My Mati: झारखंड की सांस्कृतिक धरोहर है जेठ जतरा, जानें क्या है परंपरा
जेठ महीने में एक विशेष जतरा का आयोजन होता है, जिसे जेठ जतरा कहते हैं, जेठ महीने यानी मई/ जून में जेठ जतरा लगता है. यह जतरा झारखंड के उरांव जनजातीय क्षेत्र में विशेष रूप से लोकप्रिय है. जेठ जतरा अलग-अलग दिन में अलग-अलग गांव में लगता है. इसमें प्रत्येक गांव के लोग शामिल होते हैं.
डॉ इलियास मजीद
झारखंड के गांवों में पर्व त्योहार भी सामूहिकता, सांस्कृतिक क्रियाकलाप और आनंद उत्सव पर आधारित है ऐसे अवसर में भी गीत नृत्य और सामूहिक आनंद का माहौल सहज ही देखा जा सकता है. इस अवसर पर सभी ग्रामीण आपस में मिलजुल कर जतरा मेला में सम्मिलित होते हैं, इसलिए यह झारखंड के गांवों का विशिष्ट त्योहार होता है.
जेठ महीने में एक विशेष जतरा का आयोजन होता है, जिसे जेठ जतरा कहते हैं, जेठ महीने यानी मई/ जून में जेठ जतरा लगता है. यह जतरा झारखंड के उरांव जनजातीय क्षेत्र में विशेष रूप से लोकप्रिय है. जेठ जतरा अलग-अलग दिन में अलग-अलग गांव में लगता है. इसमें प्रत्येक गांव के लोग शामिल होते हैं.
वास्तव में कहा जाए तो जेठ जतरा एक सांस्कृतिक आयोजन जैसा है, जिसमें विभिन्न गांवों के लोग अपने अपने खोंड़ा (दल) के साथ शामिल होते हैं. खोंड़ा अपने-अपने गांव के सांस्कृतिक दल की तरह होते हैं. पारंपरिक लाठी डंडा और पताका लेकर हर खोंड़ा जतरा में भाग लेता है. जेठ जतरा में सांस्कृतिक दलों की शोभायात्रा आकर्षक होती है. वास्तव में जतरा जैसे आयोजन आदिवासी समाज संस्कृति के अहम अंग हैं. जतरा में आदिवासियों की सामाजिक सांस्कृतिक पहचान की प्रस्तुति होती है और आदिवासियों की पारंपरिक रीति रिवाज एवं प्रथा प्रचलन की अभिव्यक्ति होती है. जतरा आदिवासियों की परंपरा और विरासत का वाहक भी है.
जेठ जतरा का विशिष्ट नृत्य युद्ध नृत्य के समान होता है, जिसमें विभिन्न सांस्कृतिक दल अथवा विभिन्न पड़हा के सदस्य अपना पड़हा-पताका लिए सम्मिलित होते हैं. इस अवसर पर पईका नृत्य भी होता है, जो छद्म युद्ध के समान होता है. इसमें योद्धा के वेश में बांस या लकड़ी की ढाल-तलवार लेकर नृत्य करने की भी परंपरा है. हालांकि आजकल बलम बरछा या कहीं-कहीं तलवार आदि भी देखा जाता है. जतरा में हर पीढ़ी के लोग सामूहिक नृत्य करते हैं, जो आदिवासी समाज के एक सूत्र में बंधे होने का प्रतीक है.
वर्तमान समय में जेठ जतरा का स्वरूप भी बदलता जा रहा है अब जेठ जतरा का केवल सांस्कृतिक पक्ष नहीं रह गया है, बल्कि इसकी तस्वीर बदलती जा रही है. जतरा के अवसर के पहनावे, हाव-भाव सबकुछ आधुनिकता की चपेट में आ चुकी है. पहले जहां पाड़ साड़ी, धोती कुर्ता या गंजी में लोग नजर आते थे, अब पारंपरिक पहनावे की जगह जींस-टीशर्ट, शर्ट-पैंट, रंग-बिरंगे चश्मों, सलवार सूट- लेगिंस और आधुनिक पोशाक में सुसज्जित युवक-युवतियों के झुंड जतरा में सहज देखे जाते हैं. जतरा आर्थिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं. आजकल जेठ जतरा में खोंड़ा शोभा यात्रा के साथ-साथ विविध प्रकार की दूकानें भी लगने लगी हैं. दैनिक आवश्यकताओं की सामग्रियों के साथ-साथ मिठाइयों विशेषकर पारंपरिक लखठो, सकरपाला, गुलगुला, गोपो, मौसमी फल तरबूज, केला, संतरा आदि की दुकानें लगने लगी हैं.
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जेठ जतरा में दुकानें तो सुबह से सजने लगतीं हैं, लेकिन खोंड़ा दलों की शोभायात्रा दोपहर के बाद ही शुरू होती है. हालांकि मौजूदा समय में ऐसे आयोजनों के प्रति लोगों का उत्साह घटता भी जा रहा है, परंतु इसके बावजूद जेठ जतरा जैसे आयोजन झारखंडी परंपरा की धरोहर हैं.
(सहायक प्राध्यापक, इतिहास विभाग, मौलाना आजाद कॉलेज, रांची)