वासवी किड़ो : मनाम शहीदों में में वीर बुद्धु भगत का भी नाम प्रमुखता से आता है. छोटानागपुर के वे ऐसे जननायक थे, जिन्होंने अंग्रेजों के केवल छक्के नहीं छुड़ाए बल्कि उन्हें उरांव आदिवासी इलाका छोड़ने को मजबूर कर दिया. बुद्धु भगत की लोकप्रियता चरम पर थी. उनकी संगठन शक्ति और लोकप्रियता को देखते हुए छोटानागपुर के आयुक्त ने लिखा है कि – उनका आंदोलन संपूर्ण छोटानागपुर में फैल गया था. रांची के चारों तरफ विद्रोह की आग धधकने का सिलसिला 1790 से ही प्रारंभ हो गया था. वीर बुद्धु भगत ने तब अंग्रेजों और जमींदारों के अत्याचार और अनाचार के विरुद्ध युद्ध करने की ठानी, जिसमें उनकी बेटियों ने अपने जान न्यौछावर किये. रूनिया भगत और झुनिया भगत वीर बुद्धु भगत की बेटियां और उनके बेटे हलधर, गिरधर और उदयकरण ने अंग्रेजों के खिलाफ लोहा लेने में पिता का साथ दिया और वीरगति को प्राप्त हुए.
वीर बुद्धु भगत का जन्म 17 फरवरी, 1792 को सिलागामी (शिलागाईं) में हुआ था. यह कोयल नदी के तट पर बसा हुआ है, जो रांची-लोहरदगा मार्ग पर है. उनकी पत्नी का नाम बालकुंदरी भगत था. उनके तीन बेटे हलथर, गिरधर, और उदयकरण थे. उनकी दो बेटियां रूनिया और झुनिया थीं. 1828 में वे अंग्रेजों से मुकाबले के लिए तत्पर हो उठे थे. ऐतिहासिक कालखंड में 1792 से 1832 तक का काल वीर बुद्धु भगत के विद्रोह का काल माना जाता है. उनके शौर्य, पराक्रम और वीरता की गाथा ऊर्जा से भर देनेवाली है, जिससे प्रेरित हो उनका समस्त परिवार यहां तक कि उनकी बेटियों तक ने कुर्बानी दी.
छोटानागपुर के तत्कालीन संयुक्त आयुक्तों ने 8 फरवरी,1832 को अपने पत्र में बुद्धु भगत के विस्तृत प्रभाव एवं कुशल नेतृत्व का उल्लेख किया है. उन्होंने चोरिया, टिक्कू, सिल्ली गांव तथा अन्य गांवों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि पूरी आबादी अंग्रेजों के लिए त्रासद हो गयी है. विशेषकर इसलिए कि उन्हें सिलागाईं, चानहों गांव के बुद्धु भगत के रूप में ऐसा नेता पा लिया है कि जिनका उन पर प्रभाव है. कहा जाता है कि बुद्धु भगत अलौकिक दैवीय शक्ति से युक्त थे. आज भी उनकी आठवीं पीढ़ी के वंशज उस वीर पुरुष के सिर की पिंडी को 174 सालों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित रखकर पूजा-अर्चना कर रहे हैं.
बताया जाता है कि उन्होंने अंग्रेजों के मनमानेपन बैठ बेगारी और भूमि के लगान की मनमाना वसूली और उनके अत्याचार-शोषण के खिलाफ जंग का ऐलान किया. उसमें अंग्रेजों के पिट्ठू और कुछ जमींदारों, जागीरदारों और चाटुकारों ने उनका साथ नहीं दिया. ब्रिटिश सेना के सामने उन्होंने किसी कीमत पर घुटना टेकने से इनकार कर दिया. विद्रोह के दौरान ही झारखंड के अनेक स्थलों पर अंग्रेजों को आदिवासियों के विद्रोह का सामना करना पड़ा. हजारों आदिवासियों ने वीर बुद्धु भगत के साथ 1828 से अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाये. इन लोगों में उनके बेटे और बेटियां भी शामिल थीं. वे पूरे इलाके को अपनी पारंपरिक विरासत को विदेशी हमलावरों से मुक्त कराने को कटिबद्ध थे. वे गांव-गांव जंगल, पहाड़ घूमते हुए उरांव, मुंडा, हो, संताल, खड़िया आदि सभी समुदाय को संगठित करते थे.
