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झारखंड की पृष्ठभूमि पर लिख रहा हूं एक फिल्म : प्रसिद्ध कथाकार और पटकथा लेखक शैवाल

निर्देशक प्रकाश झा की हर नयी फिल्म के साथ कथाकार शैवाल याद किये जाते हैं. 74 वर्षीय शैवाल अब भी सक्रिय हैं और झारखंड की पृष्ठभूमि पर एक फिल्म का लेखन कर रहे हैं. प्रस्तुत है प्रसिद्ध कथाकार और पटकथा लेखक शैवाल से कंचन की संक्षिप्त बातचीत

My Mati: निर्देशक प्रकाश झा की हर नयी फिल्म के साथ कथाकार शैवाल याद किये जाते हैं. विख्यात फिल्म समीक्षक सुभाष के झा ने शैवाल द्वारा लिखित उन दो फिल्मों के साथ 10 वर्ष पूर्व रिलीज फिल्म ‘दास -कैपिटल’ को याद करतेे हुए कहते हैं कि शैवाल हमें सीधे-सीधे एक रिमोट टाउन के सरकारी दफ्तर में ले जाते हैं, जहां करप्शन जीवन जीने का तरीका ही नहीं, अस्तित्व में बने रहने का एक मात्र साधन है. 74 वर्षीय शैवाल अब भी सक्रिय हैं और झारखंड की पृष्ठभूमि पर एक फिल्म का लेखन कर रहे हैं. प्रस्तुत है प्रसिद्ध कथाकार और पटकथा लेखक शैवाल से कंचन की संक्षिप्त बातचीत :

आपकी तरह दूसरा लेखक नहीं, जो फिल्म और साहित्य में एक साथ महत्वपूर्ण कार्य करता रहा हो, पर आलोचक इसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार क्यों नहीं करते ?

लॉबी के कारण. मैं इन लॉबियों से अलग-थलग होकर लेखन करता हूं. अपने सामने की बात लिखता हूं, जिसका जुड़ाव वैश्विक होता है.

इन दिनों क्या लिख रहे हैं ?

झारखंड की औपनिवेशिक संस्कृति पर मेरी दृष्टि 23 वर्षों से रही है. वर्ष 1985 में स्वर्ण रेखा प्रोजेक्ट पर फिल्म लिखने आया, तब से पुनः 14 वर्षों तक सेंट जेवियर्स में स्क्रिप्ट लेखन पढ़ाता रहा. तब भी काम करता रहा. ‘आसमुद्र फिल्म’,’काक पद फिल्म’,’जोड़ा हारिल की रूपकथा’ आदि कहानियां उसी रिसर्च का परिणाम है. अब एक फिल्म ‘आसमुद्र फिल्म’ लिख रहा हूं.

इस फिल्म के पीछे मूल धारणा क्या है?

महाशक्तियों(अमेरिका, चीन, ब्रिटेन)की तरह ही देश में आंतरिक उपनिवेश बनाये गये. मूल संस्कृति की जगह कैसे यह घातक औपनिवेशिक संस्कृति विकसित हुई, फिल्म के जरिये यही दिखलाना चाहता हूं.

इन महाशक्तियों का उद्देश्य क्या है आपकी नजर में ?

महाशक्तियां अफ्रीका जैसे देश में क्यों प्रविष्ट हुईं? विकास करने, नंगों को कपड़े पहनाने, प्रगति की राह पर ले जाने. पर वास्तव में हुआ क्या ? मात्र समग्र दोहन. देश में भी आंतरिक महाशक्तियों, मसलन बाहुबलियों और धन्ना सेठों ने यही किया. दोनों के पास पावर है. आज देख लीजिए, झारखंड में कितनी भव्य इमारतें हैं, पर उनमें रहने वाले आदिवासी नगण्य हैं.

बिहार में ये उपनिवेश नहीं हैं ?

निश्चित रूप से हैं. उनपर एक बेव सिरीज ‘मृगया सारंगपुर’ लिख रहा हूं. वेब सिरीज में व्यंग्य का हथियार इस्तेमाल कर रहा हूं. पर ‘काक पद ’ फिल्म में कटु यथार्थ को क्रूड फॉर्म में रख रहा हूं.

कुछ ‘मृगया सारंगपुर’ के बारे में बताएं ?

एक इलाका है, जहां पहले जमींदारी थी, अब वहां सरकारी ब्लॉक है, कॉलोनी है. जमींदार ने मरते वक्त अपने रिश्तेदार से वायदा करवाया था कि यहां विकास की दुनियां बसायेंगे. सो ब्लॉक बन गया. पहले इस इलाके में लोग जानवरों का शिकार करने आते थे, अब निरीह आदमियों का शिकार होता है. गो कि एक मरियल सड़क है, जिसके इस पार जमींदार की हवेली है और उस पार ब्लॉक कॉलोनी है. पावर इस पार से उस पार आ गया, पर खेल वही चल रहा है. यानी शिकार करो.

इन उपनिवेशों पर फिल्म या वेब सीरीज लिखने के पीछे आपका मोटिव क्या है?

महाशक्तियों के उपनिवेश और सरकार या उसके माध्यम से बाहुबलियों, धन्ना सेठों और पूर्व जमींदारों के द्वारा बनाये गये उपनिवेशों के बीच साम्य ढूंढना और दिखलाना.

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