डॉ. कृष्णा गोप, संस्थापक
अध्यक्ष-खोरठा डहर
My Mati: झारखंड राज्य के आंदोलन में खोरठा भाषी का योगदान अपने लोकगीतों के साथ इस महत्वपूर्ण आंदोलन में रहा है. झारखंड देश का 28वां राज्य है. इस राज्य के 24 जिलों में लगभग 15 जिलों में खोरठा बोली जाती है, जो संपर्क भाषा भी है. लगभग एक करोड़ की आबादी है, जो खोरठा भाषा को सहज रूप से अपने रोजमर्रा की जिंदगी में कामकाज में शामिल करती है.
खोरठा भाषी की खासियत
इस भाषा की खासियत यह है कि यह आमजनों के बीच तुरंत रच-बस जाती है. खोरठा भाषा का मतलब है खेती-किसानी की भाषा या यूं कहें कि खोरठा को सहज एवं समरस भाषा के रूप में दर्ज करता है. बारिश की पहली बूंद धरती पर जब गिरती है सिर्फ जीव-जंतु ही नहीं मनुष्य भी खुश होता है. जब मनुष्य खुश होता है तब उसका हर क्रियाकलाप उसके लोकगीत में, लोक संस्कृति में गीत के रूप में होता है. जब बारिश होती है तब यहां के लोग गाते हैं.
हाय रे, हाय रे, सुगिया भींजलय डांडे, आओ सुगी अचरा बचाऊ
सुगिया भींजलय डांडे, नाय सुगी माय तोरा, नाय सुगी बाप तोरा
जिस प्रकार गीत का बोल है कि बारिश हो रही है, खोरठा लोक संस्कृति और खोरठा लोकगीतों में यह परंपरा है, जो मानवीय मूल्यों को बोध कराती है कि किसी का कोई नहीं है या वह अनाथ है उसे भी हमारी संस्कृति अपनाती है चाहे वह मनुष्य हो या पशु-पक्षी सभी को सहजने की प्रवृत्ति खोरठा लोकगीतों में है.
करम परब के सभी गीतों में जब युवतियां नदी में बालू उठाने बांस से बने ‘डाला’ को लेकर जाती हैं तो बालू उठाने से लेकर जौ, गेहूं, धान, चना, कुरथी बुनने तक जिसे जावा कहा जाता है. किसी भी फसल को मिट्टी में बुनने की मनुष्यों के द्वारा खोज की प्रकृति का समझ बेटियों के द्वारा ही किया गया होगा जो परंपरा आज भी जीवित है. आज भी अविवाहित युवतियां अपने भाई के प्रति स्नेह, प्रकृति के प्रति प्रेम, नैहर के सपने जिसमें समरसता के भाव की छहक लोकगीतों से युवतियां अपने मायके में सीखती हैं. जावा बुनने के बाद जो पहला गीत युवतियां गाती हैं कि
छोटेंगे मुटुंग (जन्मस्थान का नाम लेती हैं)
बीच खोरी अखरा हो
ताही तरे (सरैया मांडर,गांवादेवती का नाम लेती हैं)
खेलय जूहा सायल
हमर जावा हो, देवा दिहां ने बढ़ाय
इस करम गीत में अपने गांव के नाम के साथ देवस्थान जिसे गांवादेवती भी कहा जाता है साथ ही पैतृक गांव के पुरखों से भी निहोर करती है कि उन्हें जावाडाली के साथ-साथ हर आपदा-विपदा से बचाएं ये निहोर लोकगीतों के माध्यम से बेटियां करती हैं.
अटोरी-बटोरी खीरा खोंचा में गो
एकादसी करम मे एहे खेल खेलाबय नैहरा मे गो एकादसी करम मे
लाल-पियर पिन्धाबय, नैहरा मे गो एकादसी करम में
पुआ-पकवान करूं मिसरी नेवान करूं, श्रीमा के हुजुरा मे गो
एकादसी करम मे, एहे खेल खेलाबय नैहरा मे गो एकादसी करम मे
इस लोकगीत में बेटियां सपने देखती हैं और अपनी उम्मीदों को जिंदा करती हैं. गांव के अखड़ा से नैहर की अखड़ा में करम खेलने के सपने संजोना अपने लोक संस्कृति से बेटियां सीखती हैं. करम डाइर को पूजते हुए बेटियां गाती हैं-
कावन बहिन पूजे करमा के डहरिया
करमा के रतिया से कावन भइया रे बजावे बांसुरिया, रे कावन भइया
करम परब प्रकृति परब के नाम से भी जाना जाता है. करमा के डाहर को कौन बहन पूजती है और कौन भाई बांसुरी बजाता है इस लोकगीत से भाई-बहन के अटूट प्रेम के मर्म को बतलाती है. जब बेटी विवाहित होकर ससुराल चली जाती है तब भी मायके आने की आस नहीं छोड़ती जो इस लोकगीत के मर्म से समझ सकते हैं.
परलय भादैया मास, लागलय नैहरा के आस दिनाचारी
ससुर जा दा नैहरवा,दिनाचारी
भादो का महीना आते ही आदर भाव से ससुर से निवेदन करती है करम परब मायके में मनाने के लिए सच कहे तो बेटियां हैं, तभी अखड़ा सुहाना लगता है और बेटियों से ही अखड़ा की लोकसंस्कृति जिंदा है. प्रकृति में सुख और दुख का जुड़ाव भी है, जो खोरठा लोकगीतों में इस मर्म को स्पर्श करती हैं.
कासी फुटालय आसा लागलय गे सजनी
आबे भइया आइतय लेनिहार गे सजनी
नदिया भरलय समा-डमा गे सजनी
आबे भइया बढ़िए झेकेलाय गे सजनी
देबो गे नदिया दुधा-गुरा के झाक गे सजनी
मोरो भइया के होवे दिहीं पार गे सजनी
कासी झारलय आसा टुटलय गे सजनी
आबे भइया नाही आइतय लेनिहार गे सजनी
लोकगीत के अनुसार कासी का फूल खिलते ही बहन मायके आने की उम्मीद बांधने लगती कि उसका भाई उसे ले जाने के लिए आएगा, लेकिन गांव से दूर नदी में पानी बढ़ने के कारण भाई नहीं आ पाता है. बहन नदी से निहोर करती है, लेकिन भादो का झर से नदी में पानी सम-डम है. भाई नहीं आ पाता उसे ले जाने के लिए जिससे बहन की आस टूट जाती है. खुशी है, सुख है एवं उमंग भी, लेकिन भाई के नहीं आने के कारण जो उम्मीद टूटती है, उस पर भी खोरठा में एक लोकगीत है. प्रकृति से कैसे जुड़ाव है प्रेम का, दुख का वो इस लोकगीत में अभिव्यक्त होता है.