उनकी लोकप्रियता और जनज्वार देखकर ब्रिटिश हुकूमत भयभीत थी. वे हमेशा कहा करते थे हमारा एक ही दुश्मन है- अंग्रेज और उनके चाटुकार. उनका मानना था कि इन शोषक जमींदारों और ठेकेदारों से छोटानागपुर से मुक्त कराना है. शहीद वीर बुद्धु भगत नामक पुस्तक में उद्धृत किया गया है कि शहीद वीर बुद्धु भगत एक मामूली गरीब किसान परिवार में पैदा हुए थे. अंग्रेजों से उनकी लड़ाई किसी संपत्ति को बचाने के लिए नहीं थी बल्कि राष्ट्रप्रेम और अपने दिसुम को बचाने का जज्बा था. जंगल, जमीन और संसाधन समेत उनकी पारंपरिक विरासत की रक्षा के लिए उन्होंने आंदोलन का बिगुल फूंका. उनके प्रति जनसमर्थन का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि जब वे सिलागाईं में चारों तरफ से ब्रिटिश फौजों से घिर गये थे तब उनके तीन सौ अनुयायियों ने उनको चारों ओर से गोल मानव शृंखला बनाकर घेर लिया. वे लोग खुद अंग्रेज सैनिकों की गोलियां खाते रहे व गिरते रहे. अपने लोकप्रिय नेता को बचाने के लिए यह अनूठी घटना थी.
इन घटनाओं में उनके बेटे और बेटियां भी समान रूप से शामिल थे. वे अद्भुत पराक्रमी, कुशल घुड़सवार, अचूक निशानेबाज, धर्नुधारी और तलवारबाज योद्धा थे. उन्हें एक साथ कई स्थानों में देखा जा सकता था. उनकी इन तमाम कार्रवाइयों में उनकी बेटियां साथ हुआ करती थीं. उन्होंने अपनी बेटियों को युद्धकला में उसी तरह पारंगत बनाया, जिस तरह से अपने बेटों को कुशल योद्धा के बतौर तैयार किया. वीर बुद्धु भगत मानते थे कि परिवार के हर एक सदस्य को अंग्रेजों के जुल्म और बर्बरपूर्ण व्यवहार के खिलाफ तैयार करना चाहिए ताकि अपने मुल्क से अंग्रेजों को खदेड़ा जा सके. इसमें औरतों की ताकतों का उन्होंने अपनी बेटियों के रूप में भरपूर इस्तेमाल कर औरतों के मान-सम्मान को बढ़ाया. अंग्रेजों ने बुद्धु भगत को घेरने और गिरफ्तार करने के कई असफल प्रयास किये, लेकिन संपूर्ण परिवार के जंग में कूदने की वजह से ऐसा कर पाना अंग्रेजों के लिए संभव नहीं हो पाया.
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अंग्रेज इस बात से परेशान रहते थे कि कभी बुद्ध भगत को चोरिया में तो कभी टिक्कू गांव में देखा गया. एक ही समय में उसे कई जगहों पर देखने की बात कही जाती थी. कैप्टन इम्पे को वीर बुद्धु भगत को जिंदा या मुर्दा पकड़ने की जवाबदेही दी गयी थी. लगभग 4 हजार आंदोलनकारियों को पकड़कर बंदी बनाते हुए इम्पे की सेना घाटियों से गुजरते हुए पिठोरिया के लिए रवाना हुई. पूरे इलाके में औरतों और बच्चों के आर्तनाद गूंज उठा. यह वारदात 10 फरवरी, 1832 की है. कहते हैं कि ऐसे समय में इश्वरीय चमत्कार हुआ और इतने जोरें का आंधी-तूफान आया कि अंग्रेज सैनिकों के लिए राह चलना मुश्किल हो गया. वे टूटे हुए पत्तों की भांति बिखरने लगे, वहीं आदिवासी अपने पथरीली और वन प्रांतर की उबड़-खाबड़ भूमि और जंगली इलाकों में अभ्यस्त की वजह से वे आसानी से भाग निकलने में सफल हो गये.