My Mati: बच्चों को आदिवासियत की नैतिकता से जोड़े रखना आसान नहीं, अभिभावकों को देना होगा ध्यान
आपकी संस्कृति ही आपके समाज का व्यक्तित्व है. इसी के अनुरूप आपका व्यवहार और जीवन शैली नियंत्रित एवं संचालित होती है. वर्तमान में, हम शहरी होकर इस आदिवासियत से छूटते जा रहे हैं. हमारी स्थिति ऐसी होती जा रही है कि ना हम घर के हुए ना ही घाट के.
My Mati: हाल में नये सत्र के विद्यार्थियों के साथ मैंने एक सामाजिक प्रयोग किया. ‘आगमन समारोह’ में मैंने छात्रों को उनके अभिभावकों के साथ आने के लिए आमंत्रित किया. उद्देश्य था कि आदिवासी छात्रों में जो शिक्षा के प्रति उदासीनता है, उसे दूर करने का प्रयास हो. वर्तमान परिदृश्य में यह आवश्यक था कि एक फासला जो शिक्षक और अभिभावकों के बीच है वह भी दूर हो. जब अभिभावक और शिक्षक दोनों का चिंतन केंद्र छात्र हैं, तो यह अति आवश्यक हो जाता है कि एक बेहतर संवाद अभिभावक और शिक्षक के बीच स्थापित हो तभी छात्र के बेहतर भविष्य के समग्र प्रयास संभव और सफल हो सकेंगे. हमारे समय में अभिभावक कहा करते थे कि ‘दसवीं की परीक्षा अच्छे से कर लो, फिर भविष्य सुरक्षित है. किंतु वर्तमान में मेरा मानना है कि हमारे बच्चों के लिए मैट्रिक से भी अधिक महत्वपूर्ण कॉलेज के प्रारंभिक काल है, जहां छात्रों का मार्गदर्शन अत्यंत आवश्यक है.
इसी सामाजिक प्रयोग के अंतर्गत मैंने एक प्रपत्र अभिभावकों को भरने दिया था. चार-पांच प्रश्न थे, जिनका जवाब अभिभावकों को देना था. अपने बच्चे की अच्छाई-कमियों का जिक्र करना था. भरे सभागार में जब मैंने प्रश्न किया था कि कितनों के बच्चे सुबह पांच बजे उठते हैं? मात्र कुछ एक अभिभावक ने अपने हाथ खड़े कर सहमति जतायी थी. और जब कार्यक्रम समाप्त हुआ और प्रपत्र वापस प्राप्त हुए तो सभी ने अपने बच्चों के अच्छाइयों का ही मात्र जिक्र किया था. अपने अवलोकन में मैंने यह पाया कि बच्चे अपने अभिभावकों को प्रपत्र भरने के लिए निर्देश दे रहे थे और दबाव भी बना रहे थे कि अच्छा ही लिखो. इस घटना की चर्चा महत्वपूर्ण है क्योंकि अपने शैक्षिक कार्य के दौरान मैंने पाया है कि आदिवासी समाज के बच्चे-“अपने बाप के भी बाप बन जाते हैं”. कहने का अर्थ यह हुआ कि हमारे समाज के बच्चे अपने माता पिता को अपनी जिद और इच्छा के आगे आसानी से झुका लेते हैं. यह बहुत सामान्य अवलोकन है.
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अनेक आदिवासी परिवारों में अभिभावक, शायद प्रथम पीढ़ी के हैं, जो गांव से बाहर कहीं कार्यरत हैं. कठिन परिस्थिति में संघर्ष से स्वयं को बनाया है. हल-बैल, रोपा-डोभा, खेत-खलिहान, फिर स्कूल इत्यादि के बाद आज कोई मुकाम हासिल किया है. मेरी मां श्रीमती महबाइत बखला रांची विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग की विभागाध्यक्ष रही हैं. जब वह पहली बार निर्मला कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए गांव से आयीं थीं तो खाली पैर थीं. उनके प्रतिदिन के रास्ते में संत जेवियर स्कूल आता था. शिक्षा का महत्व उन्हें पता था और वो बताती हैं कि उसी काल में उन्होंने ठान लिया था कि यदि पुत्र हुआ तो वो यहीं पढ़ेगा.
