आजसू नेताओं को असम-गोरखालैंड निर्मल महतो ने ही भेजा था

1986 में रांची में झामुमो का दूसरा महाधिवेशन अप्रैल में हो रहा था. उसी समय निर्मल महतो ने महसूस किया था कि झारखंड आंदोलन को आगे ले जाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे. यह तभी संभव होगा जब इसमें छात्र जुड़ेंगे.

By Prabhat Khabar News Desk | August 8, 2023 6:59 AM

पुण्यतिथि पर विशेष

अनुज कुमार सिन्हा

ठीक 36 साल पहले यानी 8 अगस्त, 1987 को जमशेदपुर में निर्मल महतो शहीद हो गये थे. उस समय वे झारखंड मुक्ति माेरचा के केंद्रीय अध्यक्ष थे. निर्मल दा (महतो) की हत्या के बाद झारखंड खौल उठा था. उसके बाद झारखंड आंदोलन ने जो गति पकड़ी, उसने अलग झारखंड राज्य का सपना साकार कर दिया. निर्मल दा समय को पहचानते थे और आंदाेलन की रणनीति बनाने में माहिर थे. चाहे आजसू के गठन का मामला हो या आजसू नेताओं को आसू-गोरखा नेताओं से मिलने के लिए गुवाहाटी, दार्जीलिंग भेजने की बात हो, इन सभी के पीछे दिमाग निर्मल महतो का ही काम कर रहा था.

1986 में रांची में झामुमो का दूसरा महाधिवेशन अप्रैल में हो रहा था. उसी समय उन्होंने महसूस किया था कि झारखंड आंदोलन को आगे ले जाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे. यह तभी संभव होगा जब इसमें छात्र जुड़ेंगे. तब सूर्य सिंह बेसरा आक्रामक छात्र नेता के तौर पर उभरे थे. बेसरा के प्रस्ताव पर निर्मल महतो सहमत थे. उसी के बाद 22 जून, 1986 को आजसू का गठन किया गया था. इसी आजसू ने आर्थिक नाकेबंदी से लेकर बंद, रेल पटरी उड़ाने का अभियान चलाया. हिंसा हुई और बाध्य होकर केंद्र ने झारखंड आंदोलन पर बातचीत का प्रस्ताव रखा.

आजसू को मजबूत करने, उसे तैयार करने में गठन के समय से ही निर्मल दा ने बड़ी भूमिका अदा की थी. असम में आल असम स्टुडेंट यूनियन और दार्जीलिंग में गोरखा लिबरेशन फ्रंट ने हिंसात्मक आंदोलन चलाया था, जिसने केंद्र को परेशान कर दिया था. आसू और जीएनएलएफ के आंदोलन को समझने के लिए निर्मल महतो ने 25 जुलाई, 1986 को सूर्य सिंह बेसरा, बबलू मुर्मू और हरिशंकर महतो को जमशेदपुर से विमान से कोलकाता होते हुए गुवाहाटी और दार्जीलिंग भेजा था. तब जमशेदपुर से कोलकाता के लिए सीधी विमान सेवा थी. सारी व्यवस्था निर्मल दा ने की थी.

आजसू के नेताओं ने गुवाहाटी में आसू नेता प्रफुल्ल मोहंती और बाद में दार्जीलिंग में जीएनएलएफ नेता सुभाष घीसिंग से मुलाकात की थी और उनके आंदोलन के तरीके को समझा था. उन्हें जमशेदपुर में बुद्धिजीवी सम्मेलन में आने का न्योता भी दिया था. हालांकि प्रफुल्ल मोहंती और सुभाष घीसिंग ने सम्मेलन में भाग नहीं लिया था लेकिन शुभकामनाएं भेजी थी.

निर्मल महतो ने यह सब इसलिए किया था ताकि आजसू को भविष्य में झारखंड राज्य के लिए अगर हिंसात्मक आंदोलन चलाना पड़े तो उसके लिए आजसू नेता तैयार रहें. वही हुआ भी. इसी आजसू ने 72 घंटे के झारखंड बंद का जो आंदोलन चलाया, उसने केंद्र को भी चिंतित कर दिया था. जब बूटा सिंह ने वार्ता का प्रस्ताव रखा तो सूर्य सिंह बेसरा, प्रभाकर तिर्की, देवशरण भगत, आनंद उरांव और हरिशंकर महतो ने उसमें भाग लिया था.

निर्मल महतो वक्त को पहचानते थे. वे पहले झारखंड पार्टी में थे. लेकिन 8 सितंबर, 1980 के गुवा गोलीकांड ने उनका रास्ता बदल दिया. अक्तूबर 1980 में चाईबासा में होनेवाली सभा के लिए जो परचा छपवाना था, उसे चाईबासा का कोई प्रेस सरकार के भय से छाप नहीं रहा था. शैलेंद्र महतो चुपचाप चक्रधरपुर से निर्मल महतो से मिलने जमशेदपुर आये थे. निर्मल महतो ने ही चुपचाप सोनाली प्रेस से दस हजार पंपलेट छपवा कर शैलेंद्र महतो को दिया था.

उसी दौरान शैलेंद्र महतो ने निर्मल दा को कहा था-झारखंड को आपकी जरूरत है. सिर्फ जमशेदपुर में मत रहिए. झारखंड गांवों में बसता है. जमशेदपुर से बाहर निकलिए, गांव में जाइए और झारखंड आंदोलन को आगे बढ़ाइए. गुवा का हाल तो आपने देखा ही है. अन्याय के खिलाफ लड़िए, हमलोग के साथ मिल कर काम कीजिए. शैलेंद्र महतो के अनुरोध का निर्मल महतो पर गहरा असर पड़ा. उन्होंने वक्त को पहचाना, झामुमो से जुड़ गये. बहुत कम समय में ही शिबू सोरेन ने उनकी ताकत को पहचान लिया. फिर जब विनोद बिहारी महतो 1984 में झामुमो से अलग हुए तो शिबू सोरेन ने निर्मल महतो को विनाेद बाबू की जगह झामुमो का अध्यक्ष बना दिया और खुद महसचिव ही रहे.

शिबू सोरेन और निर्मल महताे की जोड़ी ने बहुत कम समय में झारखंड आंदोलन को शिखर तक पहुंचा दिया. निर्मल महतो की दृष्टि साफ थी. वे सबसे कमजोर वर्ग के पक्ष में लड़ते थे. अध्यक्ष के तौर पर अप्रैल 1986 में केंद्रीय महाधिवेशन में ही उन्होंने कहा था-जब तक पूंजीवादी व्यवस्था को बदला नहीं जायेगा, मेहनतकशों को उनका हक नहीं मिल सकता और वे जुल्म के शिकार होते रहेंगे. जब तक उत्पादक वर्ग के हाथ में सत्ता नहीं आती, तब तक न्याय नहीं मिल सकता. निर्मल महतो का महाधिवेशन में दिया गया भाषण स्पष्ट करता था कि वे किसानों और मजदूरों को न्याय दिलाने के कितने बड़े पक्षधर थे. ऐसे निर्मल महतो की कमी हमेशा खलती है.

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