वित्त वर्ष 2016-17 से 2021-22 तक ‘राष्ट्रीय बागवानी मिशन’ की विभिन्न योजनाओं में करीब 36 करोड़ रुपये का घोटाला उजागर हुआ है. उक्त अवधि में हुए कार्यों के विशेष ऑडिट के दौरान यह बड़े पैमाने पर गड़बड़ी पकड़ में आयी है. ऑडिट टीम ने योजना के तहत खर्च किये गये 8.11 करोड़ रुपये को वसूलने की जरूरत बतायी है.
वहीं, करीब 28 करोड़ रुपये के खर्च को आपत्तिजनक करार दिया है. विशेष ऑडिट की रिपोर्ट कृषि, पशुपालन एवं सहकारिता विभाग को सौंप दी गयी है. साथ ही इसमें गड़बड़ी करनेवाले अधिकारियों और आपूर्तिकर्ताओं से पैसा वसूली व कार्रवाई की अनुशंसा की है. ऑडिट टीम ने 30 दिनों के अंदर विभाग से की गयी कार्रवाई की जानकारी भी मांगी है. इस अवधि के दौरान लेखा प्रभारी के तौर पर छह अधिकारी पदस्थापित रहे थे.
ऑडिट टीम ने रोकड़ पुस्त (कैश बुक) का संधारण अनियमित पाया. रोकड़ पुस्त का माह या वर्ष के अंत तक निकासी एवं व्ययन पदाधिकारी ने कभी भौतिक सत्यापन नहीं किया. ऑडिट टीम ने माना कि इससे गबन एवं दुर्विनियोग (गलत खर्च) की संभावना हमेशा बनी रहती है.
खाता-बही का बैंक से भी मिलान नहीं कराया गया. महालेखाकार से भी सत्यापन नहीं कराया गया. विभिन्न तिथियों और अवधि का रोकड़ पुस्त पदाधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित नहीं पाया गया. ऑडिट टीम ने बजट नियंत्रण पंजी, आवंटन पंजी भी अपडेट नहीं पाया. वेतन भुगतान पंजी का संधारण भी नहीं किया जा रहा था.
ऑडिट टीम ने पाया कि योजना पंजी का संधारण भी सही तरीके से नहीं किया गया था. लाभुकों का आंकड़ा भी एक जगह नहीं पाया गया. इस कारण कई योजनाओं में दुरुपयोग पाया गया. ऑडिट टीम ने अधिकांश व्यय वित्तीय वर्ष के अंत में पाया. इससे अनियमितता की संभावना बनी रहती है. टीम ने पाया कि आवंटन भी वित्त वर्ष के अंत में मिलता था. राज्य कार्यकारिणी परिषद का स्वीकृति भी विभाग को विलंब में मिलता था.
ऑडिट टीम ने पाया कि न तो जिम्मेदार अधिकारियों ने योजना की जांच की न ही सही तरीके से थर्ड पार्टी का वेरिफिकेशन कराया गया. राज्य मिशन निदेशक के स्तर से यह काम होना चाहिए था, जो नहीं किया गया. इसे ऑडिट ने अधिकारियों की उदासीनता और लापरवाही माना.
ऑडिट टीम ने पाया कि 2017-18 और 2018-19 में इच्छा की अभिव्यक्ति के आधार पर 55 किसानों को प्रिजर्वेशन यूनिट निर्माण की स्वीकृति दी थी. किसानों को 50 फीसदी अनुदान पर 27.50 लाख रुपये का भुगतान किया गया. दो लाख की यूनिट में एक लाख रुपये अनुदान था. इसकी तकनीकी स्वीकृति जेइपीसी से ली गयी थी. ऑडिट में पता चला कि प्रिजर्वेशन यूनिट बनाने के लिए किसी एजेंसी को नामित नहीं किया गया था. जांच टीम को लाभुकों का डिमांड भी नहीं दिखाया गया.