डॉ ज्योतिष कुमार केरकेट्टा ‘पहान’
झारखंड के आदिवासियों के प्रकृति पर्व सरहुल जिसे बाः या बाहा पोरोब (फूलों का पर्व) भी कहा जाता है, सखुए के ही फूल प्रयुक्त होते हैं और पहान द्वारा गांव के प्रत्येक घर में सखुए फूल के प्रवेश कराये जाने से पहले अन्य वृक्षों के नये फूलों एवं फलों के प्रवेश और उपयोग वर्जित माने जाते हैं. इस पर्व का विस्तार छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल और मघ्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों तक ही अब सीमित नहीं है. झारखंड सरहुल के दिन सामूहिक उत्सव का एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करता है, क्योंकि प्रकृति के संरक्षण का भाव सबमें एक है.
सखुआ, साल, सारजोम, सरई जैसे नामों से जाने और पाये जाने वाले झारखंड के माटी के वृक्ष का वानिस्पतिक नाम शोरिया रोबस्टा है जो डिप्टरोकारपेसी कुल की एक प्रजाति है. डिप्टरोकारपेसी कुल का विस्तृत विवरण रोबर्ट स्कॉट ट्रूप के द्वितीय वॉल्यूम (1921) ‘द सिल्विकल्चर ऑफ इंडियन ट्रीज’ के कुल 471 पन्नों में संकलित है. भारतीय उपमहाद्वीप इस वृक्ष का मूल निवास है. इस द्विबीजपत्री, अर्धपर्णपाती बहुवर्षीय वृक्ष के गुण एवं लक्षण इसे अद्वितीय बनाते हैं. हिमालय की तलहटी में कुछ उत्तराखंड के इलाके के अलावे उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय से लेकर यह मुख्य रूप से झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और ओड़िशा के जंगलों में भी उगता है जो अपने बड़े प्राकृतिक अनुकूलन क्षमता को प्रदर्शित करता है.
भारत के दो राज्य झारखंड और छत्तीसगढ़ में यह वृक्ष राजकीय वृक्ष के रूप में घोषित है. सौ वर्ष से अधिक आयु को प्राप्त करने वाले इस वृक्ष की लकड़ी बहुत ही कठोर, भारी और मजबूत होती है जिसका क्षय भी पड़ी अवस्था में काफी धीमा होता है. सखुए के लिये स्थानीय कहावत है – ‘सौ वर्ष खड़ा, सौ वर्ष पड़ा फिर भी ना सड़ा’. इसके जड़ों की विशेषता इसे जंगल में जीवट बनाती है. बीजों के जन्मने के कई वर्षों तक पौधों के उपरी हिस्से किन्ही कारणों से यथा; सूखा, पाला, प्रकाश की कमी, चराई आदि से कई बार नष्ट हो भी जाएं तो इनकी जड़ें अपने को विकसित करती रहती हैं और अनुकूल परिस्थिति पाने पर सखुआ एकाएक अपने धड़ को पुनर्स्थापित कर लेता है. इस घटना को इसके अंकुरण के संदर्भ में ‘डाईंग बैक ऑफ साल’ कहा जाता है.
पश्चिम सिंहभूम के सारंडा जंगल को सखुए का घर कहा गया है, जहां भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे उच्च कोटि के सघन साल वृक्ष पाये जाते हैं. भारतीय वन सेवा के प्रशिक्षु और वानिकी के विद्यार्थियों का सारंडा के थोल्कोबाद स्थल में अध्ययन और प्रशिक्षण अलग ही अनुभूति प्रदान करती है, जिसके बिना वानिकी का ज्ञान और परिचय आज भी अधूरा माना जाता है. सात सौ पहाड़ियों का यह क्षेत्र अपनी दुर्गमता, अनुकूल मिट्टी वाले सटीक जगह पर सखुए वृक्ष की बहुलता के साथ अपना प्रभुत्व जमाता है किन्तु, आसन और जामुन के वृक्ष कम संख्या में इनके साझेदार के रूप में रहते हैं. सखुए के बीज जून महीने में पकते हैं, बीजों की जीवितता वृक्षों से गिरने के बाद मात्र सात दिनों की होती है अतः मौनसून पूर्व वर्षा बीजों अंकुरण के लिए अत्यंत आवश्यक माने जाते हैं, जो इन क्षेत्रों को ससमय प्राप्त होते हैं.
झारखंड के संदर्भ में सखुए वृक्ष की अलग ही भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सौंदर्य पहचान है. सामाजिक रूप से जीवन की गहराईयों तक रचा-बसा सखुआ आदिवासियों के विवाह संस्कार से लेकर कृषि कार्य और गृह निर्माण के साथ-साथ छोटी-बड़ी आर्थिक जरूरतों को भी पूरा करता है. बीजों का उपयोग ‘साल बटर’ के उत्पादन में होता है. खाद्यान्न संकट से उत्पन्न विकट परिस्थितियों में लोगों ने इसके बीजों उपभोग भी किया है अतः इसे जीवन रक्षक वृक्ष के रूप में भी माना जाता है. आदिवासियों के पूर्वजों द्वारा स्थापित सखुए के साथ सहजीवन की भावनात्मक, धार्मिक और वैज्ञानिक सोच आज भी कई पूजा स्थलों में संरक्षित उपवन के रूप में देखे जा सकते हैं तथा नये वृक्ष लगाकर इसे पुनर्जीवित करने के प्रयास भी किये जा रहे हैं.
Also Read: रांची के आदिवासी हॉस्टल में CM हेमंत सोरेन ने धूमधाम से मनाया सरहुल पर्व, मांदर की थाप पर थिरके लोग
काष्ठ की जरूरतों के अलावे इसकी पत्तियों को सीकर भोजन परोसना-खाना, लपेटकर भोजन बनाना-रखना आदि शुद्धता और स्वाद के रूप में आदिवासी समाज में चिरकाल से प्रचलित हैं तथा आज भी पूजन सामग्री के रूप में आवश्यक रूप से विद्यमान है. पूजा में प्रयुक्त होने वाले पत्ते के चयन में विशेष ध्यान और उसे सीने की विधि सामान्य से अलग रखी जाती है. तने से रिसने वाले पदार्थ दामर जिसे राल अथवा धूप कहा जाता है, का प्रयोग धूमीकरण के लिये सर्वविदित है. मार्च-अप्रैल के महीने में सखुए के वृक्ष अपने नये चमकदार कोमल पत्तों से धरती का शृंगार कर रही होती है मानो धरती और सूर्य के विवाह की तैयारी हो रही हो, जबकि फूलों में विद्यमान दो विपरीत संरचनाएं सौंदर्य, प्रेम और संसार में निरंतर सृजन का बोध कराते प्रतीत होते हैं.
झारखंड के आदिवासियों के प्रकृति पर्व सरहुल जिसे संथाल, मुंडा और हो समुदाय अपनी भाषा में बाः या बाहा पोरोब (फूलों का पर्व), खड़िया में जंकोर माने अंकुरण, जबकि कुंड़ुख भाषा में इसे खद्दी (शिशु या सृजन) और खेखेल बेंजा (धरती का विवाह) कहते हैं, जिसमें सखुए के ही फूल प्रयुक्त होते हैं. इस पर्व अथवा विवाह में पहान अपनी अध्यात्मिक भूमिका निभाता है और इस सृष्टि की रक्षा, सृजन और जनकल्याण की कामना करता है. इसके साथ ही नववर्ष की शुरुआत मानी जाती है.
Also Read: आज दोपहर 1 बजे के बाद रांची के इस रास्ते से न निकलें, हो जाएंगे परेशान, जानिए वजह