए. जनजातीय समुदाय, जिसे हम आदिवासी समाज भी कहते हैं, की जड़ें उसके आसपास के वातावरण और सामाजिक संगठन में कुछ इस तरह सम्मिलित हैं कि उसका सांस्कृतिक उत्थान अपने निकटतम नैसर्गिक प्रभाव के बगैर असंभव है. ये वो लोग हैं, जो अपने स्थानीय प्राकृतिक आवास पर निर्भर हैं, जिसका संचालन बायोमॉस ऊर्जा और अन्य प्राकृतिक स्त्रोतों से ही होता है. पीढ़ी दर पीढी मनुष्य और प्रकृति के बीच चलने वाले इस सांस्कृतिक उपचालन से स्वदेशी ज्ञान का निर्माण हुआ है, जहां जीव प्रकृति का एक नगण्य हिस्सा दिखता है.
यह उस समय की बात है, जब आदिवासी समाज प्राकृतिक स्त्रोतों के प्रयोग पर पूरी तरह निर्भर था और कानून जो कि एक जटिल सामाजिक-प्राकृतिक संगठन की देन है, से मनुष्य बिलकुल अनभिज्ञ था. यह वह पाषाण युग का समय था, जब समाज व्यक्तियों का समूह नहीं अपितु परिवारों का संगठन होता था. यह वह दौर था, जब कोई राजा और संप्रभु परिवारों के लिए नियम नहीं बनाते थे, बल्कि एक परिवार सिर्फ अपने मुखिया का अनुसरण करता था, जिसकी मर्जी के अनुसार चलना ही उसके परिवार के लिए विधिसम्मत मना जाता था. स्थानीय प्राकृतिक स्रोतों का लंबा और अनवरत प्रयोग ही प्रथागत आचरण बना, जो सतत प्रयोग के पश्चात कानून में परिणत होकर प्रथागत कानून बने. इसी प्रक्रिया की सुलभ समझ ने रोमन दार्शनिक सीसेरो को अधिकतर सामाजिक कानूनों का स्रोत प्रकृति में ढूंढ़ने के लिए उत्साहित किया.
आमतौर पर प्राचीन प्रथाओं को अधिकतर न्यायशास्त्र की प्रणालियों का आधार माना जाता है, जिसका मुख्य कारण उनका सैद्धांतिक और न्यायसंगत होना है. भारतीय न्यायशास्त्र में भी प्राचीनतम प्रथाएं साधारण कानून व्यवस्था का महज एक सहायक भाग ही नहीं, अपितु इसका अभिन्न हिस्सा भी हैं. एक प्रथा को कानून में परिणत होने के लिए प्राचीन, स्थायी, सतत्, उचित और लोक नीति के अनुरूप होना चाहिए. भारतीय संविधान अनुछेद 13 के तहत प्रथागत कानून को अन्य नागरिक कानूनों की शाखा मानती है. ये प्रथागत अधिकार, जिनका भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 57 के तहत न्यायिक पहचान है, जनजातियों के सांस्कृतिक मूल्यों और अधिकारों को दर्शाते हैं.
चूंकि ये प्राकृतिक वातावरण से निकले हुए कानून हैं, ये जनजातियों को आत्मनिर्भर बनाते हैं. मगर विडंबना यह है कि औपनिवेशिक नियम और औपचारिक विधायी कानून के आते ही जनजातीय अथवा प्रथागत कानून गौण हो गये. धीरे-धीरे स्थिति यह हो गयी कि प्रथागत कानून के परिप्रेक्ष्य में न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय वंशानुगत पद और धार्मिक समाहरोह तक ही सीमित रह गये. परिणाम यह हुआ कि सामुदायिक और पारंपरिक स्रोतों से जुड़े हुए मामले, जो प्रत्यक्ष रूप से प्रथागत कानून के दायरे में आते है, को भी न्यायालयों के समक्ष नहीं लाया जाने लगा. कारण यह था कि इस तरह के मामले सामुदायिक पंचायतो में निबटाये जाने लगे, जिन्हें किसी बाह्य कानूनी संस्था पर आस्था नहीं थी. दूसरी तरफ एक कारण यह भी था कि औपनिवेशिक न्यायालय जो मालिकाना अधिकारों के मामले में एंग्लो सेक्सन कानूनी प्रणाली पर आधारित है, सामुदायिक स्वामित्व और अभिरक्षा संबंधी जुड़ाव को समझने में अक्षम थे.
