पुष्कर महतो:
निर्मल महतो का नाम सिर्फ निर्मल दा ही नहीं, झारखंड अलग राज्य का आंदोलन भी है. झारखंडी जनमानस की पहचान, जल, जंगल, जमीन के अस्तित्व की सुरक्षा व झारखंडी मूल्यों की रक्षा के लिए संघर्ष करना निर्मल महतो की पहचान थी. झारखंड अलग राज्य के आंदोलन को दिशा देने में अपना सर्वस्व कुर्बान करने वालों में निर्मल महतो स्वयं एक आंदोलन थे एक विचार थे. उनकी कुर्बानियों का फल झारखंड अलग राज्य है.
25 दिसंबर 1950 को जमशेदपुर कदमा के उलियान में जन्मे निर्मल महतो अपने तेज एवं धारदार आंदोलन के बल पर माफिया राज, महाजनी प्रथा,अन्याय और शोषण करने वाले समाज के खिलाफ मुखर थे. उन्होंने झारखंड आंदोलन को गतिमान बनाने के लिए आर्थिक नाकेबंदी, रैली, सभाएं वगैरह कर राष्ट्रीय पटल पर झारखंड को स्थापित करने का काम किया. देश और दुनिया को झारखंड की पहचान एवं झारखंडी जनमानस के दर्द को बताने का काम किया.
जहां शोषण की बात सुनते पहुंच जाते, कई बार तो सूदखोरों की जमकर पिटाई भी किये. हॉकी स्टिक उनके ग्रुप का हथियार हुआ करता था. उन दिनों जमशेदपुर में सूदखोर हरिजन मोहल्ला में दलितों को कर्ज देते और एक तारीख को जब वेतन मिलता तो जबरन पैसा छीन लेते. निर्मल महतो ने तय कर लिया था कि वह कमजोर वर्ग के लोगों पर अत्याचार नहीं होने देंगे. उन्होंने खोज-खोज कर सूदखोरों को पीटना शुरू किया. यहीं से उनकी लोकप्रियता बढ़ती गयी. निर्मल महतो जानते थे कि झारखंडी लोगों का विकास तब तक नहीं हो सकता, जब तक वह शराब नहीं छोड़ेंगे. वे मानते थे कि झारखंडियों का विकास इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि वह शराब में पैसा बर्बाद कर देते हैं.
उड़ीसा के क्योंझर में दबंगों ने चार गांवों की लगभग 500 एकड़ जमीन पर कब्जा कर लिया था. गांव वाले परेशान थे. ग्रामीणों ने निर्मल महतो को बुलाया. निर्मल दा ने वहां सभा की और एसडीओ को सचेत किया कि वह ग्रामीणों को दखल दिलाएं वरना अगली बार वे सभा करेंगे और सिर के बल पर लोगों को उनकी जमीन दिलाएंगे. निर्मल महतो वहां से लौट गये, लेकिन उस बात को भूले नहीं. कुछ माह बाद फिर गये. वहां झामुमो का झंडा गाड़ा और सभा की. गांववालों की जमीन वापस करवायी. लोग उनकी नेतृत्व क्षमता एवं दक्षता के कायल हो गये. निर्मल महतो शुरू में से ही अलग राज्य के पक्षधर थे, इसलिए शुरू-शुरू में वे झारखंड पार्टी में शामिल थे. निर्मल दा के क्षेत्र में झारखंड मुक्ति मोर्चा का प्रवेश नहीं हुआ था. वहां झारखंड पार्टी का अच्छा खासा जनाधार था.
28 अक्टूबर 1980 को एसपीजी मिशन हाई स्कूल मैदान चाईबासा में झारखंड मुक्ति मोर्चा की विशाल रैली हुई, जिसमें पचीस-तीस हजार लोगों ने भाग लिया. इस सभा में निर्मल दा भी शामिल हुए. निर्मल महतो और शिबू सोरेन की पहली मुलाकात भी इसी सभा के दौरान हुई. चाईबासा की सभा और शिबू सोरेन से मुलाकात के बाद निर्मल महतो मानसिक तौर पर झारखंड मुक्ति मोर्चा में शामिल हो गये थे. इसी बीच गम्हरिया की एक कंपनी में हड़ताल हो गयी. इसमें शैलेंद्र महतो ने निर्मल महतो से कहा कि वह इसमें झारखंड मुक्ति मोर्चा की ओर से नेतृत्व संभाल ले.