आप नहीं चाहते हैं कि आपके बच्चे भी उन संघर्षों का सामना करें. यहीं चूक होती है. मैं यह नहीं कहता कि बच्चों को पुनः उन परिस्थितियों और चुनौतियों में धकेला जाये, लेकिन यह भी आवश्यक है कि इन बच्चों को इन चुनौतियों का बोध कराया जाये. और इसके लिए उनमें आदिवासियत के सार और नैतिकता को जीवित करना ही होगा. किंतु आज के बच्चों को आदिवासियत की नैतिकता से जोड़े रखना आसान नहीं. आप लाख कोशिश कर लीजिए, अपनी संघर्ष गाथा सुना दीजिए, आज के बच्चों को इसमें कोई रुचि नहीं है. उल्टा आपको सुनना पड़ सकता है कि आपका तो बस यही कहानी रहता है. और धीरे धीरे आपकी संघर्ष गाथा उपहास में परिवर्तित हो जाती है.
शिक्षा का उद्देश्य मात्र नौकरी पाना नहीं है. यह अवसर अब आदिवासी समाज के लिए ही नहीं अनेक के लिए दुर्लभ होता जा रहा है. शिक्षा को मैं हमेशा ही सकारात्मक परिवर्तन का आधार मानता हूं. शिक्षा का उद्देश्य हमारे आदिवासी बच्चों को सही और गलत में अंतर सिखाना है. और यह शिक्षा मात्र स्कूली शिक्षा के द्वारा संभव नहीं, यह आपके आदिवासियत से भी संभव है. बार-बार मैं आदिवासियत पर जोर दे रहा हूं. समाज का भी व्यक्तित्व होता है. आदिवासियत की संस्कृति, सामाजिक एवं नैतिक मूल्य आपके समाज के व्यक्तित्व के आधार हैं. विख्यात मानवशास्त्री, मारग्रेट मीड ने न्यू गिनी के तीन आदिवासी समाज, अरापेश, मुंडगमोर और शंबूली के संस्कृति और उस समाज के व्यक्तित्व पर उसके प्रभाव का गहन का अध्ययन किया था. यह तीनों समाज एक ही भौगोलिक क्षेत्र में निवास करते थे, किंतु उनमें सांस्कृतिक भिन्नता थी. इसी भिन्नता के कारण, तीनों आदिवासी समाज में जबरदस्त व्यावहारिक और व्यक्तित्व में अंतर था.
आपकी संस्कृति ही आपके समाज का व्यक्तित्व है. इसी के अनुरूप आपका व्यवहार और जीवन शैली नियंत्रित एवं संचालित होती है. वर्तमान में, हम शहरी होकर इस आदिवासियत से छूटते जा रहे हैं. हमारी स्थिति ऐसी होती जा रही है कि ना हम घर के हुए ना ही घाट के. इस आदिवासियत की नैतिकता को पुनः जीवित करना होगा. इसके लिए आपको वापस अपने जड़ तक जाना होगा. अपने गांव जाना होगा. बच्चों को थोड़ा अभाव की अनुभूति हो, आजा-आजी, नाना-नानी का सानिध्य प्राप्त हो. इससे उनमें ग्रामीण जीवन और आदिवासी जीवन शैली की समझ विकसित होगी. इस सतत प्रयास से आशा है कि बच्चों में सकारात्मक परिवर्तन होंगे.जब बच्चों में सही गलत का बोध हो जाएगा तो फिर आपको और कुछ करने की आवश्यकता नहीं होगी. उसके बाद वो जीवन में कुछ अच्छा जरूर कर लेंगे. शहरी अभिभावक से अनुरोध होगा कि अपने गांव आप साहब बन के नहीं जायें. जब आप स्वयं, अपने ग्रामीण संबंधियों के बीच एक फासला रखेंगे तो बच्चे भी वहीं सीखेंगे और वो आदिवासियत की आत्मीयता कभी नहीं सीख सकेंगे.
