मांय माटी: आदिवासी भाषाओं का फादर कामिल बुल्के कौन बनेगा
डॉ कामिल बुल्के हिंदी, संस्कृत के अलावा कई विदेशी भाषाओं के ज्ञाता थे और ‘अंगरेजी हिंदी शब्दकोश’तैयार कर हिंदी को ज्ञान, विज्ञान और तकनीक की शब्दावली को फलने-फूलने का आधार बनाया था. वर्ष 1967 में हिंदी शब्दकोश के पहली बार प्रकाशित होने के बाद से इसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं.
महादेव टोप्पो, कवि व लेखक
My Mati: सभी जानते हैं डॉ कामिल बुल्के हिंदी, संस्कृत के अलावा कई विदेशी भाषाओं के ज्ञाता थे और ‘अंगरेजी हिंदी शब्दकोश’तैयार कर हिंदी को ज्ञान, विज्ञान और तकनीक की शब्दावली को फलने-फूलने का आधार बनाया था. वर्ष 1967 में हिंदी शब्दकोश के पहली बार प्रकाशित होने के बाद से इसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. हिंदी, संस्कृत के अलावा कई विदेशी भाषाओं के ज्ञाता थे और ‘अंगरेजी हिंदी शब्दकोश’तैयार कर हिंदी को ज्ञान, विज्ञान और तकनीक की शब्दावली को फलने-फूलने का आधार बनाया था. वर्ष 1967 में हिंदी शब्दकोश के पहली बार प्रकाशित होने के बाद से इसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के अलावा भारतीय रिजर्व बैंक के उच्चाधिकारी डॉ. श्रीनिवास द्विवेदी ने इसको अद्यतन कर इसकी उपयोगिता को दीर्घजीवी बनाया है.
फलतः, यह शब्दकोश आज भी किसी अनुवादक या विद्वान के लिए किसी अन्य शब्दकोश के मुकाबले ज्यादा उपयोगी साबित होता रहा है. इस तरह हिंदी को आधुनिक वैज्ञानिक व तकनीकी शब्दावली को लोकप्रिय बनाने का श्रेय कामिल बुल्के को जाता है. लेकिन एक काम के लिए तमाम हिंदी शोधकर्ता उनके ऋणी होंगे कि कामिल बुल्के ने हिंदी को शोध की भाषा बनाने में भी अपना योगदान दिया था.
जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कामिल बुल्के को रामकथा पर शोध करने की अनुमति मिली तो तत्कालीन नियम के अनुसार शोध-पत्र अंग्रेजी में लिखना था. उन्हें यह जानकर आश्चर्य और दुख हुआ कि हिंदी का शोध-पत्र हिंदी में लिखने की अनुमति नहीं है और विद्यमान नियमों के हिसाब से कामिल बुल्के को शोध-पत्र अंगरेजी में लिखना था. उनके अंग्रेजी ज्ञान के कारण यह आसान भी था. लेकिन हिंदी के प्रति समर्पित इस विदेशी को अंग्रेजी में शोध लिखना उसके स्वाभिमान के विरुद्ध लगा. फलतः उन्होंने अपने शोध-निर्देशक डॉ. माताप्रसाद गुप्त और विभागाध्यक्ष डॉ. धीरेंद्र ओझा से बात की. लेकिन उन्होंने बताया कि नियम के हिसाब से उन्हें शोध-पत्र अंग्रेजी में लिखना होगा.
कामिल बुल्के जो यूरोप में अपनी मातृभाषा फ्लेमिश के लिए संघर्ष कर चुके थे, उन्हें यह बात पसंद नहीं आई और वे आवेदन लेकर कुलपति अमरनाथ झा के पास गए. डॉ. अमरनाथ झा ने कामिल बुल्के की बातें ध्यान से सुनीं और उनके इस तर्क से सहमत हुए कि हिंदी का विकास चाहते हैं तो हमें हिंदी में शोध-पत्र लिखने की अनुमति देनी होगी. डॉ अमरनाथ झा ने कामिल बुल्के को हिंदी का शोध-पत्र अंग्रेजी के बदले हिंदी में लिखने की अनुमति दे दी. इस घटना ने समस्त उत्तर भारत में, हिंदी शोध-पत्र हिंदी में लिखने के लिए माहौल बना दिया. और तब से हिन्दी के शोध-पत्र हिंदी में लिखे जाने लगे.
ठीक इसी तरह आज कई विश्वविद्यालयों में जहां आदिवासी भाषाएं पढ़ायी जाती हैं, वहां कई पत्र हिंदी या राज्य की भाषा में लिखने की अनुमति है. सभी प्रश्न-पत्रों के उत्तर मातृभाषा में लिखे जाने की परंपरा आरंभ करने से संबंधित-आदिवासी-भाषाओं का ज्यादा विकास संभव है. ऐसे शोध-पत्रों को भी आदिवासी-भाषा में लिखने से संबंधित आदिवासी-भाषा के विचार और शब्दावली का विस्तार होगा. तब कोई भी आदिवासी-भाषा विचार, तथ्यों, और शब्दों के मामले में ज्यादा समृद्ध होगी. इसलिए ऑनर्स के पत्र या एमए स्तर सारे पत्रों के उत्तर आदिवासी भाषाओं में दिए जाने की व्यवस्था होनी चाहिए. लेकिन, सवाल है इसकी शुरूआत कौन करेगा? क्या आदिवासी भाषाओं के लिए भी हमें किसी कामिल बुल्के का इंतजार करना पड़ेगा ? आखिर अपनी मातृभाषा को शोध-पत्र लिखने लायक बनाने की इच्छा हमें ही पैदा करनी होगी. कल कामिल बुल्के का जन्मदिन था. इस अवसर पर मेरे मन में प्रश्न आ खड़ा हुआ था कि हमारी आदिवासी भाषाओं का ऐसा उद्धारक कौन बनेगा ?