मगर, झारखंड जैसे प्रदेश में जहां कि आबादी का 26.2 प्रतिशत हिस्सा आदिवासियों का ही है, में अभिरक्षा संबंधी जुड़ाव प्राकृतिक स्रोतों के सामुदायिक संरक्षण से कहीं अधिक है. सरना आदिवासियों द्वारा प्राकृतिक पर्व जैसे सरहुल और करम मनाना, संथाल जनजाति द्वारा मरंग बुरु को पूजना, मुंडाओं द्वारा सिंगबोंगा की आराधना या ससनदिरी के माध्यम से पूर्वजों के छवि को सहेजना, सभी प्रकृति या उसके स्रोतों से जनजातियों के ‘कस्टोडियल कनेक्शन’ को दर्शाता है.
राज्य में प्रथागत कानूनों कि अनदेखी केंद्रीय प्रशासनिक नियंत्रण, प्राकृतिक स्रोतों पर नौकरशाहों का आधिपत्य और सख्त अरण्य कानून है, जो जनभागीदारी के लिए बहुत कम जगह छोड़ता है. इन सबके बावजूद लोक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण कानून, पर्यावरण से सम्बंधित कानून प्रणाली का एक विशिष्ट हिस्सा बनकर सामने उभर रहा है. इसके अलावा कामनवेल्थ राष्ट्रों के न्यायिक फैसले प्रथागत कानून और न्यायिक संरक्षण के अनुकूल हैं.
अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन का कन्वेंशन 107 और 169 जनजातियों के प्राकृतिक वास को उनके अधिकार के रूप में घोषित करता है. भारतीय संविधान का 73वां और 74वां संशोधन भी सामुदायिक संरक्षण पर आधारित प्रथागत कानून की दिशा में अहम् कदम है, जो स्वशासन का मार्ग प्रशस्त करता है. पेसा कानून 1996 का भाग IX ये कहता है कि राज्य कोई ऐसा कानून नहीं बना सकता जो प्रथागत कानून के विरुद्ध हो. एमसी मेहता बनाम कमल नाथ के ऐतिहासिक केस में माननीय उच्चतम न्यायालय का फैसला कि ‘डाक्ट्रिन आफ पब्लिक ट्रस्ट’ प्राकृतिक स्रोतों पर भी लागू होता है, इन कानूनों को पुनः बल देता है.
बहुत से जनजातीय क्षेत्रों में समुदाय पुनः प्राकृतिक स्रोतों को अपने नियंत्रण में ला रहे हैंं. इन स्रोतों का बढ़ता हुआ क्षरण न सिर्फ जैव विविधता का क्षरण है बल्कि मानव सांस्कृतिक विविधता पर भी आक्रमण है, जिसका विकास इन्हीं पर निर्भर है. आदिवासी प्रथाओं के आचरण का पुनरागमन ऐसी स्थिति में बहुत जरूरी है. इसके लिए सामाजिक प्रतिबद्धता और राजनैतिक इक्छा शक्ति कि जरूरत है. झारखंड जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्रों में प्रथागत कानूनों का क्रियान्वयन इस दिशा में एक अति आवश्यक कदम साबित होगा.
(लेखिका इंस्टिट्यूट ऑफ लीगल स्टडीज, रांची विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापिका हैं. प्रथागत कानून इनके शोध का विषय रहा है)