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My Mati: साहित्य, समाज और संस्कृति की त्रिवेणी थे केशरी दादा

वह झारखंडी अस्मिता की राजनीति में विश्वास रखते थे. सत्ता सुख का काल आने से पहले ही वे साहित्य–संस्कृति की अपनी चिर-परिचित दुनिया में मगन हो चुके थे.

डॉ कृष्ण कलाधर

स्वनामधन्य डॉ बीपी केशरी की काया साथ देती तो वे आज नब्बे वर्ष के होते. डॉ केशरी उनलोगों में से हैं, जो अपने जीवन काल में ही मिथक बन जाते हैं. झारखंड की सांस्कृतिक अस्मिता और नागपुरी भाषा-साहित्य के प्रति अपने युवावस्थाजनित उत्कट प्रेम को उन्होंने कल्पवृक्ष की संकल्पना से सुशोभित किया. मुझ जैसे कितने साहित्यानुरागियों तथा रचनाकारों को उनका वरदहस्त इसी वृक्ष की सारस्वत छाया में मिलता रहा.

साहित्य उनके लिए कल्पना की उड़ान नहीं, जनसामान्य के अनुभूत उस सत्य की साधना थी, जिसे हम अक्सर नजरअंदाज करते रहते हैं. ‘रद्दी कागज’ जैसी कहानी में वे उसी सत्य के मर्म को पहचान लेते है. संस्कृति का उनके निकट एक विशिष्ट अर्थ था, जिसे उन्होंने अपने गहन चिंतन से प्राप्त किया था. वे संस्कृति को नृत्य–गान तक सीमित नहीं, बल्कि झारखंडी जिंदगी का प्रारूप या पैकेज समझते थे, जिस की तह में अनेक समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक विशेषक रूढ़ थे. जैसे सुभियारी या शालीनता, सत्य जो आग्रही नहीे स्वाभाविक प्रवृत्ति है, सादगी जो प्रकृति और समाज के सात्विक समझौते का सहज प्रतिफल है. डॉ केशरी प्रिज्म(त्रिपार्श्व)के पीछे थे और आगे से साहित्य संस्कृति और सामाजिक चिंता की धाराएं किरणों सी फूटतीं थीं.

वे अपने मूल्यों पर जीने वाले व्यक्ति थे. कोई प्रलोभन या आकर्षण उन्हें पथ विचलित नहीं कर सका. भौतिकता उन्हें प्रभावित नहीं कर सकी. सेवानिवृत्ति के पश्चात् प्राप्त धनराशि से उन्होने नागपुरी संस्थान के भवन का निर्माण कराया. उन्होंने दीर्ध काल तक सोच समझ कर अपने मूल्यों की खोज और पहचान की थी. झारखंड राज्य निर्माण की राजनीति में उनकी सक्रिय उपस्थिति मेरे लिए विस्मयकारी थी. किंतु उनकी राजनीति सत्ता के स्वार्थों से परे थी. वह झारखंडी अस्मिता की राजनीति में विश्वास रखते थे. सत्ता सुख का काल आने से पहले ही वे साहित्य–संस्कृति की अपनी चिर-परिचित दुनिया में मगन हो चुके थे.

पड़हा प्रधान(महाराज) मदरा मुंडा के द्वारा अपने पोष्य पुत्र फणिमुकुट राय को योग्य पा कर उन्हें ही अपना उत्तराधिकारी बनाने की मिथक-कथा उन्हें बहुत भाती थी. मिथकों में संस्कृति का प्रस्फुटन होता है. ईसा की पहली सदी की इस घटना को वे झारखंडी राजनीति तथा संस्कृति के लिए प्रेरक मानते थे. वे वर्तमान राजनीति में इन्हीं चिर मूल्यों की असफल खोज करते रहे.

