My Mati: सोहराय कला का जन्म उस समय से शुरू माना जा सकता है जब से मानव ने आग की खोज की थी. उसके बाद से ही सृजनशीलता आदिकाल के मानव में आ चुका था. जब शिकार से पेट भरने के बाद आग की तप से और उठती लपटों के सहारे गुफाओं में चित्रों को उकेरा करते थे. आदिकाल से पुरखों ने जो खोज किया है, जो आज भी जारी है. विश्व के कई गुफाओं में आदिकाल के पुरखों के द्वारा उकेरे गये चित्रों को आज के मानवशास्त्रियों, पुरातत्वविदों, इतिहासकारों एवं शोधकर्ताओं ने दुनिया के सामने लाने का प्रयास किया है.
आज भी पर्व-त्योहारों के साथ विभिन्न संस्कारों में गीतों का महत्व है. सोहराय परब झारखंड की सबसे लोकप्रिय परब के रूप जाना जाता है. सोहराय परब (Sohrai Festival) में खेतों में लगे फसलों और जिन पशुओं के बदौलत घर-परिवार में खुशहाली आती है, उसे मानव आदिकाल से ही लोकगीतों के रूप में सहेजने का कार्य करते आ रहे हैं. इस परब को झारखंड में सोहराय, गोहाल पूजा, बंदरखुटा, बांदना आदि के नामों से भी लोग जानते हैं. खेती किसानी का यह परब पूर्व के दशकों में पशुओं पर आधारित अर्थव्यवस्था के साथ-साथ कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था को रेखांकित करने का मौखिक रूप में सोहराय के गीतों, एवं चाचेर के गीतों से समझा जा सकता है.
चरवाहा युग में आर्थिक स्रोतों का मुख्य केंद्र पशु ही थे. जो आज भी विश्व के कई देशों के साथ खासकर दक्षिण अफ्रीका के कई देशों के जनजातीय समुदायों में अर्थव्यवस्था या उनके रीतिरिवाजों में गाय-बैलों का मुख्य विनिमय के स्रोतों में विशेष महत्व है. भारत देश के कई राज्यों जैसे पंजाब, महाराष्ट्र, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश. दक्षिण भारत के केरल, तमिलनाडु आदि में फसलों का पर्व के साथ-साथ पशुओं की भी पूजने व उन्हें बेहतरीन ढंग से सजाने की प्रथा है. इस पर्व में अपने लोकगीतों को गा कर मनाया जाने वाला त्योहार के रूप में भी जाना जाता है.
सोहराय झारखंड में जनजातीय समुदाय और गैर जनजातीय समुदाय दोनों के बीच लोकप्रिय है. सोहराय परब आने से पूर्व घरों की ‘निपन-पोतन’ शुरू हो जाता है. मिट्टी के घरों में महिलाओं के द्वारा सोहराय और कोहबर चित्र दीवारों में बनाये जाते हैं, जिनमें पशु-पक्षियों, नृत्य और वैवाहिक कोहबर के चित्र भी बनाये जाते हैं. सोहराय परब मनाने के पीछे कई लोककथाएं चर्चित हैं. इनमें सर्वाधिक लोकप्रिय लोककथा में ‘चंदा-तिरिया’ की प्रेमक हानी व चरवाहा युग की ‘वीरा-लोरी’ की वीरता की कहानियां हैं. आज भी ‘अहीर’(गोप/ग्वाला) समुदायों के ‘पीढीथान’ में अपने पुरखों की पूजा करने की परंपरा आदिकाल से है. यह परंपरा आज भी झारखंड के अहीर(गोप/ग्वाला) पीढ़ीथान में जीवित है, जहां सोहराय और चाचेर के गीत गाये जाते हैं.
बंदरखुटा और वंदना अहिरे… के लोकगीत के बिना सोहराय की सार्थकता अधूरी रहती है. आदिकाल में वीर पुरखों के द्वारा जंगली जानवरों को पालतू बनाने वाले अपने वीर पुरखों को ‘पिढ़ीथानों’ में सखुआ के खूंटा, लोहा का गोल सीकरी, पत्थरों को ‘पीढ़ीथान’ में स्थापित कर वर्षों से वीर पुरखों की पूजा करते आ रहे हैं. इस पूजा में पशुओं के बालों से बने विशेष कोड़े का इस्तेमाल किया जाता है. उनसे क्षमा याचना की जाती है. पूरे पूजा के दौरान ढोल-नगाड़े, शहनाई और मांदर के साथ ‘डागेर’ देकर उन वीर पुरखों का आह्वान किया जाता है, जिसमें ‘पीढ़ीथान’ का पुरखा गीत जिसमें वीरा कुंवर, वीरा क्षत्रिय, सामु कुंवर, दामू कुंवर, चरका कुंवर, हरियर कुंवर एवं कलिया कुंवर कुल सात भाई के द्वारा पीढ़ीथान में पूजा करने की गाथा को लोकगीतों में अभिव्यक्त कर ये अमर लोकगीत आज भी अहीरों के द्वारा गाये जाते हैं.
बोल हे… . वीरा कुंवर, वीरा क्षत्रिय, सातों भइया करो हथीन सलहा मतिया रे घायना…. चला भइया गंगा असनान करे हो
सोहराय परब के पहली सांझ यूं कहें दिवाली की रात को आंगन, भंडार कोना, गाय गोहाल में अरवा चावल के साथ दिया जलाते हुए गाया जाने वाला लोकगीत देखे:
बोल हे… कावन दिअवा बरेय अना गुता सना गुता रे. घायना…कावन दिअवा बरेय पहिलो सांझ रे… घायना बोल हे…
लोकगीत के द्वारा पुरखों की स्तुति है जो उनके प्रति किये गए कार्यों का सम्मान में अभिव्यक्त करता है.
कोना रतन रे बाबू आली ओलदिया हो…दया कोना रतन गावे सोहराये…हाय… रे… बूढ़ा खुल्हना रे बाबू आली ओलदिया हो…दया सोना रतन गावे सोहराये।
उपरोक्त लोकगीत इस बात को प्रमाणित करती है की पुरखा अतीत का दर्पण हैं जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता है.
सोहराय परब में ‘डाइर खेल’ का आयोजन किया जाता है, जहां अपने पालतू जानवरों को अपने दुश्मन जानवरों से युद्ध कौशल का अभ्यास करवाया जाता है. यह कृषि और पशुपालन पर आधारित है परब है जो इस लोकगीत से समझ सकते हैं.
गइया खभले धुरी उडले हो
दया सातो अहीर नाचल-खेलल जाय
गइया घुरलय तीसी खाइले हो
दया सातो अहीर बांधल-छंदल जाय
घरवा ही कांदो मइया त बहिनीया हो
ऐडवारी कांदो जेठा भाइ
कनवाके सोना अहिरा राखबे बंधिकाव हो
दया सातो अहीर लानबय छोडाय हो।
खोरठा लोकगीत के माध्यम से समझ सकते हैं कि जुल्म तब भी कम नहीं थे. घर-परिवार के मुश्किल हालातों में भी महिलाएं ही आगे रहीं हैं और जुल्म को खत्म करने में साथ देती रहीं हैं. इसलिए इस लोकगीत का आगे का बोल है जिसमें महिलाएं ढाढ़स देते हुए कहती हैं कनवा के सोना अहिरा राखबय बंधिकवा दया सातो अहीर लानबय छोडाय.
(संस्थापक/अध्यक्ष, खोरठा डहर)