My Mati: झारखंड की लोककथाओं में समाहित सृष्टि

नागपुरी, मुंडारी, कुडुख, हो, खोरठा, पंचपरगनिया, कुरमाली आदि में लोककथाएं बहुतायत से मिलती हैं. एक समय था कि इस इलाके के आदिम जातियां जो अलग-अलग क्षेत्रों में निवास करती थीं, प्रत्येक समूह के अपने-अपने गीत-संगीत एवं लोककथाएं थीं.

By Prabhat Khabar News Desk | November 4, 2022 2:06 PM

My Mati: आदिवासी बहुल क्षेत्र झारखंड में आदिवासी समुदाय के बीच हजारों वर्ष से लोककथाओं और लोकगीतों की वाचिक परंपरा रही है. इनके रचयिता का नाम पता नहीं पर गांव, जंगल की चौपालों, अखरा, घर-आंगनों में खिस्सा-कहनी कहने का खूब प्रचलन रहा है. सर्दियों में बोरसी की आंच और चिंगारी के इर्द-गिर्द या जलते अलाव के किनारे सिंकते हाथ-पांवों के मध्य ये लोककथाएं एक-दूसरे को सुनाई जाती रही हैं. वैसे तो सभी समुदाय में लोककथाओं को कहने, संजोने और संवारने की रीत रही है लेकिन आदिवासी समुदाय में यह आग्रह ज्यादा ही प्रचलित था.

आदिवासी और आदिम जनजाति की अपनी समृद्ध संस्कृति है. उनके मौखिक साहित्य की भी. असुर, मुंडा, नाग, उरांव, हो आदि आदिवासी समाज में मौखिक रूप से खिस्सा-कहनी कहने का यह चलन सदियों से है. सृष्टि, सृष्टि की उत्पति, पर्यावरण, मनुष्य संग चिरिया-चुरुंग और बाघ-शेर जैसे जानवर के रिश्ते, अपनी संस्कृति के बारे में जानकारी बच्चों, किशोरों, युवाओं के समक्ष ये लोककथाएं रोचक ढंग से परोसती रही हैं.

झारखंडी संस्कृति का अध्ययन लोककथाओं एवं लोकगीतों के अध्ययन के बिना पूरा नहीं हो सकता.आज भी जनजातीय समाज बीर-बुरु, दोन-टांड़, जंगल से प्रेम करता है. लोककथाएं जंगल के जानवरों से प्रेम और संघर्ष को प्रतिबिंबित करती रही हैं. प्रायः जीवन के हर घटनाक्रम पर, आदिम जाति के संघर्ष, स्वतंत्रता आंदोलन में विद्रोह सह बलिदान, शोषण, हंसी-खुशी, सभ्यता-संस्कृति पर वाचिक साहित्य मिल जाता है. आदिवासी बहुल झारखंड के लगभग हर क्षेत्र में भी. कथाओं में मात्र मनुष्य जीवन के लोकरंग समाहित नहीं हैं, बल्कि बेजुबान, मासूम जीवों संग हिंसक जानवरों के साथ मानव के रिश्तों को भी स्वर मिला है.

सुर-असुर, देवी-देव, राकस-परियांं, सृष्टि की उत्पत्ति की कहानी हो कि उनके ध्वस्त होने की, चांद, सूर्य, ध्रुव तरेंगन (तारा) की बात हो कि सप्तऋषि तारे की उत्पत्ति की, झारखंड की लोककथाओं ने बड़ी उदारता से उन्हें परोसा है. अविश्वसनीय चमत्कार लोककथाओं की विशेषता हैं, जो आदिवासी जनमानस में गहरे तक धंस जाती रही हैं. प्रकृति और पर्यावरण लोकगीतों, लोककथाओं में बड़ी गहराई से गुंथे हुए हैं. इनमें प्रकृति का मानवीकरण देखते बनता है. अभी भी अमेरिका के रेड इंडियन या अश्वेत, लैटिन अमेरिका के इंडीजीनस, अफ्रीका के अश्वेत, ग्रीनलैंड के इन्युट, कनाडा, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया या भारत के आदि जन सभी प्रकृति रक्षा की वकालत करते हैं.

झारखंड की विभिन्न बोलियों यथा – नागपुरी, मुंडारी, कुडुख, हो, खोरठा, पंचपरगनिया, कुरमाली आदि में ये लोककथाएं बहुतायत से मिलती हैं. एक समय था कि इस इलाके के आदिम जातियां जो अलग-अलग क्षेत्रों में निवास करती थीं, प्रत्येक समूह के अपने-अपने गीत-संगीत एवं लोककथाएं थीं. वे एक-दूसरे के बीच एकदम प्रचलित नहीं थी. कोई भी दूसरे की बोली की लोककथाओं एवं लोकगीतों के बारे में नहीं जानता था.

कालांतर में सभी आदि समुदाय के एक-दूसरी जगह जाने के कारण ये अन्य जगहों पर कानों-कान पहुंच मशहूर हुईं. कुछ बदलाव भी हुए. एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने पर इन लोककथाओं का रूप-रंग भी बदलता गया.अलग-अलग जगहों की कथाएं नई जगह पर विविध ढंग से कही-सुनी जाती रहीं. इससे इनका नयापन बरकरार रहा.

सृष्टि की उत्पत्ति सहित अनेक लोककथाओं में से एक धरती, सूरज और उनकी बेटी बिंदी की भी लोककथा इस इलाके में खूब प्रसिद्ध है. बिंदी के पाताल लोक से लौटने पर साल में एक बार चैत मास में रबी फसल के बाद धरती की संतान गाछ-बिरिछ, फूइर-पात, फल से ढंकने जाता है. उसी की याद में सरहुल पर्व मनाया जाने लगा. सरहुल प्रकृति पूजक आदिवासियों का बहुत बड़ा त्यौहार है. प्रकृति की मनोरमता और फसलों की आमद के कारण मनाया जानेवाला अद्भुत वसंतोत्सव.

अब भी मांदर की थाप पे जीवन के गीत झारखंड के हर गांव, जंगल, गली-कूचे में सुने जाते हैं पर यह त्रासद सच है कि अब लोककथाएं आधुनिक समाज का वैसा हिस्सा नहीं रहीं.आज आम लोगों के बीच उतना लोकप्रिय नहीं रह गई हैं.उनके गुम जाने का खतरा जब मंडराने लगा, उन्हें संजोने की आवश्यकता बढ़ गई. पुरखा मौखिक साहित्य को बचाने के प्रति आज साहित्यकार सजग हो चुके हैं. अनेक आदिवासी संस्थाओं ने इसे सहेजने का श्लाघनीय कार्य किया है. हां, बहुत सहज-सरल ढंग से बड़ी बात और सीख परोसनेवाली लोकथाओं की अब तो पूरे विश्व में धाक है.

ऐसे में मुझे लगता है, इन प्रयासों को और धार देने की जरूरत है. आम जन के बीच लोकप्रियता बढ़ाने की आवश्यकता है.मैंने स्वयं अपनी कहानियों, यात्रावृत्त में लोककथाओं को पिरोया है, संजोया है. बहुत दिनों से लोकरंग के प्रति आसक्ति के कारण लोकथाओं का अध्ययन कर लिखती रही हूं. बुजुर्गों से भी सुनी हैं. लोगों को आसानी से समझ में आ जाए, इसके लिए हल्की रचनात्मक छूट ली गई है.

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