21 अक्टूबर 1982 को तिरुलडीह पुलिस फायरिंग में अजीत महतो और धनंजय महतो नामक दो कॉलेज छात्रों के मारे जाने के बाद पुलिस का आतंक इतना बढ़ गया था कि दोनों को शव लेकर कोई उनके गांव नहीं जाना चाहता था. उस समय निर्मल महतो और उनके साथी अखिलेश्वर महतो आदित्यपुर में थे. उन्हें वहीं पर जानकारी मिली कि तिरुलडीह पुलिस फायरिंग में मारे गये दोनों छात्रों के शव एमजीएम अस्पताल जमशेदपुर में पड़े हैं. निर्मल महतो ने पैसे की व्यवस्था की. धनंजय महतो को खुद निर्मल महतो ने मुखाग्नि दी. इस घटना के बाद निर्मल महतो झामुमो के वरिष्ठ नेताओं में गिने जाने लगे.
वर्ष 1984 में झामुमो का विभाजन हो गया. रांची के अधिवेशन में निर्मल महतो को अध्यक्ष चुना गया. वह राजनीति को गहराई से समझने लगे थे. उन्हें मालूम था कि जेएमएम की सीमा क्या है, इसलिए उन्होंने शिबू सोरेन को समझाया कि अगर पार्टी को मजबूत करना है तो मजबूत छात्र संगठन तैयार करना होगा. इसके लिए उन्होंने ऑल असम स्टूडेंट यूनियन आसू के तर्ज पर ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन आजसू के गठन का प्रस्ताव किया था. उनके सुझाव को जेएमएम के शीर्ष नेताओं ने मान लिया.
शिबू सोरेन और निर्मल महतो दोनों एक दूसरे का बहुत आदर करते थे. दोनों का साथ सिर्फ सात साल का रहा. लेकिन सात सालों के भीतर निर्मल महतो ने झारखंड आंदोलन को ऊंचे मुकाम तक पहुंचाया. निर्मल महतो पद के लिए कभी लोभी नहीं रहे. उन दिनों बिहार में एमएलसी का एक पद खाली हुआ था. शिबू सोरेन की इच्छा थी कि निर्मल महतो एमएलसी बन जाएं. इसके लिए नामांकन पत्र लाया गया. शिबू सोरेन ने खुद अपने हाथों से निर्मल महतो का नाम और पूरा फॉर्म भरा. निर्मल महतो ने भी हस्ताक्षर कर दिया.
अंतिम समय में निर्मल महतो ने शिबू सोरेन से आग्रह किया कि किसी और को एमएलसी बना दीजिए. रांची के आसपास का कोई आदिवासी नेता बेहतर होगा. उन्हें इस बात की जानकारी मिल गयी थी कि कुछ लोग नहीं चाहते कि वह एमएलसी बने. निर्मल महतो ने रांची के भाई हालेन कुजूर का नाम भर दिया और कुजूर एमएलसी बन गये. निर्मला दा त्याग की प्रतिमूर्ति बने. उनके इस त्याग की चर्चा सियासी गलियारों में आज भी होती है. उन्होंने पार्टी के अंदर सामाजिक समरसता एवं झारखंडी भाईचारा को एकजुट करने के लिए हर मुमकिन कोशिश की.
आठ अगस्त 1987 को जमशेदपुर में अवतार सिंह तारी की मां का श्राद्धकर्म था. उस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए सात अगस्त को ही निर्मल महतो, ज्ञानरंजन, सूरज मंडल और बाबूलाल सोय रांची से जमशेदपुर आ गये थे. उन लोगों के ठहरने की व्यवस्था चमडिया गेस्ट हाउस में की गयी थी. दो कमरे बुक हुए थे. कमरा नंबर एक सूरज मंडल और कमरा नंबर दो ज्ञान रंजन के नाम से बुक था. निर्मल महतो सूरज मंडल के साथ कमरा नंबर एक में ठहरे थे. आठ अगस्त 1987 का दिन था. निर्मल महतो, ज्ञानरंजन, सूरज मंडल अपने कुछ सहयोगियों के साथ चमड़िया गेस्ट हाउस की सीढ़ी से उतर रहे थे.
सीढ़ी से उतरते समय निर्मल महतो को धीरेंद्र सिंह उर्फ पप्पू ने सामने से और वीरेंद्र सिंह ने पीछे से गोली मारी. गोली लगते ही निर्मल महतो वहीं गिर पड़े. सूरज मंडल को भी अंगुली में गोली लगी. दोनों को जीप से एमजीएम ले जाया गया, जहां चिकित्सकों ने मृत घोषित कर दिया. निर्मल महतो की हत्या की खबर तुरंत पूरे राज्य में आग की तरह फैल गयी. हत्या के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा और आजसू के कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आये. जमशेदपुर शहर बंद रहा. कई जगह पर तोड़फोड़ भी हुई. तीन दिनों के झारखंड बंद का आह्वान किया गया. शिबू सोरेन भी जमशेदपुर पहुंच गये. बड़ी सभा हुई. निर्मल दा की शवयात्रा में लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए. उन्हें जमशेदपुर शहर के उलियान कदमा में दफना दिया गया. निर्मल दा झारखंडियों के अरमानों में आज भी प्रकाशमान हैं.