डॉ केशरी साहसी और कलम के योद्धा थे. उनकी अपने ढंग की अनूठी और प्रयोगात्मक व्यंग्य रचना ‘ऊँ विश्वविद्यालय नम:’ में उन्होंने प्रतिपक्ष के आक्रमण की सारी संभावनाओं के होते हुए भी रांची विश्वविद्यालय की आंतरिक दुर्व्यवस्था की पोल-पट्टी खोल कर रख दी. उनका व्यक्तित्व इतना विशाल था कि उन्हें देखते ही सम्मान की भावना मन में स्वत: आती थी. किंतु, दूसरों को सम्मान तथा प्रोत्साहन देने में उनका सानी नहीं. मैं स्वयं उनका कृपापात्र रहा हूं.

महात्मा गांधी ने सत्य और अहिंसा को पर्याय मान कर अपने सारे प्रयोग किये थे. केशरी जी की गहन निष्ठा सत्य के प्रति थी. अपनी प्रसिद्ध और चर्चित कविता ‘सत्यार्चन’ में उन्होंने अपनी इस मूल्य निष्ठा को न केवल अभिव्यक्ति दी बल्कि एक दर्शन का रूप देने का भी प्रयास किया है. डॉ केशरी ने अनेक पुस्तकों, लेखों, निबंधों और कविताओं की रचना की हैं. उन्होंने स्वयं भी शोध किया और कराया भी है. एक प्राध्यापक के रूप में उनकी विद्वता और सफलता सदैव चर्चित रही है. लेकिन इस से भी बढ़ कर उन्होने नागपुरी भाषा साहित्य को एक अकादमिक पहचान दी है. उसके गौरव का समाज को अनुभव कराया है.

नागपुरी समाज को इस भाषा आंदोलन के माध्यम से गौरव का बोध हुआ है. उनकी एक ही पुस्तक ‘नागपुरी कवि और उनका काव्य’ ,जिस के सामग्री संकलन लेखन तथा प्रकाशन में उनके जीवन के साठाधिक वर्ष लगे, उन्हें देवत्व प्रदान करने के लिए काफी है. डॉ वीर भारत तलवार ने इस ग्रंथ पर अपने विशिष्ट व्याख्यान में इसे न केवल नागपुरी साहित्य के इतिहास की रूपरेखा बताया, बल्कि नागपुरी साहित्य की धाराओं, काल निर्णय तथा वैचारिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ बताया. इस ग्रंथ की भूमिका में डॉ केशरी ने नागपुरी के इतिहास और वर्तमान के समस्त आयामों का धीर–गंभीर विवेचन किया है.

डॉ केशरी की समझ अत्यंत प्रखर थी. वे साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थनीति और राजनीति को झारखंडी संदर्भ में एक साथ और परस्पर प्रभावकारी मानते थे. अपनी चर्चित पुस्तक ‘छोटानागपुर का इतिहास : कुछ सूत्र कुछ संदर्भ’ में उन्होंने क्षेत्रीय इतिहास के अध्यायों में छोटानागपुर की खोज करने का काम किया है. झारखंड की अवनति में वे इसकी औपनिवेशिक पृष्ठभूमि को सब से महत्वपूर्ण कारक मानते थे, जिस की वजह से झारखंडी समाज का सहज स्वाभाविक विकास बाधित होता रहा. उनका मानना था कि यहां की स्थानीय संस्कृति में वे सारभूत मौलिक तत्व अब भी मौजूद हैं, जिन्हें खाद-पानी की जरूरत है. इसी क्रम में उन्होंने कई संस्थाओं के मंच पर नागपुरी क्षेत्र के संस्कृति कर्मियों, साहित्यकारों, समाजसेवियों तथ विशेषज्ञों को सम्मानित करने की परंपरा का श्री गणेश किया. नागपुरी भाषा-साहित्य के अनेक अंतर्विरोध उनके सान्निध्य में समुचित समाधान प्राप्त करते रहे.

डॉ केशरी ने अपने जीवन को भरपूर सार्थकता के साथ जिया. साहित्य, समाज और संस्कृति त्रिवेणी को जो विपुल तथा मूल्यवान अर्ध्य उन्होंने दिया, उसके लिए आज उनके जन्मदिन पर हम कृतज्ञ श्रद्धांजलि प्रस्तुत करते हैं.

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