आदिवासी अभिभावकों को और अधिक सजग और परिश्रम करना होगा. सुबह पांच बजे उठने और बच्चों को उठाने का संकल्प सबसे महत्वपूर्ण होगा. समय से कार्य करना आसान नहीं होता है. लेकिन जिस दिन आप समय का कद्र करना शुरू करेंगे, आपके बच्चे स्वयं अनुशासित हो जाएंगे. बच्चों को पुस्तकों से और पठन कुर्सी से निरंतरता के साथ बैठना सिखाइए. और एक प्रयास अपने बच्चों के साथ मिलकर करें. बजाए कि वह कितना समय पढ़ाई में व्यतीत करता है, ठीक उल्टा इस बात पर चर्चा और अवलोकन कीजिए कि वह पूरे दिन में उसने कितना समय किन किन चीजों में व्यर्थ गंवाता है. आप अचंभित रह जाएंगे कि उसके दिनचर्या में जो सकारात्मक कार्य उसने किया होगा वह बेकार के कार्यों की तुलना में नगण्य होंगे.
‘आगमन समारोह’ में जब मैंने अभिभावकों से वार्ता किया तो उत्तर अपेक्षित थे. वो पूरी तरह से अनभिज्ञ थे कि उनके बच्चे आगे जीवन में क्या करेंगे. परिश्रम तो आपको भी करना होगा. बच्चों को अनुशासित करना ही होगा. और अनुशासन और परिश्रम वह आपको देख कर ही सीखेगा. मेरे छात्र सुचित रॉय ने एक बार सोशल मीडिया में अपने पुत्र ‘प्रेयस’ का फोटो साझा किया था. सुचित अपनी धर्मपत्नी के साथ प्रतिदिन सुबह पांच बजे उठ कर पढ़ाई करते हैं. उनको देखा देखी, उनका पुत्र भी किताब ले कर बैठ जाता है. शॉल में लिपटा, पुस्तक में लीन उस चार वर्षीय बालक की फोटो हृदय को छू गई.
ऐसा नहीं है कि सारे आदिवासी बच्चे या अभिभावक इसी प्रकार के अनुभव रखते हैं. सोशल मीडिया के मित्र राज सिन्मत ने एक बड़ा मार्मिक लेख, गांव से आकर, शहर में अध्ययन को लेकर संघर्ष पर आधारित लेख लिखा था. ग्रामीण परिवेश से संबंधित संघर्ष और पीड़ा- किराया, किताब, रोजगार, फॉर्म भरने से लेकर, भोजन, कब तक पढ़ोगे, कब नौकरी लगेगा, इत्यादि को उन्होंने कुशलता से दर्शाया था. एक पक्ष यह भी है जहां छात्र ईमानदारी से कर रहे हैं.
आदिवासी अभिभावकों को थोड़ी कड़ाई भी लानी होगी. बच्चों के क्रियाकलाप के प्रति सजग और जागरूक रहना होगा. रोजगार और शिक्षा को लेकर सचेत रहना होगा क्योंकि आपके बच्चे ही आपके मूल धन हैं. अनावश्यक प्रशंसा और असमय प्रोत्साहन से बचें. मेरा बच्चा बहुत तेज है, सब जानता है. मोबाइल में तो ह्वाट्सऐप भी चला लेता है. तकनीकी तौर पर आने वाली पीढ़ी हमेशा हमारी पीढ़ी से आगे होगी, यह सर्वमान्य तथ्य है. इसलिए इन छोटी छोटी सामान्य क्षमताओं को अकारण उनकी दक्षता नहीं मान लेना है. यदि नहीं तो फिर ये बच्चे हमारे ‘बाप’ ही बनेंगे. इस कथन के साथ आलेख का अंत करना चाहूंगा – “जब तक मैं समझ पाया कि मेरे पिता सही थे, और मैं गलत, आज मेरा पुत्र मुझे गलत समझने लगा है”.
डॉ अभय सागर मिंज
-असिस्टैंट प्रोफेसर, यूनिवर्सिटी डिपार्टमेंट ऑफ एंथ्रोपोलॉजी,डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय